ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त ३१

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त ३१ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः। देवता- विश्वेदेवाः । छंद- जगती, ७ त्रिष्टुप अस्माकं मित्रावरुणावतं रथमादित्यै रुद्रैर्वसुभिः सचाभुवा । प्र यद्वयो न पप्तन्वस्मनस्परि श्रवस्यवो हृषीवन्तो वनर्षदः ॥१॥ हे मित्र तथा वरुणदेव! जब वनों में रहने वाले पक्षियों की तरह हमारा रथ अन्न की कामना से एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है, तब आदित्य, रुद्र तथा वसुओं के साथ संयुक्त रूप से हमारे रथ की रक्षा करें ॥१॥ अध स्मा न उदवता सजोषसो रथं देवासो अभि विक्षु वाजयुम् । यदाशवः पद्याभिस्तित्रतो रजः पृथिव्याः सानौ जङ्घनन्त पाणिभिः ॥२॥ इस रथ में जुते हुए द्रुतगामी घोड़े अपने मार्ग को तय करते हुए अपने पैरों से पृथ्वी के पृष्ठ भाग को आघात करते हुए चलते हैं। हे समान प्रीति वाले देवगणो ! इस समय अन्नाभिलाषी हमारे रथ को प्रज्ञा की ओर जाने के लिए प्रेरित करें ॥२॥ उत स्य न इन्द्रो विश्वचर्षणिर्दिवः शर्धेन मारुतेन सुक्रतुः । अनु नु स्थात्यवृकाभिरूतिभी रथं महे सनये वाजसातये ॥३॥ सर्वद्रष्टा, उत्तम कर्मा इन्द्रदेव आप मरुतों के पराक्रम से युक्त होकर द्युलोक से आकर हमारे रथ में विराजमान हों तथा हमें धन-धान्य से सम्पन्न बनाते हुए श्रेष्ठ संरक्षण प्रदान करें ॥३॥ उत स्य देवो भुवनस्य सक्षणिस्त्वष्टा ग्नाभिः सजोषा जूजुवद्रथम् । इळा भगो बृहद्दिवोत रोदसी पूषा पुरंधिरश्विनावधा पती ॥४॥ यशस्वी और समान रूप से सभी से प्रेम करने वाले सृष्टिकर्ता त्वष्टादेव अपनी तेजस्वी शक्तियों से हमारे रथ को चलायें । इडा, अत्यन्त कान्तिवान् भंगदेव, ब्रह्माण्ड की व्यवस्था करने वाले पूषादेव, सबके पोषक दोनों अश्विनीकुमार तथा द्यावा-पृथिवी हमारे रथ को चलायें ॥४॥ उत त्ये देवी सुभगे मिथूदृशोषासानक्ता जगतामपीजुवा । स्तुषे यद्वां पृथिवि नव्यसा वचः स्थातुश्च वयस्त्रिवया उपस्तिरे ॥५॥ परम तेजस्वी, ऐश्वर्य सुख से युक्त, एक दूसरे के प्रति सेह रखने वाली दिन और रात्रि जंगम तथा स्थावर को प्रेरणा देने वाली हैं। हे द्यावा- पृथिवी ! आप दोनों की हम नवीन स्तोत्रों से (मानसिक, कायिक तथा वाचिक) तीनों प्रकार से स्तुतियों करते हुए हविष्यान्न समर्पित करते हैं॥५॥ उत वः शंसमुशिजामिव श्मस्यहिर्बुध्योऽज एकपादुत । त्रित ऋभुक्षाः सविता चनो दधेऽपां नपादाशुहेमा धिया शमि ॥६॥ हे देवगणो ! सज्जनों की भाँति हम आपकी स्तुति करना चाहते हैं, सर्वव्यापी अहिर्बुध्य, अज एकपात, तीनों लोकों में व्याप्त सविता देव, प्राणियों के पालक अग्निदेव, हमारी स्तुतियों से हर्षित होकर भरपूर अन्न प्रदान करें ॥६॥ एता वो वश्म्युद्यता यजत्रा अतक्षन्नायवो नव्यसे सम् । श्रवस्यवो वाजं चकानाः सप्तिर्न रथ्यो अह धीतिमश्याः ॥७॥ हे पूज्य देवगणो ! आप सभी के द्वारा स्तुत्य हैं, अतः हम आपकी स्तुति करने की कामना करते हैं। अन्न और बल की कामना से यशस्वी मनुष्यों में आपके लिए स्तुतियाँ बनायी हैं। रथ में जुड़े हुए घोड़ों की भाँति हम सदैव कार्य करते रहें ॥७॥

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