Maitreya Upanishad Third Chapter (मैत्रेय उपनिषद) तृतीय अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ मैत्रेय्युपनिषत् ॥ मैत्रेय उपनिषद तृतीयोऽध्यायः तृतीय अध्याय अहमस्मि परश्चास्मि ब्रह्मास्मि प्रभवोऽस्म्यहम् । सर्वलोकगुरुश्चामि सर्वलोकेऽस्मि सोऽस्म्यहम् ॥ १॥ (अन्तः स्थित ब्रह्म) मैं हूँ और (बाह्य स्थित) पर (ब्रह्म) भी मैं ही हूँ, मैं ब्रह्म हूँ, उत्पत्ति हुँ, समस्त लोकों का गुरु हैं और सभी लोकों में जो भी कुछ है, वह मैं ही हूँ ॥१॥ अहमेवास्मि सिद्धोऽस्मि शुद्धोऽस्मि परमोऽस्म्यहम् । अहमस्मि सोमोऽस्मि नित्योऽस्मि विमलोऽस्म्यहम् ॥ २॥ मैं ही सिद्ध हैं, मैं ही शुद्ध हूँ तथा परम तत्त्व भी मैं ही हूँ। मैं सदैव (विद्यमान रहता) हूँ, मैं नित्य हूँ। एवं मलरहित भी मैं ही हूँ ॥२॥ विज्ञानोऽस्मि विशेषोऽस्मि सोमोऽस्मि सकलोऽस्म्यहम् । शुभोऽस्मि शोकहीनोऽस्मि चैतन्योऽस्मि समोऽस्म्यहम् ॥ ३॥ मैं विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न हूँ, मैं विशेष हूँ, सोम मैं हूँ, सभी कुछ मैं ही हूँ। मैं शुभ हूँ, शोकरहित हूँ, सम हूँ तथा चैतन्य भी मैं ही हूँ ॥३॥ मानावमानहीनोऽस्मि निर्गुणोऽस्मि शिवोऽस्म्यहम् । द्वैताद्वैतविहीनोऽस्मि द्वन्द्वहीनोऽस्मि सोऽस्म्यहम् ॥ ४॥ मैं मान एवं अपमान से रहित हूँ, निर्गुण (गुणरहित) हैं, मैं ही शिव हूँ, द्वैत एवं अद्वैत के भाव से रहित हूँ, सुख तथा दुःख आदि द्वन्द्वों से रहित हूँ तथा वह (ब्रह्म) मैं ही हूँ ॥४॥ भावाभावविहीनोऽस्मि भासाहीनोऽस्मि भास्म्यहम् । शून्याशून्यप्रभावोऽस्मि शोभनाशोभनोऽस्म्यहम् ॥ ५॥ भाव-अभाव अर्थात् उत्पत्ति और विनाश से परे हूँ। भासा (प्रकाश) से अलग हैं, किन्तु प्रकाश भी मैं ही हूँ। मैं शून्य और अशून्य रूप हूँ तथा मैं ही सुन्दर और असुन्दर भी हूँ ॥५॥ तुल्यातुल्यविहीनोऽस्मि नित्यः शुद्धः सदाशिवः । सर्वासर्वविहीनोऽस्मि सात्त्विकोऽस्मि सदास्म्यहम् ॥ ६॥ तुल्य-अतुल्य अर्थात् समता एवं विषमता से रहित हूँ, नित्य हूँ, शुद्ध हूँ एवं सदाशिव हूँ। मैं सर्वअसर्व की कल्पना से रहित हूँ, सात्त्विक हूँ और मैं सदैव (विद्यमान रहने वाला) हूँ ॥६॥ एकस‌ङ्ख्याविहीनोऽस्मि द्विसङ्ख्यावाहनं न च । सदसद्भेदहीनोऽस्मि सङ्कल्प्स्रहितोस्म्यहम् ॥ ७॥ मैं एक संख्या विहीन (अद्वैतरहित) और दो संख्या रहित (द्वैतरहित) हूँ, सत् और असत् के भेद से रहित हूँ तथा मैं संकल्प से रहित हूँ ॥७॥ नानात्मभेदहीनोऽस्मि ह्यखण्डानन्दविग्रहः । नाहमस्मि न चान्योऽस्मि देहादिरहितोऽस्म्यहम् ॥ ८॥ मैं विविधता से रहित तथा अखण्ड आनन्द स्वरूप हूँ। न मैं (अहं रूप) हूँ और अन्य भी नहीं हूँ। मैं शरीरादि से रहित हूँ ॥८॥ आश्रयाश्रयहीनोऽस्मि आधाररहितोऽस्म्यहम् । बन्धमोक्षादिहीनोऽस्मि शुद्धब्रह्मास्मि सोऽस्म्यहम् ॥ ९॥ मैं आश्रय-निराश्रय से रहित हूँ, मैं आधार रहित हूँ, बन्ध एवं मोक्ष से भी रहित हूँ तथा मैं ही शुद्ध ब्रह्म स्वरूप हूँ ॥