Shree Rampurvatapiniyopnishd Chapter 1 (श्री रामपूर्वतापिनीयोपनिषद् प्रथम सर्ग)

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ श्री रामपूर्वतापिनीयोपनिषद् ॥ श्रीरामतापनीयार्थं भक्तध्येयकलेवरम् । विकलेवरकैवल्यं श्रीरामब्रह्म मे गतिः ॥ श्रीरामतापिनीयोपनिषद् यर्थाथ में भक्तों के लिए ध्यान का विषय है (कारण श्रीराम तत्त्व का इसमें ज्ञान होता है) जो प्राकृत शरीर से रहित है, जो कैवल्य परमपद है, जो परमब्रह्म है। वही श्रीराम मेरे आश्रय हैं और मेरी गति हैं। ॥ हरिः ॐ ॥ ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्तुवासस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ गुरु के यहाँ अध्ययन करने वाले शिष्य अपने गुरु, सहपाठी तथा मानव मात्र का कल्याण-चिन्तन करते हुए देवताओं से प्रार्थना करते है कि: हे देवगण ! हम भगवान का आराधन करते हुए कानों से कल्याण मय वचन सुनें। नेत्रों से कल्याण ही देखें। सुदृढः अंगों एवं शरीर से भगवान की स्तुति करते हुए हम लोग; जो आयु आराध्य देव परमात्मा के काम आ सके, उसका उपभोग करें। स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्थ्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ जिनका सुयश सभी ओर फैला हुआ है, वह इन्द्रदेव हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें, सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान रखने वाले पूषा हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें, हमारे जीवन से अरिष्टों को मिटाने के लिए चक्र सदृश्य, शक्तिशाली गरुड़देव हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें तथा बुद्धि के स्वामी बृहस्पति भी हमारे लिए कल्याण की पुष्टि करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ श्री हरि ॥ ॥ श्रीरामरहस्योपनिषत् ॥ ॥ प्रथम सर्ग ॥ रामनाम के विविध अर्थ, उनका साकार रूप, मन्त्र एवं यन्त्र का महातम्य ॐ चिन्मयेऽस्मिन्महाविष्णौ जाते दशरथे हरौ । रघोः कुलेऽखिलं राति राजते यो महीस्थितः ॥ १॥ ॐ चिन्मय (शुद्ध ज्ञान) रूप महाविष्णु जब दशरथ के घर रघुकुल में अवतार लिये उस समय उनका नाम राम हुआ (इस नाम की उत्पत्ति इस प्रकार है- जो पृथ्वी पर स्थित होकर भक्तों के मनोरथ पूर्ण करते हैं और राजा के रूप में स्थित हैं- वे राम हैं। 'राति राजते योमहीस्थितः'- राति का पहला अक्षर 'रा' एवं महिस्थित का पहला अक्षर 'म' से राम बना है।) ॥१॥ स राम इति लोकेषु विद्वद्भिः प्रकटीकृतः । राक्षसा येन मरणं यान्ति स्वोद्रेकतोऽथवा ॥ २॥ विद्वानों ने यह प्रकट किया है कि वो ही राम हैं (चाहे उस शब्द की उत्पत्ति का कोई भी कारण हो) जिनके द्वारा राक्षस मारे गये। ('राक्षस येन मरणं' के राक्षस शब्द के पहले अक्षर 'रा' तथा मरणं शब्द के पहले अक्षर 'म' को जोड़ने पर 'राम' बना।) (२) रामनाम भुवि ख्यातमभिरामेण वा पुनः । राक्षसान्मर्त्यरूपेण राहुर्मनसिजं यथा ॥ ३॥ प्रभाहीनांस्तथा कृत्वा राज्यार्हाणां महीभृताम् । धर्ममार्ग चरित्रेण ज्ञानमार्गं च नामतः ॥ ४॥ वे सबके मन को अभिराम (प्रसन्नता, हष) देने वाले, सुन्दर शरीर वाले होने से पृथ्वी पर 'राम' कहलाये। अथवा जो मनुष्य रूप होकर भी राक्षसों को उसी प्रकार मलीन कर देते हैं जैसे राहु चन्द्रमा को, वो 'राम' कहलाये। अथवा जो अपने आदर्श चरित्र के उदाहरण से राजा लोगों को सत्यपथ (धर्मपथ) पर चलने की शिक्षा देते हैं, नाम जप करने पर ज्ञान मार्ग की प्राप्ति कराते हैं। ॥३-४॥ तथा ध्यानेन वैराग्यमैश्वर्यं स्वस्य पूजनात् । तथा रात्यस्य रामाख्या भुवि स्यादथ तत्त्वतः ॥ ५॥ अपना ध्यान करने पर भक्तों को वैराग्य देते हैं, अपने विग्रह की पूजा करने पर ऐश्वर्य देते हैं। उनका नाम पृथ्वी पर 'राम' नाम में विख्यात है। यह यथार्थ है। ॥