ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त ४१

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त ४१ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः । देवता- १-२ वायुः ३ इन्द्रवायु, ४-६ मित्रावरुणौ, ७-९ आश्विनौ, १०- १२ इन्द्र, १३-१५ विश्वेदेवा, १६-१८ सरस्वती, १९-२१ द्यावापृथ्वी । छंद- गायत्री, १६-१७ अनुष्टुप, १८ बृहती वायो ये ते सहस्रिणो रथासस्तेभिरा गहि । नियुत्वान्त्सोमपीतये ॥१॥ हे वायुदेव ! आप अपने घोड़ों से युक्त हजारों रथों से सोम पान करने के लिए आयें ॥१॥ नियुत्वान्वायवा गह्ययं शुक्रो अयामि ते । गन्तासि सुन्वतो गृहम् ॥२॥ याज्ञिकों के पास नियुत (रथ) में सवार होकर पहुँचने वाले हे वायुदेव ! आपके निमित्त यह देदीप्यमान सोमरस तैयार किया गया है। इस हेतु हम आपका आवाहन करते है॥२॥ शुक्रस्याद्य गवाशिर इन्द्रवायू नियुत्वतः । आ यातं पिबतं नरा ॥३॥ हे नेतृत्व प्रदान करने वाले इन्द्र और वायुदेवो ! आप आज घोड़ों से युक्त होकर गौ का दूध मिला हुआ तेजस्वी सोमरस पीने के लिए आयें और पान करें ॥३॥ अयं वां मित्रावरुणा सुतः सोम ऋतावृधा । ममेदिह श्रुतं हवम् ॥४॥ यज्ञ को बढ़ाने वाले हे मित्र और वरुणदेवो! उत्तम रीति से तैयार एवं शुद्ध किया गया यह सोमरस आपके निमित्त प्रस्तुत है। हमारी यह प्रार्थना सुनें ॥४॥ राजानावनभिद्रुहा ध्रुवे सदस्युत्तमे । सहस्रस्थूण आसाते ॥५॥ आपस में कभी द्रोह न करने वाले हे तेजस्वी मित्र और वरुण देवो ! हजार स्तम्भों पर स्थिर, सशक्त, श्रेष्ठ यज्ञ मण्डप में आप विराजें ॥५॥ ता सम्राजा घृतासुती आदित्या दानुनस्पती । सचेते अनवह्वरम् ॥६॥ सम्राट् रूप, घृताहुति स्वीकार करने वाले, दानशील अदिति पुत्र मित्र और वरुणदेव, कुटिलता से रहित (सरल हृदय वाले), साधकों याजको) की ही सहायता करते हैं॥६॥ गोमदू षु नासत्याश्वावद्यातमश्विना । वर्ती रुद्रा नृपाय्यम् ॥७॥ हे अश्विनीकुमारो ! हे सत्य सेवी रुद्रदेवो! जिस सोमरस का पान यज्ञ में नेतृत्व प्रदान करने वाले लोग करेंगे, उस सोमरस को गौओं तथा अश्वों से युक्त रथ में आप भली-भाँति लायें ॥७॥ न यत्परो नान्तर आदधर्षदृषण्वसू । दुःशंसो मर्यो रिपुः ॥८॥ हे धनवर्षक अश्विनीकुमारो ! समीप में रहनेवाले या दूर रहने वाले कटुभाषी शत्रु जिस धन को नहीं चुरा सकते, उसे हमें प्रदान करें ॥८ ॥ ता न आ वोळ्हमश्विना रयिं पिशङ्गसंदृशम् । धिष्ण्या वरिवोविदम् ॥९॥ हे उत्तम स्तुति के योग्य अश्विनीकुमारो! आपके पास जो सुवर्णयुक्त नाना प्रकार का ऐश्वर्य हैं, वह धन हमारे लिए ले आये ॥९॥ इन्द्रो अङ्ग महद्भयमभी षदप चुच्यवत् । स हि स्थिरो विचर्षणिः ॥१०॥ युद्ध में स्थिर रहने वाले विश्वद्रष्टा इन्द्रदेव महान् पराभवकारी भय को शीघ्र ही दूर करते हैं॥ १०॥ इन्द्रश्च मृळयाति नो न नः पश्चादर्घ नशत् । भद्रं भवाति नः पुरः ॥