ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ४८

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ४८ ऋषिः प्रतिभानुरात्रेयः देवता - विश्वेदेवा । छंद जगती कदु प्रियाय धाम्ने मनामहे स्वक्षत्राय स्वयशसे महे वयम् । आमेन्यस्य रजसो यदभ्र आँ अपो वृणाना वितनोति मायिनी ॥१॥ हम अपने बल के निमित्त, अपने यश के लिए और प्रीतिकर महान् तेज के लिए किस तरह की अर्चना करें? यह माया रूप आच्छादन विस्तृत करने वाली शक्ति अपरिमित अन्तरिक्ष में मेघों के ऊपर जल राशि को फेलाती हैं ॥१॥ ता अत्नत वयुनं वीरवक्षणं समान्या वृतया विश्वमा रजः । अपो अपाचीरपरा अपेजते प्र पूर्वाभिस्तिरते देवयुर्जनः ॥२॥ उन उषाओं ने वीर पुरुषों के कर्मों में उत्साह को विस्तारित किया । एक समान प्रकाशक आवरण से सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त किया। देवत्व की अभिलाषा वाले मनुष्य अवतीर्ण होने वाली एवं निवर्तमान उषाओं को त्यागकर वर्तमान उषा के सामने ही अपने कर्मों (यज्ञादि) का विस्तार करते हैं ॥२॥ आ ग्रावभिरहन्येभिरक्तुभिर्वरिष्ठं वज्रमा जिघर्ति मायिनि । शतं वा यस्य प्रचरन्त्स्वे दमे संवर्तयन्तो वि च वर्तयन्नहा ॥३॥ सम्पूर्ण दिन और रात्रि में लगातार पत्थरों से अभिषुत सोम द्वारा हर्षित होकर इन्द्रदेव ने उस मायावी वृत्र के ऊपर अपने उत्कृष्ट वज्र का संघात किया । इन्द्र रूप सूर्यदेव की सैकड़ों किरणे दिनों के चक्र में प्रवृत्त और निवृत्त होती हुई अपने गृह-आकाश में परिभ्रमण करती रहती हैं ॥३॥ तामस्य रीतिं परशोरिव प्रत्यनीकमख्यं भुजे अस्य वर्पसः । सचा यदि पितुमन्तमिव क्षयं रत्नं दधाति भरहूतये विशे ॥४॥ परशु के समान तीक्ष्ण उन अग्निदेव के स्वभाव को हम जानते हैं । रूपवान्, आदित्यरूप अग्निदेव के किरण समूह की स्तुति हम ऐश्वर्य के उपयोग के लिए करते हैं। ये अग्निदेव सहायक होकर यज्ञ-स्थान में यजमाने को अन्नों से अभिपूरित गृह और उत्तम रत्न प्रदान करते हैं ॥४॥ स जिह्वया चतुरनीक ऋञ्जते चारु वसानो वरुणो यतन्नरिम् । न तस्य विद्म पुरुषत्वता वयं यतो भगः सविता दाति वार्यम् ॥५॥ रमणीय तेजरूपी आच्छादन धारण कर अग्निदेव अन्धकार रूप शत्रु को मारते हैं। वे चारों ओर ज्वालाओं को विस्तृत कर जिह्वा रूप ज्वाला से घृतादि का पान करते हैं। जिसके माध्यम से भग और सवितादेव वरणीय धनों को प्रदान करते हैं। उन अग्निदेव के धनैश्वर्य- दान के पराक्रमों का ज्ञान हमें नहीं हैं ॥५॥

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