ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ३३

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त ३३ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - ऋभवः । छंद - त्रिष्टुप प्र ऋभुभ्यो दूतमिव वाचमिष्य उपस्तिरे श्वेतरीं धेनुमीळे । ये वातजूतास्तरणिभिरेवैः परि द्यां सद्यो अपसो बभूवुः ॥१॥ जो ऋभुगण वायु के सदृश वेग वाले और उपकारजनक कर्म करने वाले हैं, जो अपने चतुर अश्वों के द्वारा शीघ्र ही धुलोक को परिव्याप्त करते हैं, उन ऋभुओं के निमित्त हम यजमान सन्देशवाहक के सदृश प्रार्थनाओं को प्रेरित करते हैं। सोमरस को उत्कृष्ट बनाने के लिए हम उनसे दुधारू गौओं की याचना करते हैं ॥१॥ यदारमक्रन्नृभवः पितृभ्यां परिविष्टी वेषणा दंसनाभिः । आदिद्देवानामुप सख्यमायन्धीरासः पुष्टिमवहन्मनायै ॥२॥ जब ऋभुओं ने अपने माता-पिता की परिचर्या करके अपनी महानता का परिचय दिया तथा श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा स्वयं को बलशाली बनाया, तब उन्होंने इन्द्र आदि देवताओं की बन्धुता को प्राप्त किया। उसके बाद उन मेधावी ऋभुओं ने अपने मन को भी बलशाली बनाया ॥२॥ पुनर्ये चक्क्रुः पितरा युवाना सना यूपेव जरणा शयाना । ते वाजो विभ्वाँ ऋभुरिन्द्रवन्तो मधुप्सरसो नोऽवन्तु यज्ञम् ॥३॥ उन ऋभुओं ने यूप के सदृश जीर्ण होकर लेटे हुए अपने माता-पिता को सदैव के लिए युवा बना दिया। इन्द्रदेव की अनुकम्पा से युक्त होकर तथा मधुर सोमरस पान करके वाज, विभु तथा ऋभु हमारे यज्ञ की सुरक्षा करें ॥३॥ यत्संवत्समृभवो गामरक्षन्यत्संवत्समृभवो मा अपिंशन् । यत्संवत्समभरन्भासो अस्यास्ताभिः शमीभिरमृतत्वमाशुः ॥४॥ उन ऋभुओं ने एक वर्ष पर्यन्त मरणासन्न गाय का पालन किया । उन्होंने एक वर्ष पर्यन्त उसे अवयवों से युक्त किया तथा उसे सौन्दर्य प्रदान किया। एक वर्ष पर्यन्त उन्होंने उसमें तेज स्थापित किया। इन सम्पूर्ण कार्यों के द्वारा उन्होंने अमरत्व को प्राप्त किया ॥४॥ ज्येष्ठ आह चमसा द्वा करेति कनीयान्त्रीन्कृणवामेत्याह । कनिष्ठ आह चतुरस्करेति त्वष्ट ऋभवस्तत्पनयद्वचो वः ॥५॥ ज्येष्ठ ऋभु ने कहा-हम एक चमस को दो भागों में करेंगे, उससे भी छोटे ऋभु ने कहा-हम चार भाग करेंगे। हे ऋभुगण ! त्वष्टा देवता ने आपके इन वचनों की प्रशंसा की ॥५॥ सत्यमूचुर्नर एवा हि चक्रुरनु स्वधामृभवो जग्मुरेताम् । विभ्राजमानाँश्चमसाँ अहेवावेनत्त्वष्टा चतुरो ददृश्वान् ॥६॥ मनुष्य रूपी ऋभुओं ने सच ही कहा था, क्योंकि उन्होंने जो कहा, वहीं किया था। उसके बाद ऋभुओं ने हव्य को ग्रहण किया। दिन की तरह तेजोयुक्त चार चमसों को त्वष्टादेव ने देखा और उन्हें प्रसन्नतापूर्वक स्वीकारा ॥६॥ द्वादश यून्यदगोह्यस्यातिथ्ये रणन्नृभवः ससन्तः । सुक्षेत्राकृण्वन्ननयन्त सिन्धून्धन्वातिष्ठन्नोषधीर्निम्नमापः ॥७॥ जब ऋभुगणों ने छु (आकाश) के बारह प्रभागों (आर्द्रा आदि वर्षा कारक१२नक्षत्रों) में सुखपूर्वक निवास किया, तब उन्होंने खेतों को श्रेष्ठ बनाया और सरिताओं को प्रेरित किया। जलरहित स्थानों में ओषधियों को उत्पन्न किया तथा जलों को नीचे की तरफ प्रवाहित किया ॥७॥ रथं ये चक्क्रुः सुवृतं नरेष्ठां ये धेनुं विश्वजुवं विश्वरूपाम् । त आ तक्षन्त्वृभवो रयिं नः स्ववसः स्वपसः सुहस्ताः ॥८॥ जिन ऋभुओं ने भली-भाँति बँधे हुए तथा मनुष्यों के आरूढ़ होने योग्य रथ का निर्माण किया। जिन्होंने समस्त जगत् को प्रेरित करने वाली तथा अनेकों रूपों वाली गाय को उत्पन्न किया; वे सत्कर्म करने वाले, अन्नों वाले तथा श्रेष्ठ हाथ वाले ऋभुगण हमें धन प्रदान करें ॥८ ॥ अपो ह्येषामजुषन्त देवा अभि क्रत्वा मनसा दीध्यानाः । वाजो देवानामभवत्सुकर्मेन्द्रस्य ऋभुक्षा वरुणस्य विभ्वा ॥९॥ देवताओं ने इन ऋभुओं के रथ निर्माण आदि कर्मों को वरदान के रूप में प्रसन्न हृदय से स्वीकारा। श्रेष्ठ कर्म करने वाले वाज देवताओं के प्रिय पात्र, बड़े ऋभु इन्द्रदेव के प्रियपात्र तथा विभु वरुणदेव के प्रियपात्र बने ॥९॥ ये हरी मेधयोक्था मदन्त इन्द्राय चक्रुः सुयुजा ये अश्वा । ते रायस्पोषं द्रविणान्यस्मे धत्त ऋभवः क्षेमयन्तो न मित्रम् ॥१०॥ जिन ऋभुओं ने उक्थों (स्तोत्रों) से हर्षित होकर अपनी प्रज्ञा के द्वारा दो अश्वों को बलिष्ठ किया था तथा जिन्होंने इन्द्रदेव के लिए सरलता से रथ में नियोजित होने वाले दो अश्वों को तैयार किया था, मित्र के सदृश वे ऋभुगण कल्याण की कामना करने वाले हम मनुष्यों को ऐश्वर्य पुष्टि तथा गौ आदि धन प्रदान करें ॥१०॥ इदाह्नः पीतिमुत वो मदं धुर्न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः । ते नूनमस्मे ऋभवो वसूनि तृतीये अस्मिन्त्सवने दधात ॥११॥ हे ऋभुओ ! देवताओं ने आपको तीसरे सवन में सोमरस तथा हर्ष प्रदान किया था। तप किये बिना देवतागण मित्रता नहीं करते। हे ऋभुगण ! हम मनुष्यों को आप इस तीसरे सदन में निश्चित रूप से ऐश्वर्य प्रदान करें ॥११॥

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