ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १३१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १३१ ऋषि - पुरूच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र । छंद - इन्द्र । छंद अत्यष्टि इन्द्राय हि द्यौरसुरो अनम्नतेन्द्राय मही पृथिवी वरीमभिद्युम्नसाता वरीमभिः । इन्द्रं विश्वे सजोषसो देवासो दधिरे पुरः । इन्द्राय विश्वा सवनानि मानुषा रातानि सन्तु मानुषा ॥१॥ विस्तृत पृथ्वी और तेजस्वी द्युलोक ने अपने संसाधनों से इन्द्रदेव का सहयोग किया। उत्साहित देवगणों ने सहमति पूर्वक इन्द्रदेव को अग्रणी रूप में प्रतिष्ठित किया। सभी देवता उन्हें अपना नायक मानकर हविभाग अर्पित करते हैं। मनुष्यों द्वारा दी गयी सोम युक्त आहुतियाँ इन्द्रदेव के लिए समर्पित हों ॥१॥ विश्वेषु हि त्वा सवनेषु तुञ्जते समानमेकं वृषमण्यवः पृथक्स्वः सनिष्यवः पृथक् । तं त्वा नावं न पर्षणिं शूषस्य धुरि धीमहि । इन्द्रं न यज्ञैश्चितयन्त आयवः स्तोमेभिरिन्द्रमायवः ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! सभी सोमयज्ञों में विभिन्न उद्देश्यों वाले याजक आपको हविष्यान्न प्रदान करते हैं। स्वर्ग की प्राप्ति के इच्छुक भी पृथक् रूप में आहुतियाँ देते हैं। मनुष्यों को सागर से पार ले जाने वालों नाव के समान ही इन्द्रदेव को जागरूक करके सेना के अग्रिम भाग में प्रतिष्ठित करते हैं। हम स्तुति करने वाले स्तोत्रों द्वारा आपका ध्यान करते हैं॥२॥ वि त्वा ततस्रे मिथुना अवस्यवो व्रजस्य साता गव्यस्य निःसृजः सक्षन्त इन्द्र निःसृजः । यद्गव्यन्ता द्वा जना स्वर्यन्ता समूहसि । आविष्करिक्रदृषणं सचाभुवं वज्रमिन्द्र सचाभुवम् ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! संरक्षण के इच्छुक गृहस्थजन सपत्नीक स्वर्ग प्राप्ति एवं गौओं की प्राप्ति के लिए आपके सम्मुख प्रस्तुत होते हैं। ऐसे में हे इन्द्रदेव ! गौ समूह की प्राप्ति के लिए होने वाले संग्राम में आपको स्वयं ले जाकर प्रेरित करने वाले यजमान आपके लिए यज्ञ कर्म सम्पादित करते हैं। आपने ही अपने साथ रहने वाले वज्र को प्रकट (प्रयुक्त) किया है॥३॥ विदुष्टे अस्य वीर्यस्य पूरवः पुरो यदिन्द्र शारदीरवातिरः सासहानो अवातिरः । शासस्तमिन्द्र मर्त्यमयज्युं शवसस्पते । महीममुष्णाः पृथिवीमिमा अपो मन्दसान इमा अपः ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आपके द्वारा शत्रुओं की सामर्थ्य को पद-दलित किये जाने पर, जब आपने ही उनकी शरद्‌कालीन आवासीय नगरियों का विध्वंस किया, तब प्रजाजनों में आपकी पराक्रम शक्ति विख्यात हुई । हे शक्ति के प्रतिनिधि इन्द्रदेव! आपने मनुष्यों के कल्याण के लिए यज्ञ विध्वंसक राक्षसों को दण्डित करके पृथ्वी एवं जलों पर उनके प्रभुत्व को समाप्त किया ॥४॥ आदित्ते अस्य वीर्यस्य चर्किरन्मदेषु वृषन्नुशिजो यदाविथ सखीयतो यदाविथ । चकर्थ कारमेभ्यः पृतनासु प्रवन्तवे । ते अन्यामन्यां नद्यं सनिष्णत श्रवस्यन्तः सनिष्णत ॥५॥ हे शक्तिशाली इन्द्रदेव ! आनन्दित होते हुए आपने यजमानों तथा मित्र भाव रखने वालों का संरक्षण किया। उनके द्वारा आपकी पराक्रम शक्ति को चारों और विस्तारित किया गया। आपने ही धनादि वितरण से संग्रामों में वीरों को प्रोत्साहित किया। आपने एक - दूसरे के सहयोग से धन लाभ देते हुए अन्नादि के इच्छुकों को अन्न उपलब्ध कराया ॥५॥ उतो नो अस्या उषसो जुषेत ह्यर्कस्य बोधि हविषो हवीमभिः स्वर्षाता हवीमभिः । यदिन्द्र हन्तवे मृधो वृषा वज्रिञ्चिकेतसि । आ मे अस्य वेधसो नवीयसो मन्म श्रुधि नवीयसः ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! आप हमारे प्रभातकालीन यज्ञादिकर्मों के समय उच्चारित स्तुतियों पर ध्यान दें और आहुतियों को ग्रहण करें । सुखों की प्राप्ति हेतु स्तुतियों के अभिप्राय को जानें। हे वज्रधारी इन्द्रदेव ! जिस प्रकार आप शत्रुनाशक कार्यों में सजग रहते हैं, उसी गम्भीरता से आप नवीन रचित स्तोत्रों और नये ज्ञानी स्तोताओं की प्रार्थनाओं पर ध्यान दें ॥६॥ त्वं तमिन्द्र वावृधानो अस्मयुरमित्रयन्तं तुविजात मर्त्य वज्रेण शूर मर्त्यम् । जहि यो नो अघायति शृणुष्व सुश्रवस्तमः । रिष्टं न यामन्नप भूतु दुर्मतिर्विश्वाप भूतु दुर्मतिः ॥७॥ हे अति विख्यात वीर इन्द्रदेव! आप हमारे संरक्षण के लिए हमें पीड़ित करने वाले दुष्टों को वज्रास्त्र से मार डालें। हे इन्द्रदेव ! आप हमारे निवेदन पर ध्यान दें। दुर्बुद्धि से ग्रस्त शत्रु आपके वज्रास्त्र के प्रहार से, खण्डित वस्तु के समान हमारे मार्ग से हट जायें । समस्त दुर्बुद्धियों का संसार से नाश हो ॥७॥

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