ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १७५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १७५ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता- इन्द्रःः। छंद - स्कंधों ग्रीवि बृहती; २-५ अनुष्टुप, ६ त्रिष्टुप मत्स्यपायि ते महः पात्रस्येव हरिवो मत्सरो मदः । वृषा ते वृष्ण इन्दुर्वाजी सहस्रसातमः ॥१॥ हे अश्वधारक इन्द्रदेव ! बड़े पात्र के समान आप महान् हैं । आनन्ददायक, हर्षवर्द्धक, बलवर्द्धक, शक्तिशाली असंख्यों दान देने वाले आप सोमरस का पान करते हुए आनन्द की अनुभूति करें ॥१॥ आ नस्ते गन्तु मत्सरो वृषा मदो वरेण्यः । सहावाँ इन्द्र सानसिः पृतनाषाळमर्त्यः ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! आपके लिए तैयार किया गया बलवर्द्धक, हर्षदायक, श्रेष्ठ, सामर्थ्ययुक्त, पीने योग्य अविनाशी, शत्रु विजेता, आनन्ददायी यह सोमरस आपको प्राप्त हो ॥२॥ त्वं हि शूरः सनिता चोदयो मनुषो रथम् । सहावान्दस्युमव्रतमोषः पात्रं न शोचिषा ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! आप वीर और दानदाता हैं। मनुष्य के मनोरथों को भलीप्रकार प्रेरित करें। जैसे अग्निदेव अपनी ज्वाला से पात्र को तपाते हैं, वैसे ही आप सहायक बनकर दुष्टों और मर्यादाहीनों को नष्ट करें ॥३॥ मुषाय सूर्य कवे चक्रमीशान ओजसा । वह शुष्णाय वधं कुत्सं वातस्याश्चैः ॥४॥ हे मेधावी इन्द्रदेव ! आप सबके स्वामी हैं, ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए आपने अपनी सामर्थ्य शक्ति के द्वारा सूर्यदेव से चक्र (शक्ति) प्राप्त किया। आप 'शुष्ण' के संहार के लिए, वायु के समान वेगशील अश्वों द्वारा अपने प्रहारक वज्र को कुत्स के समीप पहुँचायें ॥४॥ शुष्मिन्तमो हि ते मदो द्युम्निन्तम उत क्रतुः । वृत्रघ्ना वरिवोविदा मंसीष्ठा अश्वसातमः ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आपकी प्रसन्नता सबको शक्ति देने वाली है तथा आपके श्रेष्ठ कर्म प्रचुर अन्न प्रदान करने वाले हैं। अश्वों के दान में प्रख्यात आप हमें वृत्रवध करने वाले तथा ऐश्वर्य सम्पदा देने वाले शस्त्रों को प्रदान करें ॥५॥ यथा पूर्वेभ्यो जरितृभ्य इन्द्र मय इवापो न तृष्यते बभूथ । तामनु त्वा निविदं जोहवीमि विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! प्राचीन स्तोताओं के लिए आप, प्यासे के लिए जल और दुःखी के लिए सुख मिलने के समान ही आनन्ददाता और प्रिय सिद्ध हुए हैं। आपकी सनातन स्तुतियों से हम आपको आमन्त्रित करते हैं, जिससे हम अन्न, बल और दीर्घायुष्य प्राप्त करें ॥६॥

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