ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त १७

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त १७ ऋषि - कतो विश्वामित्रः । देवता - अग्निः । छंद - त्रिष्टुप समिध्यमानः प्रथमानु धर्मा समक्तुभिरज्यते विश्ववारः । शोचिष्केशो घृतनिर्णिक्पावकः सुयज्ञो अग्निर्यजथाय देवान् ॥१॥ वे अग्निदेव धर्म-धारक, ज्वाला रूप केश वाले, सबके द्वारा वरणीय, समिधाओं से प्रज्वलित, घृत से प्रदीप्त, पवित्रकर्ता और उत्तम यज्ञों के सम्पादक हैं। वे यज्ञ के प्रारम्भ में प्रज्वलित होकर देव-यजन के निमित्त घृतादि से भली प्रकार सिञ्चित होते हैं ॥१॥ यथायजो होत्रमग्ने पृथिव्या यथा दिवो जातवेदश्चिकित्वान् । एवानेन हविषा यक्षि देवान्मनुष्वद्यज्ञं प्र तिरेममद्य ॥२॥ हे अग्निदेव ! आपने जैसे पृथ्वी को हव्य प्रदान किया, जैसे आकाश को हव्य प्रदान किया; उसी प्रकार हे सब भूतों के ज्ञाता-ज्ञानवान् अग्निदेव ! हमारे इस हवि-द्रव्य द्वारा सम्पूर्ण देवों को यजन करें। मनु के यज्ञ के समान हमारे यज्ञ को भी पूर्ण करें ॥२॥ त्रीण्यायूंषि तव जातवेदस्तिस्र आजानीरुषसस्ते अग्ने । ताभिर्देवानामवो यक्षि विद्वानथा भव यजमानाय शं योः ॥३॥ हे जातवेदा अग्निदेव ! आपके तीन प्रकार के अन्न (आज्य, ओषधि और सोम) हैं। (एकाह, अहीन और सत्र नामक) तीन उषाएँ आपकी माताएँ हैं। आप उनके द्वारा देवों का यजन करें। सबैको जानने वाले आप, यजमान के लिए सुख और कल्याण देने वाले हों ॥३॥ अग्निं सुदीतिं सुदृशं गृणन्तो नमस्यामस्त्वेड्यं जातवेदः । त्वां दूतमरतिं हव्यवाहं देवा अकृण्वन्नमृतस्य नाभिम् ॥४॥ हे सर्वज्ञाता अग्निदेव ! आप उत्तम दीप्तिमान, उत्तम दर्शनीय और स्तवनीय हैं। हम नमस्कारपूर्वक आपका स्तवन करते हैं। हे गमनशील ज्वाला युक्त और हव्यवाहक अग्निदेव ! देवों ने आपको दृत रूप में प्रतिष्ठित किया है और अमृत का केन्द्र मानकर आपका आस्वादन किया है॥४॥ यस्त्वद्धोता पूर्वी अग्ने यजीयान्द्विता च सत्ता स्वधया च शम्भुः । तस्यानु धर्म प्र यजा चिकित्वोऽथा नो धा अध्वरं देववीतौ ॥५॥ हे अग्निदेव ! पहले जो होता उत्तम और मध्यम दो स्थानों पर स्वधा के साथ बैठकर सुखी हुए, उनके धर्म का अनुगमन करते हुए आप यजन करें। तदनन्तर हमारे इस यज्ञ को देवों की प्रसन्नता के निमित्त धारण करें ॥५॥

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