Tripadvibhutipaha Narayana Upanishad Chapter 8 (त्रिपाद्विभूतिपहानारायणोपनिषत) आठवां अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ॥ ॥ अष्टमोऽध्यायः ॥ ॥ आठवां अध्याय ॥ ततः पितामहः परिपृच्छति भगवन्तं महाविष्णुं भगवञ्छुद्धाद्वैतपरमानन्दलक्षणपरब्रह्मणस्तव कथं विरुद्धवैकुण्ठप्रासादप्राकारविमानाद्यनन्तवस्तुभेदः । तब पितामह ब्रह्माजी भगवान् महाविष्णु से पूछते हैं-भगवन् ! शुद्ध अद्वैत परमानन्दस्वरूप आप ब्रह्म के (स्वरूप के) विरुद्ध यह पूर्ववर्णित वैकुण्ठ, भवन, प्राचीरें, विमान प्रभृति अनन्त वस्तुरूप भेद कैसे हैं? ॥ १॥ सत्यमेवोक्तमिति भगवान्महाविष्णुः परिहरति । यथा शुद्धसुवर्णस्य कटकमुकुटाङ्गदादिभेदः । यथा समुद्रसलिलस्य स्थूलसूक्ष्मतरङ्ग फेनबुद्बु अदकरलवण- पाषाणाद्यनन्तवस्तुभेदः । यथा भूमेः पर्वतवृक्ष- तृणगुल्मलताद्यनन्तवस्तुभेदः । तथैवाद्वैतपरमानन्द- लक्षणपरब्रह्मणो मम सवद्वैितमुपपन्नं भवत्येव । मत्स्वरूपमेव सर्वं मध्यतिरिक्तमणुमात्रं न विद्यते । 'तुमने ठीक ही कहा' यह कहकर भगवान् महाविष्णु शंका का निवारण करते हैं-'जैसे शुद्ध स्वर्ण के कड़े, मुकुट, बाजूबंद आदि भेद होते हैं, जैसे ये आकार-भेद स्वर्ण की एकता के बाधक नहीं, जैसे समुद्रीय जल के बड़ी-छोटी तरंगे, फेन, बुलबुले, ओले, नमक, बर्फ आदि अनन्त वस्तुरूप भेद हैं जैसे ये भेद जल के एकत्वमें बाधक नहीं, जैसे भूमि के पर्वत, वृक्ष, तिनके, झाड़ियाँ, लता आदि अनन्त वस्तुभेद हैं, जैसे ये भेद भूमि के एकत्व के विरोधी नहीं, वैसे ही अद्वैत परमानन्दस्वरूप मुझ परम ब्रह्म का सब कुछ अद्वैतरूप सिद्ध ही है। सब प्रतीयमान लौकिक-पारलौकिक भेद मेरे स्वरूप ही हैं। मेरे अतिरिक्त एक अणु भी विद्यमान नहीं, मुझसे भिन्न तुच्छतम भी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है ॥२॥ पुनः पितामहः परिपृच्छति । भगवन् परमवैकुण्ठ एव परममोक्षः । परममोक्षस्त्वेक एव श्रूयते सर्वत्र । कथमनन्तवैकुण्ठाश्चानन्तानन्दसमुद्रादयश्चानन्त- मूर्तयः सन्तीति । पितामह ब्रह्मा फिर पूछते हैं-'भगवन् ! परम वैकुण्ठ ही परम मोक्ष (धाम) है। सर्वत्र (सभी शास्त्रों में) परम मोक्ष एक ही सुनायी पड़ता (वर्णित) है। फिर अनन्त वैकुण्ठ तथा अनन्त आनन्द-समुद्रादि अनन्त मूर्तियाँ किस प्रकार हैं?' ॥ ३॥ तथेति होवाच भगवान्महाविष्णुः । एकस्मिन्नविद्यापादेऽनन्तकोटिब्रह्माण्डानि सावरणानि श्रूयन्ते । तस्मिन्नेकस्मिन्नण्डे बहवो लोकाश्च बहवो वैकुण्ठाश्चानन्त- विभूतयश्च सन्त्येव । सर्वाण्डेष्वानन्तलोकाश्चानन्त- वैकुण्ठाः सन्तीति सर्वेषां खल्वभिमतम् । पादत्रयेऽपि किं वक्तव्यं निरतिशयानन्दाविर्भावो मोक्ष इति मोक्षलक्षणं पादत्रये वर्तते । तस्मात्पादत्रयं परममोक्षः । पादत्रयं परमवैकुण्ठः । पादत्रयं परमकैवल्यमिति । ततः शुद्धचिदानन्दब्रह्मविलासानन्दाश्चानन्तपरमानन्द- विभूतयश्चानन्तवैकुण्ठाश्चानन्तपरमानन्दसमुद्रादयः सन्त्येव । यह ठीक ही है' कहकर भगवान् महाविष्णु बोले-'एक ही अविद्यापाद में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड अपने आवरणों के साथ सुने जाते हैं। जैसे अनन्त ब्रह्माण्डभेद होने से अविद्या की एकता में बाधा नहीं आती, वैसे ही एक ही अण्ड ब्रह्माण्ड में बहुत से लोक, बहुत-से वैकुण्ठ और अनन्त विभूतियाँ भी हैं ही। सभी ब्रह्माण्डों में अनन्त लोक हैं और अनन्त वैकुण्ठ हैं, यह सभी शास्त्रों को निश्चितरूप से मान्य है। जब एक अविद्यापाद की यह स्थिति है तो पादत्रय के सम्बन्ध में भी यही बात है, उसमें कहना क्या है। निरतिशय आनन्दका आविर्भाव मोक्ष है, यह मोक्ष का लक्षण तीनों पादों में है; इसलिये तीनों पाद परम मोक्षधाम हैं। तीनों पाद परम वैकुण्ठ हैं। तीनों पाद परम कैवल्य धाम हैं। वहाँ शुद्ध चिदानन्द ब्रह्म के विलासरूप आनन्द, अनन्त परमानन्दमय ऐश्वर्य, अनन्त वैकुण्ठ और अनन्त परमानन्द-समुद्रादि हैं ही ॥४॥ उपासकस्ततोऽभ्येत्यैवंविधं नारायणं ध्यात्वा प्रदक्षिणनमस्कारान्विधाय विविधोपचारैरभ्यर्च्य निरतिशयाद्वैतपरमानन्दलक्षणो भूत्वा तदग्रे सावधानेनो- पविश्याद्वैतयोगमास्थाय सवद्वैितपरमानन्दलक्षणा- खण्डामिततेजोराश्याकारं विभाव्योपासकः स्वयं शुद्ध- बोधानन्दमयामृतनिरतिशयानन्दतेजोराश्याकारो भूत्वा महावाक्यार्थमनुस्मरन् ब्रह्माहमस्मि अहमस्मि ब्रह्माहमस्मि योऽहमस्मि ब्रह्माहमस्मि अहमेवाहं मां जुहोमि स्वाहा । अहं ब्रह्मेति भावनया यथा परमतेजोमहानदी- प् रवाहपरमतेजःपारावाए प्रविशति । यथा परमतेजः पारावार- तरङ्गाः परमतेजःपारावारे प्रविशन्ति । तथैव सच्चिदान- न्दात्मोपासकः सर्वपरिपूर्णाद्वैतपरमानन्दलक्षणे परब्रह्मणि नारायणे मयि सच्चिदात्मकोऽहमजोऽहं परिपूर्णोऽ हमस्मीति प्रविवेश । तत उपासको निस्तरङ्गाद्वैतापारनिरतिशयसच्चिदानन्द समुद्रो बभूव । "उपासक वहाँ सातवें अध्यायमें वर्णित श्रीनारायण के समीप पहुँच कर इस प्रकार के जैसा स्वरूप उनका वर्णित है नारायण का ध्यान करके, उनकी प्रदक्षिणा तथा उन्हें नमस्कार करता है तथा अनेक प्रकारके उपचारों से उनकी अर्चना करके निरतिशय अद्वैत परमानन्दस्वरूप हो जाता है। उनके आगे सावधानी से बैठकर अद्वैतयोग का आश्रय लेता है और सर्वाद्वैत परमानन्दस्वरूप अखण्ड अमित तेजोराशिस्वरूपकी विशेष