ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ३२

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ३२ ऋषि - हिरण्यस्तूप अंगीरसः देवता- इन्द्र । छंद - त्रिष्टुप इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री । अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम् ॥१॥ मेघों को विदीर्ण कर पानी बरसाने वाले, पर्वतीय नदियों के तटों को निर्मित करने वाले, वज्रधारी, पराक्रमी इन्द्रदेव के कार्य वर्णनीय हैं। उन्होंने जो प्रमुख वीरतापूर्ण कार्य किये, वे ये ही हैं॥१॥ अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष । वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अज्ञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः ॥२॥ इन्द्रदेव के लिये त्वष्टादेव ने शब्द चालित वज्र का निर्माण किया, उसी से इन्द्रदेव ने मेघों को विदीर्ण कर जल बरसाया। रंभाती हुई गौओं के समान वे जलप्रवाह वेग से समुद्र की ओर चले गये ॥२॥ वृषायमाणोऽवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेष्वपिबत्सुतस्य । आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् ॥३॥ अतिबलशाली इन्द्रदेव ने सोम को ग्रहण किया। यज्ञ में तीन विशिष्ट पात्रों में अभिषव किये हुए सोम का पान किया। ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ने बाण और वज्र को धारण कर मेघों में प्रमुख मेघ को विदीर्ण किया ॥३॥ यदिन्द्राहन्प्रथमजामहीनामान्मायिनाममिनाः प्रोत मायाः । आत्सूर्य जनयन्द्यामुषासं तादीत्ना शत्रु न किला विवित्से ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आपने मेघों में प्रथम उत्पन्न मेघ को बेध दिया। मेघरूप में छाए धुन्ध (मायावियों) को दूर किया, फिर आकाश में उषा और सूर्य को प्रकट किया। अब कोई भी अवरोधक शत्रु शेष न रहा ॥४॥ अहन्वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन । स्कन्धांसीव कुलिशेना विवृक्णाहिः शयत उपपृक्पृथिव्याः ॥५॥ इन्द्रदेव ने घातक दिव्य वज्र से वृत्रासुर का वध किया । वृक्ष की शाखाओं को कुल्हाड़े से काटने के समान उसकी भुजाओं को काटा और तने की तरह उसे काटकर भूमि पर गिरा दिया ॥५॥ अयोद्धेव दुर्मद आ हि जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम् । नातारीदस्य समृतिं वधानां सं रुजानाः पिपिष इन्द्रशत्रुः ॥६॥ अपने को अप्रतिम योद्धा मानने वाले मिथ्या अभिमानी वृत्र ने महाबली, शत्रुबेधक, शत्रुनाशक इन्द्रदेव को ललकारा और इन्द्रदेव के आघातों को सहन न कर, गिरते हुए, नदियों के किनारों को तोड़ दिया ॥६॥ अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान । वृष्णो वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन्पुरुत्रा वृत्रो अशयव्यस्तः ॥७॥ हाथ और पाँव के कट जाने पर भी वृत्र ने इन्द्रदेव से युद्ध करने का प्रयास किया। इन्द्रदेव ने उसके पर्वत सदृश कन्धों पर वज्र का प्रहार किया। इतने पर भी वर्षा करने में समर्थ इन्द्रदेव के सम्मुख वह इटा रहा । अन्ततः इन्द्रदेव के आघातों से ध्वस्त होकर वह भूमि पर गिर पड़ा ॥७॥ नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्यापः । याश्चिद्वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत्तासामहिः पत्सुतःशीर्बभूव ॥८॥ जैसे नदी की बाढ़ तटों को लाँघ जाती है, वैसे ही मन को प्रसन्न करने वाले जल (जल अवरोधक) वृत्र को लाँघ जाते हैं। जिन जलों को 'वृत्र' ने अपने बल से आबद्ध किया था, उन्हीं के नीचे 'वृत्र' मृत्यु-शैय्या पर पड़ा सो रहा है॥८॥ नीचावया अभववृत्रपुत्रेन्द्रो अस्या अव वधर्जभार । उत्तरा सूरधरः पुत्र आसीद्दानुः शये सहवत्सा न धेनुः ॥९॥ वृत्र की माता झुककर वृत्र का संरक्षण करने लगीं, इन्द्रदेव के प्रहार से बचाव के लिये वह वृत्र पर सो गयी, फिर भी इन्द्रदेव ने नीचे से उस पर प्रहार किया। उस समय माता ऊपर और पुत्र नीचे था, जैसे गाये अपने बछड़े के साथ सोती है॥९॥ अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम् । वृत्रस्य निण्यं वि चरन्त्यापो दीर्घ तम आशयदिन्द्रशत्रुः ॥१०॥ एक स्थान पर न रुकने वाले अविश्रान्त (मेघरूप) जल-प्रवाहों के मध्य वृत्र का अनाम शरीर छिपा रहता है। वह दीर्घ निद्रा में पड़ा रहता है, उसके ऊपर जल प्रवाह बना रहता हैं॥१०॥ दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन्निरुद्धा आपः पणिनेव गावः । अपां बिलमपिहितं यदासीदृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार ॥११॥ 'पणि' नामक असुर ने जिस प्रकार गौओं अथवा किरणों को अवरुद्ध कर रखा था, उसी प्रकार जल-प्रवाहों को अगतिशील वृत्र ने रोक रखा था। वृत्र का वध करके वे प्रवाह खोल दिये गये ॥११॥ अव्यो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत्त्वा प्रत्यहन्देव एकः । अजयो गा अजयः शूर सोममवासृजः सर्तवे सप्त सिन्धून् ॥१२॥ हे इन्द्रदेव ! जब कुशल योद्धा वृत्र ने वज्र पर प्रहार किया, तब घोड़े की पूँछ हिलाने की तरह, बहुत आसानी से आपने अविचलित भाव से उसे दूर कर दिया। हे महाबली इन्द्रदेव ! सोम और गौओं को जीतकर अपने (वृत्र के अवरोध को नष्ट करके) गंगादि सातों सरिताओं को प्रवाहित किया ॥१२॥ नास्मै विद्युन्न तन्यतुः सिषेध न यां मिहमकिरद्धादुनिं च । इन्द्रश्च यद्‌युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मघवा वि जिग्ये ॥१३॥ युद्ध में वृत्रद्वारा प्रेरित भीषण विद्युत्, भयंकर मेघ गर्जन, जल और हिम वर्षा भी इन्द्रदेव को नहीं रोक सके। वृत्र के प्रचण्ड घातक प्रयोग भी निरर्थक हुए। उस युद्ध में असुर के हर प्रहार को इन्द्रदेव ने निरस्त करके उसे जीत लिया ॥१३॥ अहेर्यातारं कमपश्य इन्द्र हृदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत् । नव च यन्नवतिं च स्रवन्तीः श्येनो न भीतो अतरो रजांसि ॥१४॥ है इन्द्रदेव ! वृत्र का वध करते समय यदि आपके हृदय में भय उत्पन्न होता, तो किस दूसरे वीर को असुर वध के लिये देखते ? (अर्थात् कोई दूसरा न मिलता) । (ऐसा करके) आपने निन्यानवे (लगभग सम्पूर्ण) जल - प्रवाहों को बाज पक्षी की तरह सहज ही पार कर लिया ॥१४॥ इन्द्रो यातोऽवसितस्य राजा शमस्य च शृङ्गिणो वज्रबाहुः । सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान्न नेमिः परि ता बभूव ॥१५॥ हाथों में वज्रधारण करने वाले इन्द्रदेव मनुष्य, पशु आदि सभी स्थावर-जंगम प्राणियों के राजा हैं। शान्त एवं क्रूर प्रकृति के सभी प्राणी उनके चारों ओर उसी प्रकार रहते हैं, जैसे चक्र की नेमि के चारों ओर उसके 'अरे होते हैं॥१५॥

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