ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ८८

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ८८ ऋषि – गौतमो राहुगणः: देवता - मरुतः । छंद - त्रिष्टुप, १, ६ प्रस्तार पंक्ति, ५ विराडू रूपा आ विद्युन्मद्भिर्मरुतः स्वकै रथेभिर्यात ऋष्टिमद्भिरश्वपर्णैः । आ वर्षिष्ठया न इषा वयो न पप्तता सुमायाः ॥१॥ हे मरुद्गणो ! विद्युत् की भाँति अत्यन्त दीप्तिवाले, अतिशय गति सम्पन्न, अस्त्रों से सज्जित उड़ने वाले, अश्वों से योजित रथों द्वारा यहाँ आयें। आपकी बुद्धि कल्याण करने वाली है। आप श्रेष्ठ अन्नों के साथ पक्षियों के सदृश वेग से हमारे पास आयें ॥१॥ तेऽरुणेभिर्वरमा पिशङ्गैः शुभे कं यान्ति रथतूर्भिरश्वैः । रुक्मो न चित्रः स्वधितीवान्पव्या रथस्य जङ्घनन्त भूम ॥२॥ वे मरुद्गण अरुणिम आभा वाले, भूरे वर्ण वाले अश्वों से नियोजित स्वर्णमय रथों से कल्याणकारी कर्म सम्पादन करने के लिए त्वरित गति से आते हैं। अद्भुत आयुधों से युक्त होकर रथ पर विराजित ये रथ के पहियों की लौह पट्टिकाओं से भूमि को उखाड़ते जाते हैं॥२॥ श्रिये कं वो अधि तनूषु वाशीर्मेधा वना न कृणवन्त ऊर्ध्वा । युष्मभ्यं कं मरुतः सुजातास्तुविद्‌द्युम्नासो धनयन्ते अद्रिम् ॥३॥ हे मरुद्गण ! आप अपने शरीरों को आयुधों से सुशोभित करते हैं। वनों में वृक्षों के बढ़ने के समान उपासक अपनी बुद्धि को उच्चकोटि की बनाते हैं। हे भली प्रकार उत्पन्न मरुद्गणो ! अति उत्साह से युक्त यजमान आपको हर्षित करने के निमित्त, सोम कूटने के पाषाणों की ध्वनि करते हैं अर्थात् सोमरस तैयार करते हैं॥३॥ अहानि गृध्राः पर्या व आगुरिमां धियं वार्कार्यां च देवीम् । ब्रह्म कृण्वन्तो गोतमासो अर्कैरूर्ध्वं नुनुद्र उत्सधिं पिबध्यै ॥४॥ हे स्तोताओ ! जल की इच्छा वाले आपके शुभ दिन अब आ चुके हैं । गोतमों ने दिव्य बुद्धि से मन्त्र युक्त स्तोत्रों से स्तुतियाँ की हैं, पीने के लिए ऊपर स्थित 'मेघरूप' कुण्ड को आपकी ओर प्रेरित किया है ॥४॥ एतत्त्यन्न योजनमचेति सस्वर्ह यन्मरुतो गोतमो वः । पश्यन्हिरण्यचक्रानयोदंष्ट्रान्विधावतो वराहून् ॥५॥ हे मरुद्गणो ! स्वर्णमय रथ पर अधिष्ठित होकर, तीक्ष्ण धार वाले आयुधों से युक्त होकर विविध भाँति शत्रु पर वार करने वाले, उनका नाश करने वाले, आपको देखकर गोतम षि ने जो छन्दयुक्त स्तुतियाँ वर्णित की हैं। उनका वर्णन सम्भव नहीं था ॥५॥ एषा स्या वो मरुतोऽनुभर्ती प्रति ष्टोभति वाघतो न वाणी । अस्तोभयदृथासामनु स्वधां गभस्त्योः ॥६॥ हे मरुतो ! आपके बाहुओं की धारक शक्ति का यशोगान करने वाली ऋषियों की वाणी का अनुकरण कर हम आपकी स्तुति करते हैं। यह स्तुति हमारे द्वारा पूर्व की भाँति सहज स्वभाव से ही की जा रही है॥६॥

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