ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ४९

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ४९ ऋषिः प्रतिप्रभ आत्रेयः ५ तृणपाणिः देवता - विश्वेदेवा । छंद - त्रिष्टुप देवं वो अद्य सवितारमेषे भगं च रत्नं विभजन्तमायोः । आ वां नरा पुरुभुजा ववृत्यां दिवेदिवे चिदश्विना सखीयन् ॥१॥ यजमानों के लिए आज हम सवितादेव को और भगदेव को आवाहित करते हैं; क्योंकि वे दानशीलों को रन बाँटने वाले हैं। हे बहुत पदार्थों के उपभोगकर्ता, नेतृत्वकर्ता अश्विनीकुमारो ! हम आपसे मैत्री की अभिलाषा करते हुए प्रतिदिन आप दोनों का आवाहन करते हैं ॥१॥ प्रति प्रयाणमसुरस्य विद्वान्त्सूक्तैर्देवं सवितारं दुवस्य । उप ब्रुवीत नमसा विजानञ्ज्येष्ठं च रत्नं विभजन्तमायोः ॥२॥ हे स्तोताओ ! आप सब उन प्राण-प्रदायक सवितादेव के प्रत्यागमन को जानकर उत्तम वचनों से उनकी स्तुति करें। यजमानों को श्रेष्ठ रत्न बाँटने वाले उन सवितादेव को जानकर नमस्कारपूर्वक उनकी स्तुतियाँ करें ॥२॥ अदत्रया दयते वार्याणि पूषा भगो अदितिर्वस्त उस्रः । इन्द्रो विष्णुर्वरुणो मित्रो अग्निरहानि भद्रा जनयन्त दस्माः ॥३॥ पूषा, भग और अदिति-ये देव वरण करने योग्य हविष्यान्न को ग्रहण करते और वरणीय अन्न को यजमानों को देते हैं। इन्द्र, विष्णु, वरुण, मित्र और अग्नि आदि दर्शनीय देव कल्याणकारी दिवस को उत्पन्न करते हैं ॥३॥ तन्नो अनर्वा सविता वरूथं तत्सिन्धव इषयन्तो अनु ग्मन् । उप यद्वोचे अध्वरस्य होता रायः स्याम पतयो वाजरत्नाः ॥४॥ हम यज्ञ के सम्पादनकर्ता देव की स्तुतियाँ करते हैं। वे अपराजित सवितादेव हमें अहणीय धन दें। प्रवाहशील नदियाँ भी उस धन को प्रदान करें। हम ऐश्वर्यों के अधिपति होकर अन्न-रत्नों के अधिपति बनें ॥४॥ प्र ये वसुभ्य ईवदा नमो दुर्ये मित्रे वरुणे सूक्तवाचः । अवैत्वभ्वं कृणुता वरीयो दिवस्पृथिव्योरवसा मदेम ॥५॥ जो यजमान वसुओं को हवियाँ प्रदान करते हैं, मित्र और वरुण देव के निमित्त उत्तमसूक्तवचनों द्वारा स्तुतियों करते हैं। हे देवगणो उन्हें ऐश्वर्य से युक्त करें। हम द्युलोक और पृथिवीं लोक का संरक्षण प्राप्त कर हर्षित हों ॥५॥

Recommendations