९॥ चित्तादिसर्वहीनोऽस्मि परमोऽस्मि परात्परः । सदा विचाररूपोऽस्मि निर्विचारोऽस्मि सोऽस्म्यहम् ॥ १०॥ मैं चित्त आदि सभी से रहित हूँ, मैं परात्पर (ब्रह्म) हूँ। मैं सर्वदा विचार रूप हैं. साथ ही विचार से परे भी हूँ ॥१०॥ अकारोकाररूपोऽस्मि मकरोऽस्मि सनातनः । धातृध्यानविहीनोऽस्मि ध्येयहीनोऽस्मि सोऽस्म्यहम् ॥ ११॥ 'अकार', 'उकार' एवं 'मकार' रूप सनातन मैं ही हूँ। मैं ध्याता, ध्यान एवं ध्येय से परे भी हूँ ॥११॥ सर्वपूर्णस्वरूपोऽस्मि सच्चिदानन्दलक्षणः । सर्वतीर्थस्वरूपोऽस्मि परमात्मास्म्यहं शिवः ॥ १२॥ मैं सर्वत्र पूर्णरूप हूँ, सच्चिदानन्द के लक्षणों से युक्त हूँ। सम्पूर्ण तीर्थों का स्वरूप भी मैं हूँ और परमात्म स्वरूप कल्याणकारी भगवान् शिव भी मैं ही हूँ ॥१२॥ लक्ष्यालक्ष्यविहीनोऽस्मि लयहीनरसोऽस्म्यहम् । मातृमानविहीनोऽस्मि मेयहीनः शिवोऽस्म्यहम् ॥ १३॥ मैं लक्ष्य एवं अलक्ष्य से विहीन हूँ तथा लय न होने वाला रसे स्वरूप हूँ। मैं ही प्रमाण, प्रमेय और प्रमाता से रहित तथा मैं ही शिव स्वरूप हूँ ॥१३॥ न जगत्सर्वद्रष्टास्मि नेत्रादिरहितोस्म्यहम् । प्रवृद्धोऽस्मि प्रबुद्धोऽस्मि प्रसन्नोऽस्मि परोऽस्म्यहम् ॥ १४॥ मैं इस संसार का सर्वद्रष्टा नहीं हूँ। मैं आँख आदि समस्त इन्द्रियों से रहित हूँ। मैं ही वृद्धि को प्राप्त करता हुआ, ज्ञानवान्, प्रसन्न एवं हर (पापों को हरने वाला) हूँ ॥१४॥ सर्वेन्द्रियविहीनोऽस्मि सर्वकर्मकृदप्यहम् । सर्ववेदान्ततृप्तोऽस्मि सर्वदा सुलभोऽस्म्यहम् ॥ १५॥ मैं सभी इन्द्रियों से रहित हैं, तब भी समस्त कर्म करने वाला मैं स्वयं ही हूँ। समस्त वेदान्त द्वारा सर्वदा तृप्त एवं सर्व सुलभ मैं ही हूँ ॥१५॥ मुदितामुदिताख्योऽस्मि सर्वमौनफलोऽस्म्यहम् । नित्यचिन्मात्ररूपोऽस्मि सदा सच्चिन्मयोऽस्म्यहम् ॥ १६ ॥ मैं आनन्द एवं शोक रूप हैं, सर्वदा मौन रहने का फल रूप हूँ। नित्य चिद् रूप हूँ तथा मैं ही सच्चिद् रूप भी हूँ ॥१६॥ यत्किञ्चिदपि हीनोऽस्मि स्वल्पमप्यति नास्म्यहम् । हृदयग्रन्थिहीनोऽस्मि हृदयाम्भोजमध्यगः ॥ १७॥ जो कुछ भी है, मैं उससे रहित हूँ, मैं अति अल्प और अत्यधिक भी नहीं हैं। (मैं) हृदय की ग्रन्थि से रहित हूँ तथा हृदय कमल के मध्य में रहने वाला भी हूँ ॥१७॥ ष‌ड्विकारविहीनोऽस्मि षट्‌कोषरहितोऽस्म्यहम् । अरिषड्वर्गमुक्तोऽस्मि अन्तरादन्तरोऽस्म्यहम् ॥ १८॥ मैं (जन्म, अप्तित्व, विपरिणमन, विकास, अपक्षय और विनाश) छः विकारों से रहित, चर्म आदि छः कोशों (चर्म, मांस, रक्त, माड़ी, मेद और मज्जा) से रहित तथा काम, क्रोधादि षड् रिपुओं से हीन हैं और नितान्त अन्तः स्थान में रहने वाला हूँ ॥१८॥ देशकालविमुक्तोऽस्मि दिगम्बरसुखोऽस्म्यहम् । नास्ति नास्ति विमुक्तोऽस्मि नकारहितोऽस्म्यहम् ॥ १९॥ मैं देश और काल से रहित हूँ, दिगम्बर एवं आनन्द स्वरूप हूँ। यह नहीं है, यह नहीं है-इससे मैं मुक्त हूँ अर्थात् मैं अभावशून्य हूँ तथा 'नकार' से रहित भी मैं ही हूँ ॥