११॥ यदि इन्द्रदेव हमें सुखप्रदान करेंगे, तो हमें पाप नष्ट नहीं कर सकता, वे हर प्रकार से हमारा कल्याण ही करेंगे ॥११॥ इन्द्र आशाभ्यस्परि सर्वाभ्यो अभयं करत् । जेता शत्रून्विचर्षणिः ॥१२॥ शत्रुविजेता, प्रज्ञावान् इन्द्रदेव सभी दिशाओं से हमें निर्भय बनायें ॥१२॥ विश्वे देवास आ गत शृणुता म इमं हवम् । एदं बर्हिर्नि षीदत ॥१३॥ हे सम्पूर्ण देवगणो ! आप इस यज्ञ में आकर कुश के आसन पर विराजमान हों तथा हमारी इस प्रार्थना को स्वीकार करें ॥१३ ॥ तीव्रो वो मधुमाँ अयं शुनहोत्रेषु मत्सरः । एतं पिबत काम्यम् ॥१४॥ हे सम्पूर्ण देवगणो ! पवित्रता प्रदान करने वाले इस यज्ञ में आनन्ददायी, तीक्ष्ण तथा मधुर सोमरस आपके निमित्त तैयार किया गया है, आप सभी आयें तथा इच्छानुसार इस सोमरस का पान करें ॥१४॥ इन्द्रज्येष्ठा मरुद्गणा देवासः पूषरातयः । विश्वे मम श्रुता हवम् ॥१५॥ जिन मरुद्गणों में सर्वश्रेष्ठ इन्द्रदेव हैं, जिन्हें पोषण देने वाले पूषादेव हैं, वे मरुद्गण हमारी प्रार्थना को स्वीकार करें ॥१५॥ अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति । अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि ॥१६॥ हे नदियों, मातृगणों, देवों में सर्वश्रेष्ठ माता सरस्वती ! हम मूर्ख बालकों के समान हैं; अतः हमें उत्तम ज्ञान प्रदान करें ॥१६॥ त्वे विश्वा सरस्वति श्रितायूंषि देव्याम् । शुनहोत्रेषु मत्स्व प्रजां देवि दिदिड्डि नः ॥१७॥ हे माता सरस्वती ! आपके तेजस्वी आश्रय में ही सम्पूर्ण जीवन-सुख आश्रित हैं, अतः हे माता! आप पवित्र करने वाले यज्ञ में आनन्दित होकर हमें उत्तम सन्तति प्रदान करें ॥१७॥ इमा ब्रह्म सरस्वति जुषस्व वाजिनीवति । या ते मन्म गृत्समदा ऋतावरि प्रिया देवेषु जुह्वति ॥१८॥ हे माता सरस्वती ! आप अन्न तथा बल प्रदान करके सत्य मार्ग पर चलाने वाली हैं, अतः देवों को प्रिय लगने वाले गृत्समद ऋषि द्वारा बनाये गये उत्तम स्तोत्र हम आपको सुनाते हैं; आप इन स्तोत्रों को स्वीकार करें ॥ १८ ॥ प्रेतां यज्ञस्य शम्भुवा युवामिदा वृणीमहे । अग्निं च हव्यवाहनम् ॥१९॥ हे मंगलकारी द्यावा - पृथिवि ! हव्यवाहक अग्निदेव के साथ आप दोनों का हम वरण करते हैं। आप हमारी प्रार्थना को स्वीकार करके यज्ञ में आयें ॥१९॥ द्यावा नः पृथिवी इमं सिध्रमद्य दिविस्पृशम् । यज्ञं देवेषु यच्छताम् ॥२०॥ हे द्यावा - पृथिवि ! सुख के साधक तथा आकाश तक हमारी हवि को स्पर्श कराने वाले यज्ञ को आज आप दोनों देवों तक ले जायें ॥२०॥ आ वामुपस्थमद्रुहा देवाः सीदन्तु यज्ञियाः । इहाद्य सोमपीतये ॥२१॥ परस्पर सम्बद्ध रहने वाली (द्रोह न करने वाली) हे द्यावा-पृथिवी देवियो ! आज इस यज्ञ में देवगण सोमपान के निमित्त आपके पास बैठे ॥२१॥

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