Maha Upanishad Chapter 3 (महा उपनिषद) तृतीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ महोपनिषत् ॥ ॥ महा उपनिषद ॥ तृतीयोऽध्यायः तृतीय अध्याय निदाघो नाम मुनिराट् प्राप्तविद्यश्च बालकः । विहृतस्तीर्थयात्रार्थं पित्रानुज्ञातवान्स्वयम् ॥ १॥ सार्धत्रिकोटितीर्थेषु स्नात्वा गृहमुपागतः । स्वोदन्तं कथयामास ऋभुं नत्वा महायशाः ॥ २॥ सार्धत्रिकोटितीर्थेषु स्नानपुण्यप्रभावतः । प्रादुर्भूतोमनसि मे विचारः सोऽयमीदृशः ॥ ३॥ अपने पिता (ऋभु) से अनुमति लेकर निदाघ नामक श्रेष्ठ मुनिपुत्र एकाकी ही तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े। साढ़े तीन करोड़ तीर्थ-स्थलों में स्नान आदि सम्पन्न कर लेने के पश्चात् वे श्रेष्ठ मुनि अपने घर वापस लौट आए। उन महान् यशस्वी मुनि ने घर आकर अपने पिता ऋभुमुनि से अपनी समस्त यात्रा का वृत्तान्त कह सुनाया। उन्होंने कहा- हे पिताजी ! साढ़े तीन करोड़ तीर्थस्थलों में स्नान करने के पश्चात् जो पुण्य-फल प्राप्त हुआ है, उसके प्रतिफल स्वरूप हमारे अन्तःकरण में इस तरह के श्रेष्ठ विचार प्रादुर्भूत हो रहे हैं॥१-३॥ जायते म्रियते लोको म्रियते जननाय च । अस्थिरः सर्व एवेमे सचराचरचेष्टिताः । सर्वापदां पदं पापा भावा विभवभूमयः ॥ ४॥ अयःशलाकासदृशाः परस्परमसङ्गिनः । शुष्यन्ते केवला भावा मनःकल्पनयानया ॥ ५॥ भावेष्वरतिरायाता पथिकस्य मरुष्विव । शाम्यतीदं कथं दुःखमिति तप्तोऽस्मि चेतसा ॥ ६॥ चिन्तानिचयचक्राणि नानन्दाय धनानि मे । सम्प्रसूतकलत्राणि गृहाण्युग्रापदामिव ॥ ७॥ इयमस्मि स्थितोदारा संसारे परिपेलवा । श्रीर्मुने परिमोहाय सापि नूनं न शर्मदा ॥ ८॥ आयुः पल्लवकोणाग्रलम्बाम्बुकणभङ्‌गुरम् । उन्मत्त इव संत्यज्य याम्यकाण्डे शरीरकम् ॥ ९॥ विषयाशी विषासङ्गपरिजर्जरचेतसाम् । अप्रौढात्मविवेकानामायुरायासकारणम् ॥ १०॥ यह जगत् उत्पन्न होता है मरने (विनष्ट होने) के लिए, पुनः मरता है जन्मने के लिए । समस्त चराचर प्राणियों की चेष्टा के साथ यह सारा प्रपञ्च (जगत्) अस्थिर एवं क्षणिक है। ऐश्वर्य की भूमि में प्रकट होने वाले ये समस्त पदार्थ आपत्तियों के मूलभूत कारण हैं। ये सभी पदार्थ लौह शलाका के सदृश परस्पर पृथक् रहते हुए मानसिक कल्पना रूपी चुम्बक द्वारा एकत्रित होते रहते हैं। जिस तरह मार्ग में गमन करने वाला व्यक्ति मरुस्थल में चलते-चलते (कष्ट के कारण) विरक्त हो जाता है, उसी तरह मैं भी इन सांसारिक पदार्थों से विरक्त हो रहा हूँ; क्योंकि ये सांसारिक भोग-पदार्थ मुझे दुःखदायी प्रतीत होने लगे हैं। अब इन समस्त दुःखों का शमन किस प्रकार होगा, ऐसा सोचकर मेरा हृदय अत्यधिक संतप्त हो रहा है। ये ऐश्वर्य