५॥ रमन्ते योगिनोऽनन्ते नित्यानन्दे चिदात्मनि । इति रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते ॥ ६॥ योगीजन जिन नित्यानन्द, चिदात्मा परमात्मा में रमण करते हैं, वे ही राम पद से जाने जाते हैं। वे जो. परम पद हैं, ब्रह्म की प्रार्थना से अवतार धारण किये इसलिए 'अवतारी राम' एवं 'परमब्रह्म एक ही है। ॥६॥ चिन्मयस्याद्वितीयस्य निष्कलस्याशरीरिणः । उपासकानां कार्यार्थं ब्रह्मणो रूपकल्पना ॥ ७॥ ब्रह्म चिन्मय, अद्वितीय, निष्कलंक, पञ्च भौतिक शरीर से रहित है। वो ही ब्रह्म अपनी उपासना करने वाले भक्तों के लिए कल्पितरूप धारण कर मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं। ॥७॥ रूपस्थानां देवतानां पुंस्त्र्यङ्गास्त्रादिकल्पना । द्वित्तत्वारिषडष्टानां दश द्वादश षोडश ॥ ८॥ अष्टादशामी कथिता हस्ताः श‌ङ्खादिभिर्युताः । सहस्रान्तास्तथा तासां वर्णवाहनकल्पना ॥ ९॥ जो परमात्मा राम के रूप में देह धारण किये हैं उन्हीं की पुरूष, स्त्री, अंग और अस्त्र आदि के रूप में कल्पना की जाती है। जितने देवता हैं वे सब उस परमात्मा में स्थित हैं (अथवा वो परमात्मा के ही भिन्न रूप हैं) अतः वे भिन्न-भिन्न शस्त्र वगैरह का रूप धारण कर उनकी सेवा करते हैं पर उनसे (राम से) भिन्न / पृथक नहीं है। परमात्मा ब्रह्म जो रूप धारण करते हैं उनमें किसी में दो, किसी में चार, आठ, दस, बारह, सोलह, अट्ठारह इतने हाथ कहे गये हैं। उनके हाथों में शंख आदि सुशोभित हैं। जब वे विराट पुरूष (विश्व रूप) धारण करते हैं तो उनके सहस्रों हाथ हो जाते हैं। उन भिन्न रूपों के भिन्न-भिन्न रंग एवं वाहन आदि की कल्पना की गयी है। ॥८-९॥ शक्तिसेनाकल्पना च ब्रह्मण्येवं हि पञ्चधा । कल्पितस्य शरीरस्य तस्य सेनादिकल्पना ॥ १०॥ उन परम ब्रह्म के लिए नाना प्रकार की शक्तियाँ एवं सेना आदि की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। इस प्रकार उस निर्विकल्प परब्रह्म में पंच विधि शरीर की (जैसे विष्णु, शिव, ब्रह्मा, दुर्गा, गणेश, सूर्य आदि) मात्र कल्पना ही है। फिर उनके लिए सेना इत्यादि की कल्पना होती है। ॥१०॥ ब्रह्मादीनां वाचकोऽयं मन्त्रोऽन्वर्थादिसंज्ञकः । जप्तव्यो मन्त्रिणा नैवं विना देवः प्रसीदति ॥ ११॥ अतः, ब्रह्म से लेकर सृष्टि के अंत तक जितने जड़ चेतन हैं उनका सबका वाचक 'राम' शब्द (मन्त्र) हैं। जैसा इसका अर्थ है वैसा प्रभाव भी है। अतः इस राम मन्त्र को सर्वोपरि जान, इसकी दीक्षा ले इसका जाप करना चाहिए। इसके बिना परम ब्रह्म की प्रसन्नता नहीं हो सकती। चूंकि यह सभी देवताओं का वाचक है, अतः मात्र इसके जप करने से सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं। ॥११॥ क्रियाकर्मेज्यकर्तृणामर्थ मन्त्रो वदत्यथ । मननान्त्राणनान्मन्त्रः सर्ववाच्यस्य वाचकः ॥ १२॥ साधक जो क्रिया, कर्म इत्यादि करता है उसका अर्थ (अभिष्ट प्रयोजन) एवं स्वरूप मन्त्र बतला देता है, निश्चित कर देता है। जिसका मनन, चिंतन करने से रक्षा हो वह मंत्र कहलाता है। यह मंत्र राम सभी वाच्यों (अर्थ, अभिप्राय, कथनीय) का भी वाचक है। ॥१२॥ सोऽभयस्यास्य देवस्य विग्रहो यन्त्रकल्पना । विना यन्त्रेण चेत्पूजा देवता न प्रसीदति ॥ १३॥ जो ब्रह्म उभय रूप में विराजमान है- निर्गुण एवं शरीरधारी राम के रूप में उनका दोनों का वाचक राम मन्त्र है और जैसे सगुण भगवान की पूजा उनके विग्रह के माध्यम से होती है उसी प्रकार निर्गुण भगवान की पूजा मन्त्र-यन्त्र से होती है। बिना यन्त्र की पूजा से वह चैतन्य प्रभु प्रसन्न नहीं होते ॥१२॥ ॥ इति रामपूर्वतापिनीयोपनिषद् प्रथम सर्ग ॥ ॥ १॥ श्रीरामपूर्वतापिनीयोपनिषद् का प्रथम सर्ग समाप्त हुआ।

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