१९॥ अखण्डाकाशरूपोऽस्मि ह्यखण्डाकारमस्म्यहम् । प्र रपञ्चमुक्तचित्तोऽस्मि प्रपञ्चरहितोऽस्म्यहम् ॥ २०॥ मैं अखण्ड आकाश स्वरूप हूँ, अखण्डाकार भी मैं ही हूँ, मैं सांसारिक प्रपञ्चों से परे चित्त वाला हूँ। तथा संसार प्रपञ्चादि से रहित हूँ ॥२०॥ सर्वप्रकाशरूपोऽस्मि चिन्मात्रज्योतिरस्म्यहम् । कालत्रयविमुक्तोऽस्मि कामादिरहितोऽस्म्यहम् ॥ २१॥ मैं सर्वप्रकाश स्वरूप हूँ तथा चैतन्य रूपी ज्योति भी मैं ही हूँ। तीनों कालों से परे अर्थात् मुक्त हूँ एवं मैं काम-क्रोधादि से रहित हूँ ॥२१॥ कायिकादिविमुक्तोऽस्मि निर्गुणः केवलोऽस्म्यहम् । मुक्तिहीनोऽस्मि मुक्तोऽस्मि मोक्षहीनोऽस्म्यहम् सदा ॥ २२॥ मैं देह-अदेह (शरीर-अशरीर) से मुक्त हैं, निर्गुण हूँ तथा मैं केवल एक हूँ। मुक्ति रहित होते हुए भी मुक्त हूँ तथा मैं सदैव मोक्षरहित हूँ ॥२२॥ सत्यासत्यादिहीनोऽस्मि सन्मात्रान्नास्म्यहं सदा । गन्तव्यदेशहीनोऽस्मि गमनादिविवर्जितः ॥ २३॥ (मैं) सत्य-असत्य से रहित हूँ, केवल मैं ही सत्य स्वरूप से (भिन्न) सभी कालों में नहीं हूँ। मैं गमनागमन से रहित हूँ अर्थात् मुझे कहीं जाना अथवा न जाना नहीं है एवं मेरा गन्तव्य (जाने का स्थान) भी नहीं है ॥२३॥ सर्वदा समरूपोऽस्मि शान्तोऽस्मि पुरुषोत्तमः । एवं स्वानुभवो यस्य सोऽहमस्मि न संशयः ॥ २४॥ (मैं) सर्वदा समरूप एवं शान्त परमात्मा (पुरुषोत्तम) हूँ। जिसका इस प्रकार से स्वानुभव है, वह । (ब्रह्म) निश्चित ही मैं हूँ। इसमें किसी भी तरह का संशय नहीं है ॥२४॥ यः शृणोति सकृद्वापि ब्रह्मैव भवति स्वयमित्युपनिषत् ॥ जो (मनुष्य) एक बार भी इस (मैत्रेयी) उपनिषद् का श्रवण करता है, वह स्वयं ब्रह्म ही हो जाता है। ऐसी ही यह उपनिषद् है ॥२५॥ ॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥ ॥ तृतीय अध्याय समाप्त ॥ ॥ हरिः ॐ ॥ शान्तिपाठ ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि । सर्वं ब्रह्मौपनिषदंमाऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु । तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु । मेरे सभी अंग पुष्ट हों तथा मेरे वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत, बल तथा सम्पूर्ण इन्द्रियां पुष्ट हों। यह सब उपनिशद्वेद्य ब्रह्म है। मैं ब्रह्म का निराकरण न करूँ तथा ब्रह्म मेरा निराकरण न करें अर्थात मैं ब्रह्म से विमुख न होऊं और ब्रह्म मेरा परित्याग न करें। इस प्रकार हमारा परस्पर अनिराकरण हो, अनिराकरण हो । उपनिषदों मे जो धर्म हैं वे आत्मज्ञान मे लगे हुए मुझ मे स्थापित हों। मुझ मे स्थापित हों। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥ ॥ इति मैत्रेय्युपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ मैत्रेय उपनिषद समात ॥

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