ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त ३०

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त ३० ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः। देवता- इन्द्र, ६ इन्द्रसोमौ, ८ सरस्वती, ९ बृहस्पति, ११ मरुतः । छंद- त्रिष्टुप, ११ जगती ऋतं देवाय कृण्वते सवित्र इन्द्रायाहिघ्ने न रमन्त आपः । अहरहर्यात्यक्तुरपां कियात्या प्रथमः सर्ग आसाम् ॥१॥ जल प्रेरक, तेजस्वी तथा सर्व प्रेरक वृत्रहन्ता, इन्द्रदेव के निमित्त यज्ञादिकर्म कभी भी नहीं रुकते। जब से यज्ञादि कर्म प्रचलित हुए, तब से याजकगण सदैव यज्ञ कर्म करते हैं॥१॥ यो वृत्राय सिनमत्राभरिष्यत्प्र तं जनित्री विदुष उवाच । पथो रदन्तीरनु जोषमस्मै दिवेदिवे धुनयो यन्त्यर्थम् ॥२॥ जो (इन्द्रदेव के शत्र) वृत्र के लिए अन्न प्रदान करता है, उसकी बात इन्द्रदेव से उनकी माता अदिति कह देती हैं। नदियाँ इन्द्रदेव की कामनानुसार अपना मार्ग बनाती हुई निरन्तर समुद्र की तरफ प्रवाहित होती हैं॥२॥ ऊर्ध्वा ह्यस्थादध्यन्तरिक्षेऽधा वृत्राय प्र वधं जभार । मिहं वसान उप हीमदुद्रोत्तिग्मायुधो अजयच्छत्रुमिन्द्रः ॥३॥ चूँकि अन्तरिक्ष में बहुत ऊँचे स्थित होकर मेघ से आच्छादित वृत्र ने इन्द्रदेव पर आक्रमण किया था, इसलिए इन्द्रदेव ने अपने वज्र को वृत्र के ऊपर फेंका और तीक्ष्ण आयुधधारी इन्द्रदेव ने वृत्र पर विजय प्राप्त किया ॥३॥ बृहस्पते तपुषाश्नेव विध्य वृकद्वरसो असुरस्य वीरान् । यथा जघन्थ धृषता पुरा चिदेवा जहि शत्रुमस्माकमिन्द्र ॥४॥ हे बृहस्पतिदेव ! असुर पुत्रों को अपने विद्युत् के समान ताप देने वाले वज्र से छिन्न-भिन्न करें, प्रताड़ित करें। हे इन्द्रदेव ! जिस प्रकार प्राचीनकाल में आपने वज्र के द्वारा शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी, उसी तरह हमारे शत्रुओं को भी आज नष्ट करें ॥४॥ अव क्षिप दिवो अश्मानमुच्चा येन शत्रु मन्दसानो निजूर्वाः । तोकस्य सातौ तनयस्य भूरेरस्माँ अर्धं कृणुतादिन्द्र गोनाम् ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! स्तोताओं की स्तुतियों से प्रसन्न होकर आपने जिस वज्र से शत्रु का विनाश किया था, उसी वज्र को द्युलोक से हमारे शत्रुओं के ऊपर फेंकें। हमें भरण-पोषण के योग्य साधन तथा गोधन से समृद्ध बनायें, ताकि हम संतति का पालन-पोषण कर सकें ॥५॥ प्र हि क्रतुं वृहथो यं वनुथो रध्रस्य स्थो यजमानस्य चोदौ । इन्द्रासोमा युवमस्माँ अविष्टमस्मिन्भयस्थे कृणुतमु लोकम् ॥६॥ हे इन्द्रदेव तथा सोमदेव ! आप दोनों स्तोता-यजमानों को चाहते हैं तथा उन्हें यज्ञ के विस्तार की प्रेरणा देते हैं। आप दोनों भययुक्त इस संसार में हम लोगों की रक्षा करें तथा हमारे जीवन को प्रकाशित करें ॥६॥ न मा तमन्न श्रमन्नोत तन्द्रन्न वोचाम मा सुनोतेति सोमम् । यो मे पृणाद्यो ददद्यो निबोधाद्यो मा सुन्वन्तमुप गोभिरायत् ॥७॥ जो इन्द्रदेव हमें उत्तम ज्ञान तथा श्रेष्ठ धन प्रदान करके हमारी कामनाओं को पूरा करते हैं, जो सोम रस को शोधित करते समय हमारे पास गौओं सहित आते हैं, वे इन्द्रदेव हमें कष्ट न दें, श्रमशक्ति प्रदान करें तथा हमें आलसी न बनायें। हम भी कभी किसी से यह न कहें कि इन्द्रदेव के लिए सोमरस तैयार न करो ॥७॥ सरस्वति त्वमस्माँ अविड्डि मरुत्वती धृषती जेषि शत्रून् । त्यं चिच्छर्धन्तं तविषीयमाणमिन्द्रो हन्ति वृषभं शण्डिकानाम् ॥८॥ हे माँ सरस्वति ! मरुतों के साथ संयुक्त होकर दृढ़तापूर्वक हमारे शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके आप हमारी रक्षा करें। अहंकारी तथा अत्यधिक बलशाली शाण्डवंशी शण्डामर्क राक्षस को इन्द्रदेव ने मारा था ॥८॥ यो नः सनुत्य उत वा जिघत्नुरभिख्याय तं तिगितेन विध्य । बृहस्पत आयुधैर्जेषि शत्रून्द्रुहे रीषन्तं परि धेहि राजन् ॥९॥ हे बृहस्पतिदेव ! हमारे बीच में जो छुपा हुआ हिंसक शत्रु हो, उसे खोजकर तीक्ष्ण शस्त्रों से छेदें। हमारे शत्रुओं पर शस्त्रास्त्रों से विजय प्राप्त करें। हे राजा बृहस्पतिदेव ! हिंसक अस्त्र द्रोहकारियों के ऊपर फेंकें ॥९॥ अस्माकेभिः सत्वभिः शूर शूरैर्वीर्या कृधि यानि ते कर्वानि । ज्योगभूवन्ननुधूपितासो हत्वी तेषामा भरा नो वसूनि ॥१०॥ हे शूरवीर इन्द्रदेव ! हमारे बलशाली वीरों का सहयोग लेकर, करने योग्य पराक्रमी कार्यों को करें। अहंकारी शत्रुओं को मारें तथा उनका धन हमें प्रदान करें ॥१०॥ तं वः शर्धं मारुतं सुम्नयुर्गिरोप ब्रुवे नमसा दैव्यं जनम् । यथा रयिं सर्ववीरं नशामहा अपत्यसाचं श्रुत्यं दिवेदिवे ॥११॥ हे मरुद्गण ! सुख की कामना से हम आपके तेजस्वी पराक्रम की स्तुति करते हैं। आपकी नमनपूर्वक प्रशंसा करते हैं। हमें पराक्रमी संतति से युक्त यशस्वी धन सदैव प्रदान करें ॥११॥

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