ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ४४

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ४४ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - इन्द्रः । छंद - बृहती अयं ते अस्तु हर्यतः सोम आ हरिभिः सुतः । जुषाण इन्द्र हरिभिर्न आ गह्या तिष्ठ हरितं रथम् ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! पाषाण द्वारा निष्पादित प्रीतिकर और सेवनीय यह सोम आपके लिए हैं। आप हरि संज्ञक अश्वों द्वारा ले जाये जाने वाले रथ पर अधिष्ठित होकर हमारे समीप आएँ ॥१॥ हर्यन्नुषसमर्चयः सूर्य हर्यन्नरोचयः । विद्वाँश्चिकित्वान्हर्यश्व वर्धस इन्द्र विश्वा अभि श्रियः ॥२॥ हरि संज्ञक अश्रों के स्वामी है इन्द्रदेव! आप सोम की कामना करते हुए उषा और सूर्य को प्रकाशित करते हैं। आप विद्वान् और हमारी अभिलाषाओं के ज्ञाता हैं। आप हमारी समृद्धि और वैभव को बढ़ाएँ ॥२॥ द्यामिन्द्रो हरिधायसं पृथिवीं हरिवर्पसम् । अधारयद्धरितोर्भूरि भोजनं ययोरन्तर्हरिश्चरत् ॥३॥ जिसके बीच में सूर्यदेव की हरित किरणें संचरित हैं, उस द्युलोक और रश्मियों को धारण करने से जिस पर हरियाली फैली है, ऐसी भरपूर भोजन सामग्री युक्त पृथ्वी को इन्द्रदेव ने धारण किया ॥३॥ जज्ञानो हरितो वृषा विश्वमा भाति रोचनम् । हर्यश्वो हरितं धत्त आयुधमा वज्रं बाह्वोर्हरिम् ॥४॥ इष्टवर्धक, इन्द्रदेव उत्पन्न होकर सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करते हैं। हरित वर्ण के अशों वाले इद्रदेव हाथों में दीप्तिमान् वज्र आदि आयुध धारण करते हैं॥४॥ इन्द्रो हर्यन्तमर्जुनं वज्रं शुक्रैरभीवृतम् । अपावृणोद्धरिभिरद्रिभिः सुतमुद्गा हरिभिराजत ॥५॥ इन्द्रदेव ने अभिषाला योग्य, शुभ, तेज़ से परिपूर्ण, दीप्तिमान् और पाषाण द्वारा निम्पादित सोम प्राप्त किया। (सोमरस पौंकर तृप्त हुए) इन्द्रदेव ने वज्र को धारण कर अच्चों द्वारा गमन कर अपहृत गौओं को विमुक्त किया ॥५॥

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