ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १७४

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १७४ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता- इन्द्रःः। छंद - त्रिष्टुप; त्वं राजेन्द्र ये च देवा रक्षा नृन्याह्यसुर त्वमस्मान् । त्वं सत्पतिर्मघवा नस्तरुत्रस्त्वं सत्यो वसवानः सहोदाः ॥१॥ हे सामर्थ्यवान् इन्द्रदेव ! आप संसार के अधिपति हैं। देवशक्तियों के सहयोग से आप मनुष्यों की रक्षा करें। आप सत्कर्मशील मनुष्यों के पालक हैं, आप हम वीरों को संरक्षित करें। आप ऐश्वर्यवान् हमारे तारणकर्ता हैं। आप ही श्रेष्ठ आश्रय दाता और बलदाता हैं॥१॥ दनो विश इन्द्र मृध्रवाचः सप्त यत्पुरः शर्म शारदीर्दत् । ऋणोरपो अनवद्यार्णा यूने वृत्रं पुरुकुत्साय रन्धीः ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! जिस समय आपने शरदकालीन निवास योग्य शत्रुनगरों के सात भवनों को विनष्ट किया, उसी समय कटुभाष शत्रुसैनिकों को भी विनष्ट कर दिया। हे अनिन्दनीय इन्द्रदेव! आपने प्रवाहित होने वाले जलों के द्वारों को खोल दिया और युवा 'पुरुकुत्स' के लिए वृत्रासुर का संहार किया ॥२॥ अजा वृत इन्द्र शूरपत्नीर्धां च येभिः पुरुहूत नूनम् । रक्षो अग्निमशुषं तूर्वयाणं सिंहो न दमे अपांसि वस्तोः ॥३॥ आवाहन योग्य हे इन्द्रदेव! आप निश्चित ही जिन मरुद्गणों के साथ दिव्य लोक में जाते हैं, उनके सहयोग से वीरों को सुरक्षित करके शत्रुओं की अभेद्य दीवारों को तोड़ देते हैं। हे इन्द्रदेव ! हमारे घरों में जलों की पति के लिए सिंह के समान अपनी पराक्रमी सामर्थ्य से इस रोगनाशक तीव्र गतिशील अग्नि को संरक्षित करें ॥३॥ शेषन्नु त इन्द्र सस्मिन्योनौ प्रशस्तये पवीरवस्य मह्ना । सृजदर्णांस्यव यद्युधा गास्तिष्ठद्धरी धृषता मृष्ट वाजान् ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आपको महिमा-मण्डित करने के लिए वज्र के प्रहार से युद्ध भूमि में ही असुर धराशायी होकर गिर पड़े। जिस समय आपने योद्धा शत्रुओं के पास जाकर उनके द्वारा अवरुद्ध जल प्रवाहों को प्रवाहित किया, उसी समय आप दोनों घोड़ों पर आरूढ़ हो गये। आपने अपनी घर्षक और शत्रुसंहारक सामर्थ्य से वीर सैनिकों को दोष मुक्त किया ॥४॥ वह कुत्समिन्द्र यस्मिञ्चाकन्त्स्यूमन्यू ऋज्रा वातस्याश्वा । प्र सूरश्चक्रं वृहतादभीकेऽभि स्पृधो यासिषद्वज्रबाहुः ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आप कुत्स के जिस यज्ञ में हवि सेवन की कामना करते हैं, उसी ओर सुखदायी, सीधे मार्गों से, वायु की गति के समान शीघ्र गामी अपने अश्वों को प्रेरित करें। युद्ध में सूर्यदेव अपने चक्र को उनके समीप ले जायें और हाथों में वज्र धारण करने वाले इन्द्रदेव शत्रु सेनाओं की ओर उन्मुख हों ॥५॥ जघन्वाँ इन्द्र मित्रेरूञ्चोदप्रवृद्धो हरिवो अदाशून् । प्र ये पश्यन्नर्यमणं सचायोस्त्वया शूर्ता वहमाना अपत्यम् ॥६॥ हे अश्वों से युक्त इन्द्रदेव! आपने अति उत्साह में मित्रों के शत्रुओं तथा यज्ञीय कर्मों से रहित दुष्टों का संहार किया। ऐसे आप को जो, अन्न- दान से संतुष्ट करते हैं, उन्हें आप सन्तान और वीरता प्रदान करते हैं॥६॥ रपत्कविरिन्द्रार्कसातौ क्षां दासायोपबर्हणीं कः । करत्तिस्रो मघवा दानुचित्रा नि दुर्योणे कुयवाचं मृधि श्रेत् ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! ऋषियों ने स्तुतिगान के समय जब आपके निमित्त प्रशंसक वाणी का प्रयोग किया, तब आपने शत्रुओं का संहार करके उन्हें पृथ्वी रूपी शैय्या पर सुला दिया। ऐश्वर्यवान् इन्द्र ने तीन भूमियों (पर्वतमय, सम तथा जलमय) को उत्तम अन्न, ऐश्वर्य एवं सुखदायी पदार्थों से सुशोभित किया। दुर्योणि के लिए युद्ध में आपने कुयवाचे राक्षस का संहार किया ॥७॥ सना ता त इन्द्र नव्या आगुः सहो नभोऽविरणाय पूर्वीः । भिनत्पुरो न भिदो अदेवीर्ननमो वधरदेवस्य पीयोः ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! आपकी शाश्वत स्तोत्रवाणियों का प्रषियों ने दुबारा गान किया है। आपने आसुरी शक्तियों को युद्ध रोकने के लिए दवाया है तथा शत्रुओं के दुर्गों को तोड़ने के समान ही असुरता की अभेद्य शक्ति को अपनी सामर्थ्य से छिन्न-भिन्न कर दिया है। हिंसक शत्रु के शस्त्रादि बल की तीक्ष्णता को भी अपने क्षीण कर दिया है॥८॥ त्वं धुनिरिन्द्र धुनिमतीऋणोरपः सीरा न स्रवन्तीः । प्र यत्समुद्रमति शूर पर्षि पारया तुर्वशं यदुं स्वस्ति ॥९॥ हे इन्द्रदेव ! आप शत्रुओं को अपनी सामर्थ्य से भयभीत करने वाले हैं। प्रवाहित नदियों के समान ही जल के अथाह भण्डार को आपने खोल दिया। हे पराक्रमी वीर इन्द्रदेव! जब आप समुद्र को जल से परिपूर्ण कर देते है, तभी आप तुर्वश और यदु को दक्षतापूर्वक पार उतारते हैं ॥९॥ त्वमस्माकमिन्द्र विश्वध स्या अवृकतमो नरां नृपाता । स नो विश्वासां स्पृधां सहोदा विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥१०॥ हे इन्द्रदेव ! आप सदैव हमारे निष्कपट प्रजा संरक्षक हैं। ऐसे आप हमारी सम्पूर्ण सैन्यशक्ति की प्रभाव क्षमता को संवर्धित करें, जिससे हम भी अन्न, बल और दीर्घायु के लाभ को प्राप्त कर सकें ॥१०॥

Recommendations