रूपी धन- जिनके पीछे चिन्ताओं के समूह चक्र की भाँति घूमते रहते हैं, मुझे आनन्दप्रद नहीं लग रहे हैं। स्त्री-पुत्रादि समस्त स्वजन सम्बन्धी मानो उग्र आपदाओं के घर हैं। हे मुनीश्वर! इस जगत् में उदारता की प्रतिमूर्ति, अत्यन्त कोमलांगी ये श्रीलक्ष्मी जी भी परम मोह को उत्पन्न करने वाली हैं। निश्चय ही इनके द्वारा जीव को आनन्द नहीं मिल सकता। जिस प्रकार पल्लव के अग्रभाग में जल कणिका बूंदरूप में लटकती हैं, वह क्षणिक है। उसी प्रकार मनुष्य की आयु भी जल की बूंद के सदृश क्षणभंगुर है। इस नाशवान् शरीर को असमय ही छोड़कर उन्मत्त की भाँति मुझे प्रस्थान करना ही पड़ेगा। जिनका चित्त विषय- वासना रूपी सर्प के सङ्ग से जर्जर हो गया है तथा जिन्हें प्रौढ़ आत्मिक ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ है, उनका जीवन कष्ट का ही हेतु बना है॥४- १०॥ युज्यते वेष्टनं वायोराकाशस्य च खण्डनम् । ग्रन्थनं च तरङ्गाणामास्था नायुषि युज्यते ॥ ११॥ प्राप्यं सम्प्राप्यते येन भूयो येन न शोच्यते । पराया निर्वृतेः स्थानं यत्तज्जीवितमुच्यते ॥ १२॥ तरवोऽपि हि जीवन्ति जीवन्ति मृगपक्षिणः । स जीवति मनो यस्य मननेनोपजीवति ॥ १३॥ जातास्त एव जगति जन्तवः साधुजीविताः । ये पुनर्नेह जायन्ते शेषा जरठगर्दभाः ॥ १४॥ भारो विवेकिनः शास्त्रं भारो ज्ञानं च रागिणः । अशान्तस्य मनो भारो भारोऽनात्मविदो वपुः ॥ १५॥ वायु का लपेटना, आकाश को खण्ड-खण्ड करना एवं जल की लहरों का गुन्थन भले ही सम्भव हो जाए, किन्तु जीवन में आस्था एवं विश्वास रखना सम्भव नहीं हो पाता। जिसके द्वारा प्राप्त करने योग्य वस्तु को (सम्यक् रूप से) प्राप्त कर लिया जाता है, जिसके कारण शोक न करना पड़े और जिसमें परम शान्ति की उपलब्धि हो जाए, वही तो वास्तविक जीवन कहलाता है। यों तो वृक्ष, मृग एवं पक्षी भी जीवन धारण किये रहते हैं; किन्तु यथार्थ में वही जीवित है, जिसका. मन निरन्तर आत्मचिन्तन में लीन रहता है। इस नश्वर जगत् में उत्पन्न हुए उन्हीं प्राणियों का जीवन उत्कृष्ट है, जिन्हें पुनः आवागमन के चक्र में नहीं पड़ना पड़ता है। इससे भिन्न तो जरावस्था को प्राप्त गधे के सदृश हैं, जो कि अशक्त होते हुए भी भार ढोने के लिए विवश हैं। ज्ञानवान् मनुष्य के लिए शास्त्र, भार ढोने के सदृश है। राग-द्वेष में लिप्त मनुष्य के लिए ज्ञान भारस्वरूप है, अशान्त मनुष्य का मन तो स्वयं में ही भारस्वरूप होता है तथा जो आत्मज्ञानी नहीं हैं, उनके लिए यह शरीर भी बोझा ढोने के सदृश ही है॥११-१५॥ अहंकारवशादापदहंकारादुराधयः । अहंकारवशादीहा नाहंकारात्परो रिपुः ॥ १६॥ अहंकारवशाद्यद्यन्मया भुक्तं चराचरम् । तत्तत्सर्वमवस्त्वेव वस्त्वहंकाररिक्तता ॥ १७॥ इतश्वेतश्च सुव्यग्रं व्यर्थमेवाभिधावति । मनो दूरतरं याति ग्रामे कौलेयको यथा ॥ १८॥ क्रूरेण जडतां याता तृष्णाभार्यानुगामिना । वशः कौलेयकेनेव ब्रह्मन्मुक्तोऽस्मि चेतसा ॥ १९॥ अप्यब्धिपानान्महतः सुमेरून्मूलनादपि । अपि वन्यशनाद्ब्रह्मन्विषमश्चित्तनिग्रहः ॥ २०॥ चित्तं कारणमर्थानां तस्मिन्सति जगत्त्रयम् । तस्मिन्क्षीणे जगत्क्षीणं तच्चिकित्स्यं प्रयत्नतः ॥ २१॥ अहंकार ही समस्त विपत्तियों के आगमन का हेतु है। इसी से मनोविकार उत्पन्न होते हैं और तरह-तरह की इच्छा-आकांक्षाओं का प्रादुर्भाव होता है। इस कारण मनुष्य का अहंकार से बढ़कर और कोई भी शत्रु नहीं है। अहंकार के वशीभूत होकर मैंने चराचर रूप जिन-जिन भोगों का उपभोग किया है, वे सभी मिथ्या, भ्रमरूप थे। अहंकार का शून्य होना ही जीवन की यथार्थता है। वस्तु तो मात्र अहंकार शून्यता ही है। यह मन व्यर्थ ही परेशान होकर यत्र-तत्र दौड़ता रहता है। व्यर्थ ही दूर-दूर तक भ्रमण करता रहता है। इसका स्वभाव गाँव में इधर-उधर घूमने वाले कुत्ते की तरह है। मैं भी तृष्णारूपी कुतिया के पीछे-पीछे कुत्ते की भाँति भटकता हुआ इस प्रकार क्रूर मन के वशीभूत होकर जड़वत् हो गया था। हे ब्रह्मन्! अब मैं उसके प्रभाव से पूर्णरूपेण मुक्त हो गया हूँ। हे ब्रह्मन् ! चित्त को नियंत्रित करना, समुद्र को पूरी तरह पीने से भी कठिन है, सुमेरु पर्वत को उखाड़ फेंकने से भी कठिन है और अग्नि के भक्षण से भी कठिन है। यह चित्त बाह्य एवं अन्तःकरण में विषय भोगों को ग्रहण करने वाला है, उसके आधार पर ही जाग्रत्, स्वप्न एवं सुषुप्ति रूप तीनों अवस्थाओं से युक्त संसार की स्थिति निर्भर है। चित्त के नष्ट होने पर यह जगत् नष्ट हो जाता है। अतः प्रयासपूर्वक चित्त की ही चिकित्सा करनी चाहिए ॥१६-२१॥ यां यामहं मुनिश्रेष्ठ संश्रयामि गुणश्रियम् । तां तां कृन्तति मे तृष्णा तन्त्रीमिव कुमूषिका ॥ २२॥ पदं करोत्यलङ्घयेऽपि तृप्ता विफलमीहते । चिरं तिष्ठति नैकत्र तृष्णा चपलमर्कटी ॥ २३॥ क्षणमायाति पातालं क्षणं याति नभस्थलम् । क्षणं भ्रमति दिक्कुज्ने तृष्णा हृत्पद्मषट्पदी ॥ २४॥ सर्वसंसारदुःखानां तृष्णैका दीर्घदुःखदा । अन्तःपुरस्थमपि या योजयत्यतिसंकटे ॥ २५॥ तृष्णाविषूचिकामन्त्रश्चिन्तात्यागो हि स द्विज । स्तोकेनानन्दमायाति स्तोकेनायाति खेदताम् ॥ २६॥ हे श्रेष्ठ मुने! मैं जिन श्रेष्ठ सद्‌गुणों का आश्रय प्राप्त करता हूँ, मेरी तृष्णा उन श्रेष्ठ गुणों को ठीक वैसे ही काट देती है, जैसे कि दुष्ट मूषिका (चुहिया) वीणा के तारों को काट देती है। यह तृष्णा चञ्चल बँदरिया के समान है, जो न लाँघने योग्य स्थान पर भी अपना पैर टिकाना चाहती है। वह तृप्त होने पर भी भिन्न-भिन्न फलों की इच्छा करती रहती है। एक जगह पर लम्बे समय तक नहीं रुकती। क्षणमात्र में ही वह आकाश एवं पाताल की सैर कर डालती है, क्षण मात्र में ही दिशारूपी कुञ्जों में भ्रमण करने लगती है। यह तृष्णा हृदय कमल में विचरण करने वाली भ्रमरी के समान है। यह तृष्णा ही इस नश्वर जगत् के समस्त दुःखों में दीर्घ काल तक दुःख देने वाली है, जो अन्तःपुर में निवास करने वालों को भी महान् संकट में डाल देती है। यह तृष्णा एक महामारीहैजा है। इसे वही श्रेष्ठ ब्राह्मण नष्ट कर सकता है, जिसने चिन्ता का पूरी तरह से परित्याग कर दिया है। यदि चिन्ता का थोड़ा भी परित्याग कर दिया जाए, तो अत्यधिक आनन्द की प्राप्ति होती है। यदि थोड़ी-सी भी चिन्ता मन में शेष रही, तो उससे असीम दुःख की प्राप्ति होती है। २२-२६॥ नास्ति देहसमः शोच्यो नीचो गुणविवर्जितः ॥ २७॥ कलेवरमहंकारगृहस्थस्य महागृहम् । लुठत्वभ्येतु वा स्थैर्यं किमनेन गुरो मम ॥ २८॥ प‌ङ्क्तिबद्धेन्द्रियपशुं वल्गत्तृष्णागृहाङ्गणम् । चित्तभृत्यजनाकीर्णं नेष्टं देहगृहं मम ॥ २९॥ जिह्वामर्कटिकाक्रान्तवदनद्वारभीषणम् । दृष्टदन्तास्थिशकलं नेष्टं देहगृहं मम ॥ ३०॥ देह के सदृश तुच्छ, गुणरहित तथा शोक करने योग्य अन्य दूसरा कोई नहीं। इस शरीर रूपी विशाल गृह में अहंकाररूपी गृहस्थ निवास करता है। यह शरीर चाहे दीर्घकाल तक रहे अथवा शीघ्र ही नष्ट हो जाए, उसकी मुझे किञ्चित् मात्र भी चिन्ता नहीं है। जिस शरीर रूपी घर में इन्द्रियरूपी पशु पंक्तिवत् खड़े हैं तथा जिसके प्रांगण में तृष्णा रूपी बँदरी विचरण करती रहती है, जिसमें चित्त-वृत्तिरूप भृत्यों का समावेश है। ऐसा शरीर रूपी घर मुझे अभीष्ट नहीं है। जिह्वा रूपी बंदरी से पीड़ित हुआ यह मुख रूपी द्वार इतना भयभीत हो गया है कि आरम्भ में ही दन्तरूपी हड्डियाँ दिखाई पड़ रही हैं। ऐसा यह शरीररूपी घर मुझे प्रिय नहीं लगता है॥२७-३०॥ रक्तमांसमयस्यास्य सबाह्याभ्यन्तरे मुने । नाशैकधर्मिणो ब्रूहि कैव कायस्य रम्यता ॥ ३१॥ तडित्सु शरदभ्रेषु गन्धर्वनगरेषु च । स्थैर्यं येन विनिर्णीतं स विश्वसितु विग्रहे ॥ ३२॥ शैशवे गुरुतो भीतिर्मातृतः पितृतस्तथा । जनतो ज्येष्ठबालाच्च शैशवं भयमन्दिरम् ॥ ३३॥ स्वचित्तबिलसंस्थेन नानाविभ्रमकारिणा । बलात्कामपिशाचेन विवशः परिभूयते ॥ ३४॥ दासाः पुत्राः स्त्रियश्चैव बान्धवाः सुहृदस्तथा । हसन्त्युन्मत्तकमिव नरं वार्धककम्पितम् ॥ ३५॥ दैन्यदोषमयी दीर्घा वर्धते वार्धक स्पृहा । सर्वापदामेकसखी हृदि दाहप्रदायिनी ॥ ३६॥ हे मुनीश्वर! यह शरीर बाहर एवं अन्दर रक्त एवं मांसादि से संव्याप्त है, तो इस नश्वर शरीर में रमणीयता कहाँ से आई? यदि किसी ने शरत्कालीन बादलों की विद्युत् में एवं गन्धर्व की नगरी में स्थिरता निश्चित की है, तो वह इस नश्वर देह की स्थिरता में विश्वास कर सकता है। बाल्यकाल में गुरु से, माता-पिता से, लोगों से, आयु में बड़े लड़कों से एवं अन्य दूसरे लोगों से भी भय लगता है, अतः यह बाल्यावस्था भय का ही घर है। युवावस्था के आने पर अपने ही चित्त रूपी गुफा में निवास करने वाले, भिन्न-भिन्न तरह के भ्रमों में फँसाने वाले इस काम रूपी पिशाच से बलपूर्वक विवश होकर व्यक्ति पराजय को प्राप्त हो जाता है । वृद्धावस्था के प्राप्त होने पर उन्मत्त की भाँति काँपते हुए व्यक्ति को देखकर दास, पुत्र-पुत्रियाँ, स्त्रियाँ एवं बन्धु- बान्धव भी हँसी करते हैं। वृद्धावस्था में शरीर असमर्थ हो जाने पर इच्छा-आकांक्षाएँ अत्यधिक बढ़ जाती हैं। यह वृद्धावस्था हृदय में दाह प्रदान करने वाली सारी आपत्तियों की प्रिय सहेली है॥ ३१-३६॥ क्वचिद्वा विद्यते यैषा संसारे सुखभावना । आयुः स्तम्बमिवासाद्य कालस्तामपि कृन्तति ॥ ३७॥ तृणं पांसुं महेन्द्रं च सुवर्णं मेरुसर्षपम् । आत्मंभरितया सर्वमात्मसात्कर्तुमुद्यतः । कालोऽयं सर्वसंहारी तेनाक्रान्तं जगत्त्रयम् ॥ ३८॥ इस नश्वर जगत् में रहने वाले सांसारिक प्राणी जिस सुख की भावना करते हैं, आखिर वह कहाँ है? काल आयु को तृण के सदृश काटता ही जा रहा है। वह काल छोटे से तृण एवं रजःकण को महेन्द्र एवं स्वर्णमय सुमेरु जैसे विशाल पर्वतों को भी सरसों के समान बना देने में समर्थ है। यह सभी का संहार करने में सक्षम तथा अपनी उदरपूर्ति के लिए सभी को आत्मसात् करने को उद्यत है। इस काल के द्वारा तीनों लोक आक्रान्त हैं॥ ३७-३८ ॥ मांसपाञ्चालिकायास्तु यन्त्रलोले अङ्गपञ्जरे । स्नाय्वस्थिग्रन्थिशालिन्याः स्त्रियः किमिव शोभनम् ॥ ३९॥ त्वङ्गांसरक्तबाष्पाम्बु पृथक्कृत्वा विलोचने । समालोकय रम्यं चेत्किं मुधा परिमुह्यसि ॥ ४०॥ मेरुशृङ्गतटोल्लासिगङ्गाचलरयोपमा । दृष्टा यस्मिन्मुने मुक्ताहारस्योल्लासशालिता ॥ ४१॥ श्मशानेषु दिगन्तेषु स एव ललनास्तनः । श्वभिरास्वाद्यते काले लघुपिण्ड इवान्धसः ॥ ४२॥ केशकज्जलधारिण्यो दुःस्पर्शा लोचनप्रियाः । दुष्कृताग्निशिखा नार्यो दहन्ति तृणवन्नरम् ॥ ४३॥ यंत्रवत् चञ्चल अङ्गरूपी पिंजड़े में मांस की पुतली की भाँति, स्नायु एवं हड्डियों की ग्रन्थि से बनी हुई इस स्त्रीदेह में ऐसी कौन सी-वस्तु है, जो शोभनीय कही जा सकती है? आँखों में स्थित त्वचा, मांस, रक्त एवं अश्रु आदि इन सबको अलग-अलग करके अवलोकन करो; इनमें कौन सी वस्तु आकर्षक प्रतीत होती है? यदि कोई भी वस्तु आकर्षक नहीं, तो फिर व्यर्थ में मोह करने से क्या लाभ है? हे मुने ! जो नारी सुमेरु पर्वत की चोटियों से उल्लसित होने वाली भगवती माँ गंगा की चञ्चल गति की भाँति है; जो मुक्ताहार से पूर्णरूपेण सुशोभित देखी गई है; कालचक्र के समीप आने पर उसी नारी के मांस पिण्डरूप स्तन को श्मशान में कुत्ते भक्षण करते हैं। जो नारियाँ केश एवं काजल धारण करने वाली तथा देखने में प्रिय लगने वाली होने पर भी न जिनका स्पर्श दुःख देने वाला होता है, वे ही विधाता की दुष्कृति रूप अग्नि की ज्वाला के समान दग्ध कर देने वाली नारियाँ पुरुष को तिनके की भाँति जला डालती हैं॥३९-४३॥ ज्वलतामतिदूरेऽपि सरसा अपि नीरसाः । स्त्रियो हि नरकाग्नीनामिन्धनं चारु दारुणम् ॥ ४४॥ कामनाम्ना किरातेन विकीर्णा मुग्धचेतसः । नार्यो नरविहङ्गानामङ्ग‌बन्धनवागुराः ॥ ४५॥ जन्मपल्वलमत्स्यानां चित्तकर्दमचारिणाम् । पुंसां दुर्वासनारज्जुर्नारी बडिशपिण्डिका ॥ ४६॥ सर्वेषां दोषरत्नानां सुसमुद्रिकयानया । दुःखशृङ्खलया नित्यमलमस्तु मम स्त्रिया ॥ ४७॥ यस्य स्त्री तस्य भोगेच्छा निःस्त्रीकस्य क्व भोगभूः । स्त्रियं त्यक्त्वा जगत्त्यक्तं जगत्त्यक्त्वा सुखी भवेत् ॥ ४८॥ ये दूरस्थ प्रज्वलित नरकाग्नियों की तरह अशोभनीय एवं दुःखदायी ईंधनस्वरूपा हैं। ये रसयुक्त प्रतीत होने पर भी वस्तुतः रसहीन हैं। काम नामक किरात ने पुरुष रूपी मृगों को आबद्ध कर लेने के लिए स्त्री रूपी पाश को विस्तृत कर रखा है। ये पुरुष जीवनरूपी तलैया के मत्स्य हैं, जो चित्तरूपी कीचड़ में सतत विचरते रहते हैं। इन मत्स्यरूपी पुरुषों को अपने बाहुपाश में फँसाने के लिए नारी दुर्वासना रूपी रस्सी में बँधी पिण्डिका अर्थात् चारे की भाँति है। यह नारी समस्त दोषरूपी रत्नों को प्रकट करने वाले सागर की भाँति है। यह दुःखों की जंजीर सदैव हमसे दूर रहे। जिस पुरुष के पास नारी है, उसे भोग की इच्छा प्रादुर्भूत होती है और जिसके पास नारी नहीं है, उसके लिए भोग का कोई कारण ही नहीं है। जिसने स्त्री का परित्याग कर दिया, उसका संसार छूट गया और वास्तव में इस नश्वर जगत् का परित्याग करके ही मनुष्य सुख को प्राप्त कर सकता है, वही सचमुच सुखी हो सकता है॥४४-४८॥ दिशोऽपि न हि दृश्यन्ते देशोऽप्यन्योपदेशकृत् । शैला अपि विशीर्यन्ते शीर्यन्ते तारका अपि ॥ ४९॥ शुष्यन्त्यपि समुद्राश्च ध्रुवोऽप्यध्रुवजीवनः । सिद्धा अपि विनश्यन्ति जीर्यन्ते दानवादयः ॥ ५०॥ परमेष्ठ्यपि निष्ठावान्हीयते हरिरप्यजः । भावोऽप्यभावमायाति जीर्यन्ते वै दिगीश्वराः ॥ ५१॥ ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च सर्वा वा भूतजातयः । नाशमेवानुधावन्ति सलिलानीव वाडवम् ॥ ५२॥ आपदः क्षणमायान्ति क्षणमायान्ति सम्पदः । क्षणं जन्माथ मरणं सर्वं नश्वरमेव तत् ॥ ५३॥ अशूरेण हताः शूरा एकेनापि शतं हतम् । विषं विषयवैषम्यं न विषं विषमुच्यते ॥ ५४॥ जन्मान्तरघ्ना विषया एकजन्महरं विषम् । इति मे दोषदावाग्निदग्धे सम्प्रति चेतसि ॥ ५५॥ (यह जगत् नश्वर है, जब यह अव्यक्त स्थिति में चला जाता है, तब) दिशाएँ भी अदृश्य हो जाती हैं, देश भी दूसरों के लिए उपदेश-प्रद बन जाते हैं अर्थात् काल के गाल में विलीन हो जाते हैं, पर्वत भी खण्ड-खण्ड हो जाते हैं तथा तारागण भी टूक-टूक होकर गिर जाते हैं, ध्रुव-नक्षत्रादि का जीवन भी अस्थिर हो जाता है। सिद्धयोगी जन भी विनष्ट हो जाते हैं, दानवादि भी जराग्रस्त शक्तिरहित होकर नष्ट हो जाते हैं। दीर्घकाल तक स्थायीरूप से निवास करने वाले पितामह ब्रह्मा जी एवं जन्मरहित भगवान् विष्णु भी अन्तर्धान हो जाते हैं, समस्त भाव अभाव में परिणत हो जाते हैं, दिशाओं के अधिपति भी जरा-जीर्ण हो जाते हैं। बड़े-बड़े देवगण एवं समस्त प्राणिसमूह वैसे ही विनाश की ओर दौड़ते चले जाते हैं, जिस प्रकार सागरों का जल बड़वानल की ओर दौड़ता चला जा रहा है। आपत्तियाँ क्षणभर में विपत्तिग्रस्त बना देती हैं, तो क्षणभर में समस्त वैभवसम्पदाएँ समीप में एकत्रित हो जाती हैं। क्षणभर में मृत्यु एवं क्षणभर में जन्म हो जाता है। ये सभी प्रपञ्च नश्वर हैं। इस जगत् में कायर पुरुषों के द्वारा शूरवीरों का संहार होता है, कभी-कभी एक के द्वारा सैकड़ों-हजारों का विनाश हो जाता है। विषय-भोगों के द्वारा चित्त में जो विषमता आ जाती है, वही विषरूप है। प्रत्यक्ष विष इतना भीषण विष नहीं कहा जाता; क्योंकि वह विष तो मात्र एक ही जन्म को नष्ट करता है और विषय-भोग तो जन्म-जन्मान्तर को ही विनष्ट कर देते हैं। अतः इस समय दोषरूपी दावानल से जला मेरा चित्त ऐसा ही प्रतीत हो रहा है॥४९-५५॥ स्फुरन्ति हि न भोगाशा मृगतृष्णासरःस्वपि । अतो मां बोधयाशु त्वं तत्त्वज्ञानेन वै गुरो ॥ ५६॥ नो चेन्मौनं समास्थाय निर्मानो गतमत्सरः । भावयन्मनसा विष्णुं लिपिकर्मार्पितोपमः ॥ ५७॥ मृगमरीचिका (तृष्णा) के सरोवर में खड़े होने के बाद भी मुझमें भोग- लिप्सा की स्फुरणा नहीं हो रही है। अतः हे पिता, हे गुरु! आप मुझे तत्त्वज्ञानात्मक बोध शीघ्रातिशीघ्र प्रदान करने की कृपा करें। अन्यथा मैं मान एवं मत्सर का परित्याग कर अपने चित्त में भगवान् विष्णु का ध्यान करते हुए चित्रलिखित की तरह से मौनव्रत स्वीकार कर लूंगा ॥५६-५७॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥ ॥ तृतीय अध्याय समाप्त ॥

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