ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १०८

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १०८ ऋषि – कुत्स अंगिरसः: देवता- इंद्राग्नि । छंद - त्रिष्टुप य इन्द्राग्नी चित्रतमो रथो वामभि विश्वानि भुवनानि चष्टे । तेना यातं सरथं तस्थिवांसाथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥१॥ हे इन्द्राग्नि ! आपका जो अद्भुत रथ सभी लोकों को देखता हैं। उस रथ में दोनों एक साथ बैठकर हमारे यहाँ पधारें और अभिषुत सोमरस का पान करें ॥१॥ यावदिदं भुवनं विश्वमस्त्युरुव्यचा वरिमता गभीरम् । तावाँ अयं पातवे सोमो अस्त्वरमिन्द्राग्नी मनसे युवभ्याम् ॥२॥ यह सम्पूर्ण विश्व जितना विशाल, श्रेष्ठ और गाम्भीर्य युक्त है, हे इन्द्राग्नि ! आपके सेवन के लिए निष्पादित सोमरस उतना ही प्रभावशाली होकर प्रचुर मात्रा में प्राप्त हो ॥२॥ चक्राथे हि सध्यङ्‌नाम भद्रं सध्रीचीना वृत्रहणा उत स्थः । ताविन्द्राग्नी सध्यञ्चा निषद्या वृष्णः सोमस्य वृषणा वृषेथाम् ॥३॥ हे इन्द्राग्नि ! आपकी संयुक्त शक्ति विशेष कल्याणकारी है । हे वृत्रहन्ताऔ ! आप संयुक्त रूप में ही वास करते हैं। हे शक्ति सम्पन्न वीरो ! आप दोनों एक साथ बैठकर सोमरस पान द्वारा अपनी शक्ति को बढ़ायें ॥३॥ समिद्धेष्वग्निष्वानजाना यतस्रुचा बर्हिरु तिस्तिराणा । तीनैः सोमैः परिषिक्तेभिरवगिन्द्राग्नी सौमनसाय यातम् ॥४॥ यज्ञ में यज्ञाग्नि प्रज्वलित होने पर जिनके निमित्त आहुतियाँ प्रदान करने के लिए घृतयुक्त चमसों (पात्रों) को भरकर रखा गया है, तथा कुशाओं के आसन बिछाये गये हैं, ऐसे हे इन्दाग्नि ! जो तीक्ष्ण सोमरस जल मिलाकर तैयार हैं, उसके सेवन हेतु आप हमारे यज्ञ में पधारें ॥४॥ यानीन्द्राग्नी चक्रथुर्वीर्याणि यानि रूपाण्युत वृष्ण्यानि । या वां प्रत्नानि सख्या शिवानि तेभिः सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥५॥ हे इन्द्राग्नि ! शक्ति के परिचायक जिन कर्मों को आपने सम्पादित किया, जिन रूपों को शक्ति के प्रदर्शन के समय आपने प्रकट किया तथा आपके जो प्राचीन समय से प्रचलित कल्याणकारी मित्र भावना के प्रेरक कर्म हैं, उनका ध्यान रखते हुए सोमरस पान के लिए यहाँ पधारें ॥५॥ यदब्रवं प्रथमं वां वृणानोऽयं सोमो असुरैर्नो विहव्यः । तां सत्यां श्रद्धामभ्या हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥६॥ सर्वप्रथम आप दोनों की इच्छा को ध्यान में रखते हुए ही हमने कहा था कि याज्ञिकों ने ये हमारा सोमरस आपके निमित्त ही निष्पन्न किया है, इसलिए हमारी हार्दिक श्रद्धानुसार आप दोनों हमारे यज्ञ में आयें तथा निष्पन्न सोमरस का सेवन करें ॥६॥ यदिन्द्राग्नी मदथः स्वे दुरोणे यद्ब्रह्मणि राजनि वा यजत्रा । अतः परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥७॥ हे इन्द्रदेव और यज्ञाग्ने ! यजमान के गृह, ज्ञान सम्पन्न साधक की वाणी अथवा राजगृह में जहाँ भी आप आनन्दयुक्त रहते हों, उन स्थानों से आप हमारे यज्ञ में आयें। इस अभिषुत सोमरस का पान करें ॥७॥ यदिन्द्राग्नी यदुषु तुर्वशेषु यद्रुह्युष्वनुषु पूरुषु स्थः । अतः परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥८॥ हे इन्द्राग्नि ! आप दोनों, यदुओं, तुर्वशों, द्रुह्यों, अनुओं और पुरुओं के यज्ञों में विद्यमान हों तो वहाँ से भी (हे सामर्थ्यवान् देवो !) हमारे यज्ञ में आएँ और निष्पादित सोमरस का पान करें ॥८॥ यदिन्द्राग्नी अवमस्यां पृथिव्यां मध्यमस्यां परमस्यामुत स्थः । अतः परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥९॥ हे सामर्थ्यवान् इन्द्राग्नि! आप दोनों ऊपर, नीचे या मध्य में जहाँ भी पृथ्वी के जिस किसी भाग में भी स्थित हों, इस यज्ञ में आकर सोमरस का पान अवश्य करें ॥९॥ यदिन्द्राग्नी परमस्यां पृथिव्यां मध्यमस्यामवमस्यामुत स्थः । ्रा अतः परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥१०॥ हे सामर्थ्यवान् इन्द्रदेव और अग्निदेव ! आप ऊपरी स्वर्गलोक, अन्तरिक्ष लोक, मध्य लोक तथा नीचे के भूभाग में जहाँ भी हों, हमारे यज्ञ में आकर सोमरस का पान करें ॥१०॥ यदिन्द्राग्नी दिवि ष्ठो यत्पृथिव्यां यत्पर्वतेष्वोषधीष्वप्सु । अतः परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥११॥ हे बलशाली इन्द्राग्नि ! आप दोनों द्युलोक, पृथ्वी पर्वतों, औषधियों अथवा जलों में भी जहाँ विद्यमान हों, वहाँ से हमारे यज्ञ में निष्पादित सोमपान के लिए आगमन करे ॥११॥ यदिन्द्राग्नी उदिता सूर्यस्य मध्ये दिवः स्वधया मादयेथे । अतः परि वृषणावा हि यातमथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥१२॥ हे सामर्थ्य सम्पन्न इन्द्राग्नि ! आप दोनों स्वर्गलोक के बीच में, सूर्योदय की वेला में हों, अथवा अन्न सेवन (विश्राम) का आनन्द ले रहे हों, ऐसे में भी आप दोनों हमारे यज्ञ में आकर सोमरस का पान करें ॥१२॥ एवेन्द्राग्नी पपिवांसा सुतस्य विश्वास्मभ्यं सं जयतं धनानि । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥१३॥ हे सामर्थ्यवान् इन्द्राग्नि ! आप दोनों सोमरस के पान से हर्षित होकर सभी प्रकार की सम्पदाओं को जीतकर हमें प्रदान करें। हमारी अभीष्ट कामना पूर्ति में मित्र, वरुण, अदिति, पृथ्वी, और दिव्यलोक के सभी देव सहायक हों ॥१३॥

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