ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त १८

ऋग्वेद–चतुर्थ मंडल सूक्त १८ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता–इन्द्र, अदिति, वामदेव। छंद - त्रिष्टुप, अयं पन्था अनुवित्तः पुराणो यतो देवा उदजायन्त विश्वे । अतश्चिदा जनिषीष्ट प्रवृद्धो मा मातरममुया पत्तवे कः ॥१॥ यह पथ सनातन है। समस्त देवता और मनुष्य इसी मार्ग से पैदा हुए हैं तथा प्रगति की है। हे मनुष्यो ! आप अपने उत्पन्न होने की आधाररूपा अपनी माता को विनष्ट न करें ॥१॥ नाहमतो निरया दुर्गहैतत्तिरश्चता पार्श्वन्निर्गमाणि । बहूनि मे अकृता कर्वानि युध्यै त्वेन सं त्वेन पृच्छे ॥२॥ यह पूर्वोक्त मार्ग अत्यन्त दुरूह है; अतः हम इस मार्ग से गमन नहीं करेंगे। हम बगल के मार्ग से निकलेगे। अन्यों के द्वारा करने योग्य अनेकों कार्य हमें करने हैं। हमें एक साथ लड़ना है तथा एक-एक से पूछना हैं ॥२॥ परायतीं मातरमन्वचष्ट न नानु गान्यनु नू गमानि । त्वष्टुगृह अपिबत्सोममिन्द्रः शतधन्यं चम्वोः सुतस्य ॥३॥ मरणासन्न हुई माता को हम देख चुके हैं, अतः हम प्राचीन मार्ग का अनुसरण नहीं करेंगे। तुरन्त ही अन्य मार्ग पर अनुगमन करेंगे। लकड़ी के बर्तन में सोमरस अभिषुत करने वाले त्वष्टा के गृह में इन्द्रदेव ने अनेकों प्रकार से लाभ प्रदान करने वाले सोमरस का पान किया ॥३॥ किं स ऋधक्कृणवद्यं सहस्रं मासो जभार शरदश्च पूर्वीः । नही न्वस्य प्रतिमानमस्त्यन्तर्जातेषूत ये जनित्वाः ॥४॥ अदिति ने उन शक्तिशाली इन्द्रदेव का अनेकों वर्षों तथा महीनों तक पालन किया । इसलिए वे इन्द्रदेव विपरीत कार्य क्यों करेंगे? अब तक पैदा हुए तथा पैदा होने वालों में से कोई भी उनकी बराबरी नहीं कर सकता ॥४॥ अवद्यमिव मन्यमाना गुहाकरिन्द्रं माता वीर्येणा न्पृष्टम् । अथोदस्थात्स्वयमत्कं वसान आ रोदसी अपृणाज्जायमानः ॥५॥ माता ने गर्भ-गुहा में पैदा होने वाले इन्द्रदेव को समर्थ मानकर शक्तिपूर्वक बाहर निकाला। पैदा होते ही इन्द्रदेव अपने ओज को धारण करके स्वयं उठ खड़े हुए और द्यावा-पृथिवी को अपने तेज से पूर्ण कर दिया ॥५॥ एता अर्षन्त्यललाभवन्तीर्ऋतावरीरिव संक्रोशमानाः । एता वि पृच्छ किमिदं भनन्ति कमापो अद्रिं परिधिं रुजन्ति ॥६॥ हर्ष ध्वनि करती हुई जल से पूर्ण ये सरिताएँ कल-कल करती हुई प्रवाहित हो रही हैं। हे वे! ये सरिताएँ क्या कहती हैं ? इनसे पूछे । क्या ये इन्द्रदेव का गुणगान करती हैं? उन इन्द्रदेव के आयुध जल को आवृत करने वाले मेघों को विदीर्ण करते हैं ॥६॥ किमु ष्विदस्मै निविदो भनन्तेन्द्रस्यावद्यं दिधिषन्त आपः । ममैतान्पुत्रो महता वधेन वृत्रं जघन्वाँ असृजद्वि सिन्धून् ॥७॥ इन्द्रदेव द्वारा वृत्र का संहार करने पर लगे ब्रह्महत्या के पाप के विषय में वेद-वाणीं क्या निर्देश देती है ? उनके पाप कर्म को पानी ने फेन रूप में ग्रहण किया। मेरे पुत्र इन्द्रदेव ने अपने हथियार वज्र से वृत्र का संहार किया और इन सरिताओं को प्रवाहित किया ॥७॥ ममच्चन त्वा युवतिः परास ममच्चन त्वा कुषवा जगार । ममच्चिदापः शिशवे ममृड्युर्ममच्चिदिन्द्रः सहसोदतिष्ठत् ॥८॥ हे इन्द्रदेव ! आपकी माता अदिति ने हर्षित होकर, आपको उत्पन्न किया। एक बार 'कुषवा' नाम वाली राक्षसी ने आपको निगलने का प्रयास किया था। सूतिका गृह में आप राक्षसी का वध करने के लिए तैयार हो गये थे। जब आप बालक थे, तब जल ने आपको हर्षित किया था। उसके बाद आप अत्यधिक सामर्थ्यवान् होकर उठ खड़े हुए ॥८॥ ममच्चन ते मघवन्व्यंसो निविविध्वाँ अप हनू जघान । अधा निविद्ध उत्तरो बभूवाञ्छिरो दासस्य सं पिणग्वधेन ॥९॥ हे धनवान् इन्द्रदेव ! 'व्यंस' नामक राक्षस ने मदयुक्त होकर आपकी कोड़ी पर प्रहार किया। इसके बाद अत्यधिक बलशाली होकर आपने उस राक्षस के सिर को वज्र से विदीर्ण कर दिया ॥९॥ गृष्टिः ससूव स्थविरं तवागामनाधृष्यं वृषभं तुम्रमिन्द्रम् । अरीळ्हं वत्सं चरथाय माता स्वयं गातुं तन्व इच्छमानम् ॥१०॥ जैसे गौ बछड़े को पैदा करती हैं, उसी प्रकार अदिति माता अपनी इच्छानुसार विचरण करने के लिए इन्द्रदेव को उत्पन्न करती हैं। वे इन्द्रदेव उम्र से प्रौढ़, अत्यन्त शक्तिशाली, रिपुओं से अजेय, प्रेरक, न मारे जाने वाले तथा स्वयं गमन के लिए शरीर की अभिलाषा करने वाले हैं ॥१०॥ उत माता महिषमन्ववेनदमी त्वा जहति पुत्र देवाः । अथाब्रवीद्वृत्रमिन्द्रो हनिष्यन्त्सखे विष्णो वितरं वि क्रमस्व ॥११॥ माता अदिति ने अपने महिमावान् वत्स इन्द्र से निवेदन किया कि ये देवगण आपका परित्याग कर रहे हैं। इसके बाद वृत्र का संहार करने की अभिलाषा करते हुए इन्द्रदेव ने विष्णु से कहा कि हे सखा विष्णु ! आप श्रेष्ठ पराक्रमी हों ॥११॥ कस्ते मातरं विधवामचक्रच्छयुं कस्त्वामजिघांसच्चरन्तम् । कस्ते देवो अधि मार्डीक आसीद्यत्प्राक्षिणाः पितरं पादगृह्य ॥१२॥ हे इन्द्रदेव ! जब आपके पिता के चरण को पकड़कर फेंका गया, तब आपकी माता अदिति को किस देव ने विधवा किया? जिस समय आप शयन कर रहे थे तथा गमन कर रहे थे, उस समय आपको किस देव ने मारने की अभिलाषा की थी? आपकी अपेक्षा और कौन देवता अधिक सुख प्रदान करते हैं? ॥१२॥ अवर्त्या शुन आन्त्राणि पेचे न देवेषु विविदे मर्डितारम् । अपश्यं जायाममहीयमानामधा मे श्येनो मध्वा जभार ॥१३॥ हमने क्षुधा से पीड़ित होकर कुत्ते की अभक्षणीय अंतड़ियों को भी पकाया । हमने देवताओं में इन्द्रदेव के अलावा किसी दूसरे देवता को सुख प्रदान करने वाला नहीं पाया। जब हमने अपनी पत्नी को अपमानित होते हुए पाया, तब वे इन्द्रदेव ही हमारे लिए मधुर आहार लाये ॥१३॥

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