ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १३२

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १३२ ऋषि - पुरूच्छेपो दैवोदासिः देवता- इन्द्र, इन्द्र पर्वतौ । छंद - अत्यष्टि त्वया वयं मघवन्पूर्व्य धन इन्द्रत्वोताः सासह्याम पृतन्यतो वनुयाम वनुष्यतः । नेदिष्ठे अस्मिन्नहन्यधि वोचा नु सुन्वते । अस्मिन्यज्ञे वि चयेमा भरे कृतं वाजयन्तो भरे कृतम् ॥१॥ हे ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव ! आपके संरक्षण में हम लोग प्रथम संग्राम में ही आक्रमणकारियों पर विजय प्राप्त करें। आप हिंसक वृत्ति के दुष्टों का संहार करें। इन समीपस्थ दिवसों में आप साधकों को प्रेरित करें । श्रेष्ठ कर्मों के लिए संघर्ष करने वाले हम याजकगण इस यज्ञ में आपका वरण करें । हम शक्ति सम्पन्न बनकर युद्ध नेतृत्व की योग्यता में कुशल हों ॥१॥ स्वर्जेषे भर आप्रस्य वक्मन्युषर्बुधः स्वस्मिन्नज्ञ्जसि क्राणस्य स्वस्मिन्नज्ञ्जसि । अहन्निन्द्रो यथा विदे शीर्णाशीष्र्णोपवाच्यः । अस्मत्रा ते सध्यक्सन्तु रातयो भद्रा भद्रस्य रातयः ॥२॥ सुख प्राप्ति हेतु किये जाने वाले संघर्षों, श्रेष्ठ मनुष्यों के उच्च लक्ष्यों, प्रभातवेला में जागने वालों के व्यवहारों तथा सत्कर्मों का निर्वाह करने वालों के नित्यकर्मों में बाधा डालने वाले आलस्य - प्रमादादि शत्रुओं को इन्द्रदेव ने ज्ञान की तीक्ष्ण धारा से समाप्त किया। इससे समस्त मनुष्यों में इन्द्रदेव प्रशंसनीय हुए। हे इन्द्रदेव ! आपके समस्त ऐश्वर्य हमें प्राप्त हों। आप जैसे मंगलकारी के सभी अनुदान हमारे लिए मंगलमय हों ॥२॥ तत्तु प्रयः प्रत्नथा ते शुशुक्कनं यस्मिन्यज्ञे वारमकृण्वत क्षयमृतस्य वारसि क्षयम् । वि तद्वोचेरध द्वितान्तः पश्यन्ति रश्मिभिः । स घा विदे अन्विन्द्रो गवेषणो बन्धुक्षिद्भयो गवेषणः ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! जिस यज्ञ में आपने प्रतिष्ठित स्थान बनाया है, वहाँ पूर्ववत् ही आपके निमित्त तेजस्वी अन्न उपलब्ध हों। सत्य की महिमा से सुशोभित उच्च स्थान पर पहुँचाने वाले आप उसी सत्यमार्ग को ही दिखायें । सूर्य-रश्मियों से सभी लोग दोनों लोकों के मध्य में स्थिर मेघरूप में आपके हीं दर्शन करते हैं। आप ही गौओं के प्रदाता होने के साथ सत्यधाम के ज्ञाता हैं तथा यजमानों के लिएगौओं को देने वाले हैं- ऐसा सुप्रसिद्ध हैं॥३॥ नू इत्था ते पूर्वथा च प्रवाच्यं यदङ्गिरोभ्योऽवृणोरप व्रजमिन्द्र शिक्षन्नप व्रजम् । ऐभ्यः समान्या दिशास्मभ्यं जेषि योत्सि च । सुन्वद्भयो रन्धया कं चिदव्रतं हृणायन्तं चिदव्रतम् ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! पहले के समान ही आपकी पराक्रम शक्ति प्रशंसनीय हो । जो आपने अंगिराओं को गौ समूह जीतकर दिया तथा उन्हें ले जाने का मार्ग दिखाया, वैसे ही आप हमारे लिए भी ऐश्वर्यों को जीतकर प्रदान करें। आप यज्ञविरोधियों तथा क्रोधयुक्त पापियों को यज्ञादि श्रेष्ठकर्म करने वालों के हित में विनष्ट करें ॥४॥ सं यज्जनान्क्रतुभिः शूर ईक्षयद्धने हिते तरुषन्त श्रवस्यवः प्र यक्षन्त श्रवस्यवः । तस्मा आयुः प्रजावदिद्वाधे अर्चन्त्योजसा । इन्द्र ओक्यं दिधिषन्त धीतयो देवाँ अच्छा न धीतयः ॥५॥ जब बलशाली इन्द्रदेव ने पराक्रम युक्त कर्मों द्वारा मनुष्यों की तरफ निहारा, तब अन्न प्राप्ति के इच्छुक मनुष्यों ने युद्ध के प्रारम्भ होने पर शत्रुओं को विनष्ट किया। उस समय यशोभिलाषियों ने इन्द्रदेव की विशेष अर्चना की। आप अपनी सामर्थ्य-शक्ति से शत्रुओं को विनष्ट करके श्रेष्ठ सन्तान एवं दीर्घायुष्य प्रदान करें। श्रेष्ठ कर्मों के निर्वाहक मनुष्य इन्द्रदेव को ही अपना एकमात्र आश्रयदाता मानते हैं॥५॥ युवं तमिन्द्रापर्वता पुरोयुधा यो नः पृतन्यादप तंतमिद्धतं वज्रेण तंतमिद्धतम् । दूरे चत्ताय च्छन्त्सद्गहनं यदिनक्षत् । अस्माकं शत्रून्परि शूर विश्वतो दर्मा दर्षीष्ट विश्वतः ॥६॥ युद्ध क्षेत्र में आगे बढ़कर पराक्रम दिखाने वाले हे इन्द्रदेव और पर्वत ! आप दोनों युद्ध करने वाले प्रत्येक शत्रु को अपने तीक्ष्ण वज्र के प्रहार से यम लोक पहुँचायें। हे वीर! शत्रुओं द्वारा चारों ओर से घिर जाने पर हमें उनसे मुक्त करायें। पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग तीनों लोकों में व्याप्त हे देव ! आपके अनुग्रह से हम सभी याजक श्रेष्ठ वीर पराक्रमी सन्तानों से युक्त होकर अपार धन-वैभव से लाभान्वित हों ॥६॥

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