ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १५१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १५१ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - १ मित्र, २-९ मित्र वरुणौ। छंद जगती मित्रं न यं शिम्या गोषु गव्यवः स्वाध्यो विदथे अप्सु जीजनन् । अरेजेतां रोदसी पाजसा गिरा प्रति प्रियं यजतं जनुषामवः ॥१॥ पूजनीय एवं प्रीतियुक्त जिन अग्निदेव को मानव मात्र की रक्षा के लिए गौ (पोषक किरणों) की कामना से प्रेरित श्रेष्ठ ज्ञानियों ने, मित्र के समान अपने श्रेष्ठ यज्ञीय सत्कर्मों में प्रकट किया। उनकी ध्वनि और तेजोमयी शक्ति से दिव्य लोक और पृथ्वी लोक कम्पायमान होते हैं॥१॥ यद्ध त्यद्वां पुरुमीळ्हस्य सोमिनः प्र मित्रासो न दधिरे स्वाभुवः । अध क्रतुं विदतं गातुमर्चत उत श्रुतं वृषणा पस्त्यावतः ॥२॥ हे सामर्थ्यवान् मित्र और वरुण देवो! आप दोनों के लिए मित्र के समान हितैषी ऋत्विग्गणों ने अपनी सामर्थ्य से सत्तावान् तथा विभिन्न सुखों के दाता सोमरस को अर्पित किया है। अतएव आप दोनों स्तोता के गुण, कर्म, स्वभाव को समझें तथा सद्‌गृहस्थ यजमान की प्रार्थना पर भी ध्यान दें ॥२॥ आ वां भूषन्क्षितयो जन्म रोदस्योः प्रवाच्यं वृषणा दक्षसे महे । यदीमृताय भरथो यदर्वते प्र होत्रया शिम्या वीथो अध्वरम् ॥३॥ हे शक्ति सम्पन्न मित्र और वरुण देवो! पृथ्वीवासी महान् दक्षता की प्राप्ति के लिए द्यावा-पृथ्वी से उत्पन्न आप दोनों की प्रशंसा करते हैं और स्तोत्रों से अलंकृत करते हैं। क्योंकि आप दोनों सच्चे साधक तथा दैवी नियमों के पालक को सामर्थ्य प्रदान करते हैं। आप आमन्त्रित करने पर तथा सत्कर्मों से आकर्षित होकर यज्ञ में उपस्थित होते हैं॥३॥ प्र सा क्षितिरस��र या महि प्रिय ऋतावानावृतमा घोषथो बृहत् । युवं दिवो बृहतो दक्षमाभुवं गां न धुर्युप युञ्जाथे अपः ॥४॥ हे बलशाली मित्रावरुण! जो (यज्ञ भूमि) आप दोनों को विशेष प्रिय है, उस भूमि का व्यापक विस्तार हो। हे यज्ञीय कर्मों के पालनकर्ता देवों ! आप दोनों निर्भीकतापूर्वक महान् सत्यज्ञान का उद्घोष करें । महान् दैवी गुणों के संवर्धनार्थ आप दोनों सामर्थ्ययुक्त तथा कल्याणकारी कर्मों में उसी प्रकार संलग्न हों जिस प्रकार बैल हल के जुए में संलग्न होते हैं ॥४॥ मही अत्र महिना वारमृण्वथोऽरेणवस्तुज आ सद्मन्धेनवः । स्वरन्ति ता उपरताति सूर्यमा निमुच उषसस्तक्ववीरिव ॥५॥ हे मित्र और वरुण देवो! आप दोनों विस्तृत पृथ्वी पर अपनी प्रभाव क्षमता से धारण करने योग्य श्रेष्ठ धनों को प्रदान करते हैं तथा पवित्र गौएँ (किरणे) देते हैं। उषा काल में ये गौएँ, आकाश मण्डल पर बादलों के छा जाने पर सूर्यदेव के लिए रम्भाती हैं, जैसे मनुष्य चोर को देखकर सावधानी के लिए चिल्लाते हैं॥५॥ आ वामृताय केशिनीरनूषत मित्र यत्र वरुण गातुमर्चथः । अव त्मना सृजतं पिन्वतं धियो युवं विप्रस्य मन्मनामिरज्यथः ॥६॥ हे मित्र और वरुण देवो! जहाँ आपकी प्रार्थनाएँ गाई जाती हैं, उस प्रदेश में अग्नि की ज्वालायें यज्ञीयकार्य के लिए आप दोनों का सहयोग करती हैं। आप हमारी बौद्धिक क्षमता को पुष्ट करके सामर्थ्य - शक्ति प्रदान करें। आप दोनों ही ज्ञानसम्पन्न विद्वानों के अधिपति हैं॥६॥ यो वां यज्ञैः शशमानो ह दाशति कविर्होता यजति मन्मसाधनः । उपाह तं गच्छथो वीथो अध्वरमच्छा गिरः सुमतिं गन्तमस्मयू ॥७॥ हे मित्र और वरुण देवो! जो विद्वान् याजक प्रार्थनाएँ करते हुए आप दोनों को आहुतियाँ प्रदान करते हैं, उन मनुष्यों के समीप जाकर आप यज्ञीय कर्मों की अभिलाषा करते हैं। अतएव आप दोनों हमारी ओर उन्मुख होकर हमारे स्तोत्रों और श्रेष्ठ भावनाओं को स्वीकार करें ॥७॥ युवां यज्ञैः प्रथमा गोभिरज्ञ्जत ऋतावाना मनसो न प्रयुक्तिषु । भरन्ति वां मन्मना संयता गिरोऽदृप्यता मनसा रेवदाशाथे ॥८॥ हे सत्य सम्पन्न मित्रावरुण देव! इन्द्रियों में मन जिस प्रकार सर्वोत्तम है, उसी प्रकार देवताओं में सर्वोत्तम आप दोनों को याजकगण दुग्ध, घृतादि की आहुतियों द्वारा सन्तुष्ट करते हैं। उन्हें ऐश्वर्य सम्पदा प्रदान करते हैं॥८॥ रेवद्वयो दधाथे रेवदाशाथे नरा मायाभिरितऊति माहिनम् । न वां द्यावोऽहभिर्नोत सिन्धवो न देवत्वं पणयो नानशुर्मघम् ॥९॥ हे नेतृत्व सम्पन्न मित्र और वरुण देवो! आप दोनों अपनी शक्तियों से सुरक्षित करते हुए हमें वैभव पूर्ण उपयोगी सम्पदाएँ प्रदान करते हैं। आप दोनों की दैवी क्षमताओं और सम्पदाओं को दिव्य लोक, अहोरात्र, नदियाँ तथा 'पणि' नामक असुरगण भी उपलब्ध नहीं कर सके ॥९॥

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