ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त ३

ऋग्वेद-द्वितीय मंडल सूक्त ३ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः । देवता- आप्रीसूक्तं । छंद- त्रिष्टुप, ७ जगती समिद्धो अग्निर्निहितः पृथिव्यां प्रत्य‌विश्वानि भुवनान्यस्थात् । होता पावकः प्रदिवः सुमेधा देवो देवान्यजत्वग्निरर्हन् ॥१॥ प्रदीप्त अग्निदेव पृथ्वी पर स्थापित होकर समस्त लोकों में व्याप्त हैं । श्रेष्ठ बुद्धिवाले, पवित्र बनाने वाले, हविष्यान्न ग्रहण करने वाले तथा अत्यन्त तेजस्वी एवं पूज्य अग्निदेव देवों की पूजा करें ॥१॥ नराशंसः प्रति धामान्यज्ञ्जन्तिस्रो दिवः प्रति मह्ना स्वर्चिः । घृतप्रुषा मनसा हव्यमुन्दन्मूर्धन्यज्ञस्य समनक्तु देवान् ॥२॥ सबके द्वारा स्तुत्य ये अग्निदेव, पृथिवी, अन्तरिक्ष और आकाश तीनों लोकों को अपने महान् सामर्थ्य से प्रकाशित करते हुए, स्नेहयुक्त मन से हविष्यान्न को ग्रहण करते हुए यज्ञ स्थल में अपने दिव्य-प्रभाव को प्रकट करते हैं॥२॥ ईळितो अग्ने मनसा नो अर्हन्देवान्यक्षि मानुषात्पूर्वो अद्य । स आ वह मरुतां शर्धी अच्युतमिन्द्रं नरो बर्हिषदं यजध्वम् ॥३॥ हे पूज्य अग्निदेव ! हमारे हित साधन के लिए, हमारे पूजन को स्वीकार कर मनुष्यों से पूर्व ही आप श्रेष्ठ मन से देवों की पूजा करें। हे अग्निदेव ! सामर्थ्यवान् मरुतु देव तथा कभी भी परास्त न होने वाले इन्द्रदेव को हमारे पास लाये। हे मनुष्यो! यज्ञ स्थल में स्थापित अग्निदेव की उपासना करो ॥३॥ देव बर्हिर्वर्धमानं सुवीरं स्तीर्णं राये सुभरं वेद्यस्याम् । घृतेनाक्तं वसवः सीदतेदं विश्वे देवा आदित्या यज्ञियासः ॥४॥ हे कुशाओं में स्थित अग्निदेव! यज्ञ कुण्ड में बढ़ते हुए आप हमें वीर सन्तति तथा श्रेष्ठ धन प्रदान करें। हे वसुओ, आदित्यो तथा विश्वे-देवो ! घृत से सिंचित एवं फैलाए गये कुश पर आप स्थापित हों ॥४॥ि वि श्रयन्तामुर्विया हूयमाना द्वारो देवीः सुप्रायणा नमोभिः । व्यचस्वतीर्वि प्रथन्तामजुर्या वर्णं पुनाना यशसं सुवीरम् ॥५॥ नमस्कार पूर्वक आवाहित होने वाला, विस्तृत तथा सुखकर यह जो दिव्य द्वार (यज्ञाग्नि) है, मानव इसका सहारा ले (देवों के साथ आदान- प्रदान हेतु इसका उपयोग करें) और (देवों से सम्पर्क जोड़ने वाला- जीर्ण न होने वाला यह दिव्य द्वार श्रेष्ठ संतति एवं सुयश प्रदान करते हुए सतत विकासशील रहे ५॥ साध्वपांसि सनता न उक्षिते उषासानक्ता वय्येव रण्विते । तन्तुं ततं संवयन्ती समीची यज्ञस्य पेशः सुदुघे पयस्वती ॥६॥ यज्ञ के स्वरूप को सुन्दरता प्रदान करने वाली उषा और नक्ता देवियाँ वरणी (वस्त्र बुनने वाली) के समान शब्दायमान हो, हमारे उत्तम कर्मों को प्रेरणा देती हुई पूजित होती हैं। ये देवियाँ (काल विभाग रूपों) फैले धागों को बुनती हुई (मनुष्य के जीवन-रूपी वस्त्र को) उत्तम प्रकार से गति करने योग्य बनाकर सभी प्रकार की कामनाओं को पूरा करते हुए अन्न और दुग्धादि से पूर्ण बनाती हैं॥६॥ दैव्या होतारा प्रथमा विदुष्टर ऋजु यक्षतः समृचा वपुष्टरा । देवान्यजन्तावृतुथा समज्ञ्जतो नाभा पृथिव्या अधि सानुषु त्रिषु ॥७॥ दोनों दिव्य होता अग्रणी, विद्वान् तथा रूपवान हैं। वे चाओं के माध्यम से सरलता पूर्वक देव यज्ञ सम्पन्न करते हैं। पृथ्वी की नाभि (यज्ञकुण्ड) में वे तीनों सवनों में भली प्रकार संयुक्त होते हैं॥७॥ सरस्वती साधयन्ती धियं न इळा देवी भारती विश्वतूर्तिः । तिस्रो देवीः स्वधया बर्हिरदमच्छिद्रं पान्तु शरणं निषद्य ॥८॥ अनेक श्रेष्ठ गुणों से युक्त देवी इळा, देवी भारती तथा देवी सरस्वती ये तीनों देवियाँ हमारे इस यज्ञ स्थल पर विद्यमान रहकर अपनी धारणा शक्ति के द्वारा हमारे इस यज्ञ का संरक्षण करें ॥८ ॥ पिशङ्गरूपः सुभरो वयोधाः श्रुष्टी वीरो जायते देवकामः । प्रजां त्वष्टा वि ष्यतु नाभिमस्मे अथा देवानामप्येतु पाथः ॥९॥ अग्निरूप त्वष्टा देव हमें श्रेष्ठ सन्तान प्रदान करें। वह पुत्र सुवर्ण जैसी कान्तिवाला, उत्तम हृष्ट-पुष्ट, अन्न तथा पराक्रम को धारण करने वाला, दीर्घायु, वीर, श्रेष्ठ बुद्धिमान्, उत्तम गुणों की कामना करने वाला तथा देवों द्वारा प्रदर्शित उत्तम मार्ग का अनुगामी हो ॥९॥ वनस्पतिरवसृजन्नुप स्थादग्निर्हविः सूदयाति प्र धीभिः । त्रिधा समक्तं नयतु प्रजानन्देवेभ्यो दैव्यः शमितोप हव्यम् ॥१०॥ वनस्पतियों से अपना प्रकाश फैलाते हुए अग्निदेव हमारे समीप स्थित हों। ये अग्निदेव अपनी शक्ति से हविष्यान्न का परिपाक करते हैं। दिव्य गुण सम्पन्न, शान्त स्वभाव वाले ये अग्निदेव तीन प्रकार से तैयार हविष्यान्न को देवों के पास पहुँचायें ॥१०॥ घृतं मिमिक्षे घृतमस्य योनिघृते श्रितो घृतम्वस्य धाम । अनुष्वधमा वह मादयस्व स्वाहाकृतं वृषभ वक्षि हव्यम् ॥११॥ इन अग्निदेव का मूल आश्रय स्थल (तेज) घी है, अतः इन्हें घृत से सिंचित करते हैं। हे बलशाली अग्निदेव ! स्नेह पूर्वक समर्पित की गई आहुतियों (हविष्यान्न) को सभी देवों तक पहुँचाकर उन्हें प्रसन्न करें ॥११॥

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