ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ५७

ऋग्वेद-चतुर्थ मंडल सूक्त ५७ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - १-३ क्षेत्रपति, ४ शुन, ५, ८ शूनासीरौ, ६-७ सीता। छंद - अनुष्टुप, ५ पुर उष्णिक २,३,८ त्रिष्टुप क्षेत्रस्य पतिना वयं हितेनेव जयामसि । गामश्वं पोषयिल्वा स नो मृळातीदृशे ॥१॥ सखा के समान हित करने वाले क्षेत्रपति के सहयोग से हम क्षेत्रों को विजित करें। वे क्षेत्रपति देव हमें गौओं तथा अश्वों को बलिष्ठ करने वाले ऐश्वर्य प्रदान करें तथा ऐसे ऐश्वर्य से हमें हर्षित करें ॥१॥ क्षेत्रस्य पते मधुमन्तमूर्मिं धनुरिव पयो अस्मासु धुक्ष्व । मधुश्श्रुतं घृतमिव सुपूतमृतस्य नः पतयो मृळयन्तु ॥२॥ हे क्षेत्रपतिदेव ! जिस प्रकार गौएँ दुग्ध प्रदान करती हैं, उसी प्रकार आप हमें मधुरता तथा प्रवाह से सम्पन्न जल (रस) प्रदान करें। जिस प्रकार मधुरता टपकाने वाला तथा भली-भाँति पवित्र किया जाने वाला जल सुख प्रदान करता है, उसी प्रकार सत्कर्मों के पालक आप लोग हमें सुख प्रदान करें ॥२॥ मधुमतीरोषधीर्घाव आपो मधुमन्नो भवत्वन्तरिक्षम् । क्षेत्रस्य पतिर्मधुमान्नो अस्त्वरिष्यन्तो अन्वेनं चरेम ॥३॥ वनौषधियाँ हमारे लिए मधुरता से पूर्ण हों तथा चुलोक, अन्तरिक्ष और जल हमारे लिए मीठे हों। क्षेत्र के स्वामी हमारे लिए मधु-सम्पन्न हों । हम रिपुओं द्वारा अहिंसित होकर उनका अनुगमन करें ॥३॥ शुनं वाहाः शुनं नरः शुनं कृषतु लाङ्गलम् । शुनं वरत्रा बध्यन्तां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय ॥४॥ अश्व आदि वाहन हमारे निमित्त हर्षकारी हों। मानव हमारे लिए हर्षकारी हों तथा हल हर्षित होकर कृषि कर्म करें। हल सुखपूर्वक खेतों में चलें । हल के जुवे सुखपूर्वक बाँधे जाएँ तथा चाबुक भी मधुरता के साथ प्रयुक्त हों ॥४॥ शुनासीराविमां वाचं जुषेथां यद्दिवि चक्रथुः पयः । तेनेमामुप सिञ्चतम् ॥५॥ हे शुना और सीर ! आप दोनों हमारी इस प्रार्थना को स्वीकार करें। आप दोनों ने द्युलोक में जिस जल को उत्पन्न किया है, उस जल के द्वारा आप इस धरती को सिंचित करें ॥५॥ अर्वाची सुभगे भव सीते वन्दामहे त्वा । यथा नः सुभगाससि यथा नः सुफलाससि ॥६॥ हे श्रेष्ठ ऐश्वर्य प्रदान करने वाली सीतै! आप हमारे ऊपर अनुकम्पा करने वाली हों। हम आपकी वन्दना करते हैं, जिससे आप हमें श्रेष्ठ ऐश्वर्य प्रदान करें तथा श्रेष्ठ फल प्रदान करें ॥६॥ इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु तां पूषानु यच्छतु । सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् ॥७॥ इन्द्रदेव हल की मूठ सँभालें। पूषादेव उसकी देख-भाल करें, तब धरती श्रेष्ठ धान्य तथा जल से परिपूर्ण होकर हमारे लिए धान्य आदि का दोहन करे ॥७॥ शुनं नः फाला वि कृषन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अभि यन्तु वाहैः । शुनं पर्जन्यो मधुना पयोभिः शुनासीरा शुनमस्मासु धत्तम् ॥८॥ हुल के नीचे लगी हुई लोहे से विनिर्मित श्रेष्ठ फालें खेत को भली- प्रकार से जोतें और किसान लोग बैलों के पीछे-पीछे आराम के साथ जाएँ। हे वायु और सूर्यदेवो! आप दोनों हविष्य से प्रसन्न होकर पृथ्वी को जल से सींचकर इन ओषधियों को श्रेष्ठ फलों से युक्त करें ॥८॥

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