रूपसे सम्यक् भावना करके उपासक स्वयं शुद्ध बोधानन्दमय अमृतस्वरूप एवं निरतिशय आनन्दमय तेजोराशिस्वरूप हो जाता है। तब महावाक्यों के अर्थ का बार-बार स्मरण करता हुआ-'ब्रह्म मैं हूँ, मैं ही हूँ, ब्रह्म मैं हूँ, जो भी मैं हूँ, ब्रह्म ही मैं हूँ, मैं ही मैं हूँ, मैं अहंता भेद-प्रतीति-का हवन करता हूँ-स्वाहा वह भस्म हो जाय, मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रकार की भावना द्वारा, जैसे परम तेजोरूप महानदी का प्रवाह परम तेजो रूप समुद्र में प्रवेश कर जाय, जैसे परम तेजोमय समुद्र की तरङ्गे उस परम तेजोमय समुद्र में प्रवेश कर जायँ, उसी प्रकार सच्चिदानन्दस्वरूप उपासक सर्वरूप से परिपूर्ण, अद्वैत परमानन्दस्वरूप परब्रह्म मुझे, नारायणमें 'मैं सच्चिदानन्दस्वरूप हूँ, मैं अजन्मा हूँ, मैं परिपूर्ण हूँ' इस प्रकार स्वरूपभूत होकर प्रविष्ट हो जाता है। तब उपासक तरंग हीन, अद्वैत, अपार, निरतिशय सच्चिदानन्द-समुद्र हो जाता है ॥५॥ यस्त्वनेन मार्गेण सम्यगाचरति स नारायणो भवत्यसंशयमेव । अनेन मार्गेण सर्वे मुनयः सिद्धिं गताः । असंख्याताः परमयोगिनश्च सिद्धिं गताः । 'जो इस उपदिष्ट मार्ग के द्वारा भलीभाँति आचरण (उपासना) करता है, वह निश्चय ही नारायण हो जाता है। सभी मुनिगण इसी मार्गसे सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। असंख्यों परम योगी इसी मार्ग से सिद्धि को, परम गति को पहुँचे हैं' ॥ ६ ॥ ततः शिष्यो गुरुं परिपृच्छति । भगवन्त्सालम्ब- निरालम्बयोगौ कथमिति ब्रूहीति । तब उपर्युक्त उपदेश के अनन्तर शिष्य गुरुसे पूछता है-भगवन् ! सालम्ब एवं निरालम्बयोग किस प्रकार के हैं ॥ ७ ॥ सालम्बस्तु समस्तकर्मातिदूरतया करचरणादिमूर्तिविशिष्टं मण्डलाद्यालम्बनं सालम्बयोगः । निरालम्बस्तु समस्तनामरूपकर्मातिदूरतया सर्वकामाद्यन्तःकरणवृत्तिसाक्षितया तदालम्बनशून्यतया च भावनं निरालम्बयोगः । गुरुदेव बतलाते हैं- सालम्बयोग वह है, जिसमें सब प्रकार के कर्मों से दूर रहकर कर-चरण आदि अंगों वाली मूर्तिविशेष अथवा मण्डल ज्योति आदि का ध्यान-उपासनादि के लिये आलम्बन किया जाय; यही सालम्बयोग है। निरालम्बयोग वह है, जिसमें समस्त नाम, रूप, कर्म को अत्यन्त दूर से छोड़कर, समस्त कामनादि अन्तःकरण की वृत्तियों के साक्षीरूप से, उस अन्तःकरण को किसी भी वृत्ति के आलम्बन से शून्य रहकर भावना की जाय। यही भावनाहीन स्थिति में स्थित होना ही निरालम्बयोग है' ॥ ८ ॥ अथ च निरालम्बयोगाधिकारी कीदृशो भवति । 'तब तो जब निरालम्बयोग इतना दुरूह है, निरालम्बयोग का अधिकारी किस प्रकार का होता है?' ॥९॥ अमानित्वादिलक्षणोपलक्षितो वः पुरुषः स एव निरालम्बयोगाधिकारी कार्यः कश्चिदस्ति । तस्मात्सर्वेषा- मधिकारिणामनधिकारिणां भक्तियोग एव प्रशस्यते । भक्तियोगो निरुपद्रवः । भक्तियोगान्मुक्तिः । बुद्धिमतामनायासेनाचिरादेव तत्त्वज्ञानं भवति । 'जो पुरुष अमानित्व आदि (ज्ञान के) लक्षणों से युक्त हो, उसीको निरालम्बयोग का अधिकारी मानना चाहिये। ऐसा अधिकारी कोई विरला ही है। इसलिये सभी अधिकारी-अनधिकारियों के लिये भक्तियोग ही श्रेष्ठ कहा जाता है। भक्तियोग विघ्न रहित है। भक्तियोग से मुक्ति प्राप्त होती है। भक्तों को बिना परिश्रम के अविलम्ब ही तत्त्वज्ञान हो जाता है ॥ १०-११॥ तत्कथमिति । भक्तवत्सलः स्वयमेव सर्वेभ्यो मोक्षविघ्नेभ्यो भक्तिनिष्ठान्सर्वान्परिपालयति । सर्वाभीष्टा- न्प्रयच्छति । मोक्षं दापयति । चतुर्मुखादीनां सर्वेषामपि विना विष्णुभक्त्या कल्पकोटिभिर्मोक्षो न विद्यते । कारणेन विना कार्यं नोदेति । भक्त्या विना ब्रह्मज्ञानं कदापि न जायते । तस्मात्त्वमपि सर्वोपायान्परित्यज्य भक्तिमाश्रय । भक्तिनिष्ठो भव । भक्तिनिष्ठो भव । भक्त्या सर्वसिद्धयः सिध्यन्ति । भक्त्याऽसाध्यं न किंचिदस्ति । 'वह अनायास अविलम्ब तत्त्वज्ञान कैसे होता है?' इस शंका के उत्तर में बतलाते हैं-'भक्तवत्सल भगवान् स्वयं ही मोक्ष के सभी विघ्नों से सभी भक्तिनिष्ठ लोगों भक्तों की रक्षा करते हैं। उनके समस्त अभीष्ट प्रदान करते हैं। मोक्ष दिलवाते हैं। भक्त स्वतः मोक्ष नहीं चाहता। भगवान् उसे अपनी ओर से मोक्ष प्रदान करते हैं, इसी से दिलवाते हैं-बरबस देते हैं, यह कहा गया। विष्णु-भक्ति के बिना ब्रह्मादि समस्त देवताओं का भी करोड़ों कल्पों में भी मोक्ष नहीं होता। क्योंकि कारण के बिना कार्य प्रकट नहीं होता, अतः भक्ति जो कारण है, उस के बिना कार्य ब्रह्मज्ञान कभी उत्पन्न नहीं होता। इसलिये तुम भी समस्त उपायों को छोड़कर भक्ति का आश्रय लो। भक्तिनिष्ठ बनो। भक्तिनिष्ठ बनो। भक्तिके द्वारा सभी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। भक्तिके द्वारा कुछ भी असाध्य नहीं है' ॥ १२ ॥ एवंविधं गुरूपदेशमाकर्ण्य सर्वं परमतत्त्वरहस्यमवबुध्य सर्वसंशयान्विधूय क्षि षिप्रमेव मोक्षं साधयामीति निश्चित्य ततः शिष्यः समुत्थाय प्रदक्षिणनमस्कारं कृत्वा गुरुभ्यो गुरुपूजां विधाय गुर्वनुज्ञया क्रमेण भक्तिनिष्ठो भूत्वा भक्त्यतिशयेन पक्कं विज्ञानं प्राप्य तस्मादनायासेन शिष्यः क्षिप्रमेव साक्षान्नारायणो बभूवेत्युपनिषत् ॥ "इस प्रकार गुरु के उपदेश को सुनकर, परम तत्त्व के सभी रहस्यों को जानकर, सम्पूर्ण संशयों को दूर करके 'शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लूंगा' ऐसा निश्चय करके, तब शिष्य उठा। उठकर गुरु की प्रदक्षिणा एवं उन्हें नमस्कार करके, गुरु की पूजा करके, गुरु की ही आज्ञासे उसने क्रमशः भक्तिनिष्ठ होकर परिपक्व भक्ति के आधिक्य से परिपक्व विज्ञान प्राप्त किया। उस परिपक्व विज्ञान से बिना परिश्रमके ही शिष्य शीघ्र ही साक्षात् नारायणस्वरूप हो गया" ॥ १३ ॥ ततः प्रोवाचत् भगवान् महाविष्णुश्चतुर्मुखमवलोक्य ब्रह्मन् परमतत्त्वरहस्यं ते सर्वं कथितम् । तत्स्मरण- मात्रेण मोक्षो भवति । तदनुष्ठानेन सर्वमविदितं विदितं भवति । यत्स्वरूपज्ञानिनः सर्वमविदितं विदितं भवति । तत्सर्वं परमरहस्यं कथितम् । यह आख्यान सुनाकर तब भगवान् महाविष्णु चतुर्मुख ब्रह्माजी की ओर देखकर बोले-'ब्रह्माजी! मैंने आपसे परम तत्त्व का समस्त रहस्य कह दिया। उसके स्मरणमात्र से मोक्ष हो जाता है। उसके अनुष्ठान से सम्पूर्ण अज्ञात ज्ञात हो जाता है। जिसके स्वरूप को जान लेनेसे अज्ञात भी ज्ञात हो जाता है, वह सम्पूर्ण परमतत्त्व-रहस्य मैंने बतला दिया' ॥ १४॥ गुरुः क इति । गुरुः साक्षादादिनारायणः पुरुषः । स आदिनारायणोऽहमेव । तस्मान्मामेकं शरणं व्रज । मद्भक्तिनिष्ठो भव । मदीयोपासनां कुरु । मामेव प्राप्स्यसि । मध्यतिरिक्तं सर्वं बाधितम् । मध्यतिरिक्तमबाधितं न किंचिदस्ति । निरतिशयानन्दाद्वितीयोऽहमेव । सर्वपरिपूर्णोऽहमेव। सर्वाश्रयोऽहमेव । वाचामगोचरनिराकारपरब्रह्मस्वरूपोऽहमेव । मद्यतिरिक्तमणुमात्रं न विद्यते । 'गुरु कौन है?' ब्रह्माजीके इस प्रश्न के उत्तरमें भगवान् बतलाते हैं- 'गुरु साक्षात् आदिनारायण पुरुष हैं। वह आदिनारायण मैं ही हूँ। इसलिये एकमात्र मेरी शरण में आओ। मेरी भक्ति में निष्ठावान् होओ। मेरी उपासना करो। इस प्रकार मुझे ही प्राप्त करोगे। मेरे अतिरिक्त सब कुछ बाधित अर्थात अतत्त्व है। मुझसे अतिरिक्त अबाधित सत्ता रखनेवाला कुछ भी नहीं है। अद्वितीय निरतिशय आनन्द मैं ही हूँ। सब प्रकार परिपूर्ण मैं ही हूँ, मैं ही सबका आश्रय हूँ। वाणी का अविषय निराकार परब्रह्मस्वरूप मैं ही हूँ। मुझसे भिन्न अणुमात्र भी नहीं है' ॥ १५ ॥ इत्येवं महाविष्णोः परमिममुपदेशं लब्ध्वा पितामहः परमानन्दं प्राप । विष्णोः कराभिमर्शनेन दिव्यज्ञानं प्राप्य पितामहस्ततः समुत्थाय प्रदक्षिणनमस्कारा- न्विधाय विविधोपचारैर्महाविष्णुं प् रपूज्य प्राज्ञ्जलिर्भूत्वा विनयेनोपसंगम्य भगवन् भक्तिनिष्ठां मे प्रयच्छ। त्वदभिन्नं मां परिपालय कृपालय । इस प्रकार भगवान् महाविष्णु के इस परम उपदेशका लाभ करके पितामह ब्रह्माजी ने परम आनन्द प्राप्त किया। तदनन्तर भगवान् विष्णु के कर-स्पर्श से दिव्यज्ञान प्राप्त करके पितामह उठे और उठकर उन्होंने प्रदक्षिणा तथा नमस्कार करके विविध उपचारों से भगवान् महाविष्णु की भलीभाँति पूजा की। फिर अञ्जलि बाँधकर, विनयपूर्वक समीप जाकर बोले- 'भगवन्! मुझे भक्तिनिष्ठा प्रदान करें ! हे कृपानिधे ! मैं आपसे अभिन्न हूँ, मेरा सब प्रकार पालन करें' ॥ १६-१७॥ तथैव साधुसाध्विति साधुप्रशंसापूर्वकं महाविष्णुः प्रोवाच । मदुपासकः सर्वोत्कृष्टः स भवति । मदुपासनया सर्वमङ्गलानि भवन्ति। मदुपासनया सर्वं जयति । मदुपासकः सर्ववन्द्यो भवति । मदीयोपासकस्यासाध्यं न किंचिदस्ति । सर्वे बन्धाः प्रविनश्यन्ति । सद्वृत्तमिव सर्वे देवास्तं सेवन्ते। महाश्रेयांसि च सेवन्ते । मदुपासकस्तस्मान्निरतिशयाद्वैतपरमानन्दलक्षणपरब्रह्म भवति । 'वही हो, साधु! साधु!' इस प्रकार ब्रह्माजी की भलीभाँति प्रशंसा करते हुए भगवान् महाविष्णु बोले मेरा उपासक सबसे उत्कृष्ट हो जाता है। मेरी उपासना से सब मङ्गल होते हैं। मेरी उपासना से वह सबको विजय कर लेता है। मेरा उपासक सबके द्वारा वन्दनीय होता है। मेरे उपासक के लिये असाध्य कुछ नहीं है। सम्पूर्ण बन्धन पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं। सदाचारी की जैसे सब लोग सेवा करते हैं, वैसे ही समस्त देवता उसकी सेवा करते हैं। महाश्रेय भी उसकी सेवा करते हैं। मेरा उपासक उस उपासना से निरतिशय अद्वैत परमानन्दस्वरूप परब्रह्म हो जाता है। जो भी मुमुक्षु इस मार्गसे सम्यक् आचरण करता है, वह परमानन्दस्वरूप परब्रह्म हो जाता है ॥ १८ ॥ यस्तु परमतत्त्व- रहस्याथर्वणमहानारायणोपनिषदमधीते सर्वेभ्यः पापेभ्यो मुक्तो भवति । ज्ञानाज्ञानकृतेभ्यः पातकेभ्यो मुक्तो भवति । महापातकेभ्यः पूतो भवति । रहस्यकृत- प्रकाशकृतचिरकालात्यन्तकृतेभ्यस्तेभ्यः सर्वेभ्यः पापेभ्यो मुक्तो भवति । स सकललोकाञ्जयति । स सकलमन्त्र- जपनिष्ठो भवति । स सकलवेदान्तरहस्याधिगतपरमार्थज्ञो भवति । स सकलभोगभुग्भवति । स सकलयोगविद्भवति । स सकलजगत्परिपालको भवति । सोऽद्वैतपरमानन्दलक्षणं परब्रह्म भवति । 'जो कोई इस परमतत्त्व-रहस्य आथर्वण महानारायणोपनिषद्‌का अध्ययन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। वह जान- बूझकर तथा अनजान में किये पापों से मुक्त हो जाता है। महापापों से पवित्र हो जाता है। छिपाकर किये गये, प्रकटरूप से किये गये, बहुत दिनों तक अधिक रूप में किये गये सभी पापों से मुक्त हो जाता है। वह सभी लोकों को जीत लेता है। उसकी सभी मन्त्रों के जपमें निष्ठा हो जाती है। वह समस्त वेदान्त के रहस्य को प्राप्त करके परमार्थ का ज्ञाता हो जाता है। वह सम्पूर्ण भोगों का भोक्ता हो जाता है। उसे सभी योगों का ज्ञान हो जाता है। वह समस्त जगत का परिपालक हो जाता है। वह अद्वैत-परमानन्दस्वरूप परब्रह्म हो जाता है॥ १९ ॥ इदं परमतत्त्वरहस्यं न वाच्यं गुरुभक्तिविहीनाय । न चाशुश्रूषवे वाच्यम् । न तपोविहीनाय नास्तिकाय । न दाम्भिकाय मद्भक्तिविहीनाय । मात्सर्याङ्किततनवे न वाच्यम् । न वाच्यं मदसूयापराय कृतघ्नाय । 'यह परमतत्त्व-रहस्य गुरुभक्ति विहीन को नहीं बतलाना चाहिये। जो सुनना न चाहता हो, उसे भी नहीं बतलाना चाहिये; न तपस्या विहीन नास्तिक को और न मेरी भगवान की भक्तिसे रहित दाम्भिक को बतलाना चाहिये। मत्सरयुक्त पुरुष को नहीं बतलाना चाहिये। मेरी निन्दा में लगे भगवान में दोषदृष्टि करनेवाले कृतघ्न को भी नहीं बतलाना चाहिये' ॥ २० ॥ इदं परमरहस्यं यो मद्भक्तेष्वभिधास्यति । मद्भक्तिनिष्ठो भूत्वा मामेव प्राप्स्यति । आवयोर्य इमं संवादमध्येष्यति । स नरो ब्रह्मनिष्ठो भवति । श्रद्धावाननसूयुः श्रुणुयात्पठति वा य इमं संवादमावयोः स पुरुषो मत्सायुज्यमेति । जो यह परम रहस्य मेरे भगवान के भक्तको बतलावेगा, वह मेरी भक्ति में निष्ठावान् होकर मुझे भगवान को ही प्राप्त करेगा। जो हम दोनों ब्रह्माजी एवं भगवान् विष्णु के इस संवाद का अध्ययन करेगा, वह मनुष्य ब्रह्मनिष्ठ हो जायगा। जो श्रद्धावान् तथा असूया (दोष दृष्टि) रहित होकर सुनेगा या हम दोनोंके इस संवादको पढ़ेगा, वह पुरुष मेरे सायुज्य को प्राप्त करेगा' ॥ २१-२३॥ ततो महाविष्णुस्तिरोदधे । ततो ब्रह्मा स्वस्थानं जगामेत्युपनिषत् ॥ इतना कहकर तब महाविष्णु अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् ब्रह्माजी अपने स्थान ब्रह्मलोक को चले गये ॥ २४॥ ॥ इति अष्टमोऽध्यायः ॥ ॥ आठवां अध्याय समाप्त ॥ इति त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ इति द्वितीयाध्याये तृतीया वल्ली ॥ ॥ तृतीय वल्ली समाप्त ॥ ॥ हरि ॐ ॥ शान्ति पाठ ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्तुवासस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ हे देवगण ! हम भगवान का आराधन करते हुए कानों से कल्याणमय वचन सुनें। नेत्रों से कल्याण ही देखें। सुदृढः अंगों एवं शरीर से भगवान की स्तुति करते हुए हमलोग; जो आयु आराध्य देव परमात्मा के काम आ सके, उसका उपभोग करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ ॐ तत् सत् ॥ ॥ इति त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ त्रिपादविभूतिमहानारायण उपनिषद समाप्त ॥

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