ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ३९

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ३९ ऋषि - कण्वो घौरः देवता- मरुतः । छंद- प्रगाथः प्र यदित्था परावतः शोचिर्न मानमस्यथ । कस्य क्रत्वा मरुतः कस्य वर्षसा कं याथ कं ह धूतयः ॥१॥ हे कॅपाने वाले मरुतो ! आप अपना बल दूरस्थ स्थान से विद्युत् के समान यहाँ पर फेंकते हैं, तो आप (किसके यज्ञ की ओर) किसके पास जाते हैं ? किस उद्देश्य से आप कहाँ जाना चाहते हैं ? उस समय आपका क्या लक्ष्य होता है ? ॥१॥ स्थिरा वः सन्त्वायुधा पराणुदे वीळू उत प्रतिष्कभे । युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मर्त्यस्य मायिनः ॥२॥ आपके हथियार शत्रु को हटाने में नियोजित हों। आप अपनी दृढ़ शक्ति से उनका प्रतिरोध करें। आपकी शक्ति प्रशंसनीय हो। आप छद्म वेषधारी मनुष्यों को आगे न बढ़ाये ॥२॥ परा ह यस्थिरं हथ नरो वर्तयथा गुरु । वि याथन वनिनः पृथिव्या व्याशाः पर्वतानाम् ॥३॥ हे मरुतो ! आप स्थिर वृक्षों को गिराते, दृढ़ चट्टानों को प्रकम्पित करते, भूमि के वनों को जड़ विहीन करते हुए पर्वतों के पार निकल जाते हैं॥३॥ नहि वः शत्रुर्विविदे अधि द्यवि न भूम्यां रिशादसः । युष्माकमस्तु तविषी तना युजा रुद्रासो नू चिदाधृषे ॥४॥ हे शत्रुनाशक मरुतो ! न द्युलोक में और न पृथ्��ी पर ही, आपके शत्रुओं का अस्तित्व है। हे रुद्र पुत्रो ! शत्रुओं को क्षत-विक्षत करने के लिए आप सब मिलकर अपनी शक्ति विस्तृत करें ॥४॥ प्र वेपयन्ति पर्वतान्वि विञ्चन्ति वनस्पतीन् । प्रो आरत मरुतो दुर्मदा इव देवासः सर्वया विशा ॥५॥ हे मरुतो ! मदमत्त हुए लोगों के समान आप पर्वतों को प्रकम्पित करते हैं और पेड़ों को उखाड़ कर फेंकते हैं, अतः आप प्रजाओं के आगे-आगे उन्नति करते हुए चलें ॥५॥ उपो रथेषु पृषतीरयुग्ध्वं प्रष्टिर्वहति रोहितः । आ वो यामाय पृथिवी चिदश्रोदबीभयन्त मानुषाः ॥६॥ हे मरुतो ! आपके रथ को चित्र-विचित्र चिह्नों युक्त (पशु आदि) गति देते हैं, उनमें) लाल रंग वाला अश्व धुरी को खींचता है। तुम्हारी गति से उत्पन्न शब्द भूमि सुनती है, मनुष्यगण उस ध्वनि से भयभीत हो जाते हैं॥६॥ आ वो मधू तनाय कं रुद्रा अवो वृणीमहे । गन्ता नूनं नोऽवसा यथा पुरेत्था कण्वाय बिभ्युषे ॥७॥ हे रुद्रपुत्रो ! अपनी संतानों की रक्षा के लिए हम आपकी स्तुति करते हैं। जैसे पूर्व समय में आप भययुक्त कण्वों की ओर रक्षा के निमित्त शीघ्र गये थे, उसी प्रकार आप हमारी रक्षा के निमित्त शीघ्र पधारें ॥७॥ युष्मेषितो मरुतो मर्येषित आ यो नो अभ्व ईषते । वि तं युयोत शवसा व्योजसा वि युष्माकाभिरूतिभिः ॥८॥ है मरुतो ! आपके द्वारा प्रेरित या अन्य किसी मनुष्य द्वारा प्रेरित शत्रु हम पर प्रभुत्व जमाने आयें, तो आप अपने बल से, अपने तेज से और रक्षण साधनों से उन्हें दूर हटा दें ॥८ ॥ असामि हि प्रयज्यवः कण्वं दद प्रचेतसः । असामिभिर्मरुत आ न ऊतिभिर्गन्ता वृष्टिं न विद्युतः ॥९॥ हे विशिष्ट पूज्य, ज्ञाता मरुतो ! कण्व को जैसे आपने सम्पूर्ण आश्रय दिया था, वैसे ही चमकने वाली बिजलियों के साथ वेग से आने वाली वृष्टि की तरह आप सम्पूर्ण रक्षा साधनों को लेकर हमारे पास आयें ॥९॥ असाम्योजो बिभृथा सुदानवोऽसामि धूतयः शवः । ऋषिद्विषे मरुतः परिमन्यव इषं न सृजत द्विषम् ॥१०॥ हे उत्तम दानशील भरुतो ! आप सम्पूर्ण पराक्रम और सम्पूर्ण बलों को धारण करते हैं। हे शत्रु को प्रकम्पित करने वाले मरुद्गणो ! ऋषियों से द्वेष करने वाले शत्रुओं को नष्ट करने वाले बाण के समान आप शत्रुघातक (शक्ति) का सृजन करें ॥१०॥

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