ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त २८

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त २८ ऋषिः विश्ववारात्रेयी देवता–अग्नि । छंद - १, ३ त्रिष्टुप, २ जगती ४ अनुष्टुप समिद्धो अग्निर्दिवि शोचिरश्रेत्प्रत्य‌ङ्गु‌षसमुर्विया वि भाति । एति प्राची विश्ववारा नमोभिर्देवाँ ईळाना हविषा घृताची ॥१॥ सम्यक् प्रकार से प्रदीप्त अग्निदेव दीप्तिमान् अन्तरिक्ष में अपने तेजों से प्रकाशित होते हैं और उषा के सम्मुख विस्तीर्ण होकर विशेष प्रभायुक्त होते है। उस समय इन्द्रादि देवों का स्तवन करती हुई पुरोडाश आदि और घृतादि से युक्त सुक् को लेकर विश्ववारा पूर्व की ओर से झाँकती हुई अग्नि की ओर बढ़ती हैं ॥१॥ समिध्यमानो अमृतस्य राजसि हविष्कृण्वन्तं सचसे स्वस्तये । विश्वं स धत्ते द्रविणं यमिन्वस्यातिथ्यमग्ने नि च धत्त इत्पुरः ॥२॥ हे अग्निदेव ! आप भली-भाँति प्रज्वलित होकर अमृततत्त्व को प्रकाशित करते हैं। हव्यदाता यज्ञमान को आप कल्याण से युक्त करते हैं। आप जिस यजमान के समीप जाते हैं, वह सम्पूर्ण ऐश्वर्य को धारण करता है। हे अग्निदेव ! आपके आतिथ्य के अनुकूल हव्यादि पदार्थों को वह यजमान आपके सम्मुख स्थापित करता है ॥२॥ अग्ने शर्ध महते सौभगाय तव द्युम्नान्युत्तमानि सन्तु । सं जास्पत्यं सुयममा कृणुष्व शत्रूयतामभि तिष्ठा महांसि ॥३॥ हे अग्निदेव ! आप हम लोगों के उत्तम सौभाग्य (विपुल ऐश्वर्य) के लिए शत्रुओं को पराभूत करें। आपका तेज श्रेष्ठतम हो । आप दाम्पत्य सम्बन्ध को सुखी और सुनियमित करें और शत्रुओं के तेज़ को दबा दें ॥३॥ समिद्धस्य प्रमहसोऽग्ने वन्दे तव श्रियम् । वृषभो द्युम्नवाँ असि समध्वरेष्विध्यसे ॥४॥ हे अग्निदेव ! जब आप प्रज्वलित होकर दीप्तिमान् होते हैं, तो आपकी शोभा का हम स्तवन करते हैं। आप अभीष्ट प्रदाता और तेजस्वी हैं तथा यज्ञों में भली प्रकार प्रदीप्त होते हैं ॥४॥ समिद्धो अग्न आहुत देवान्यक्षि स्वध्वर । त्वं हि हव्यवाळसि ॥५॥ हे अग्निदेव ! आप यजमानों द्वारा आहूत होते हैं। आप शोभायुक्त यज्ञ के सम्पादक हैं। आप सम्यक् प्रदीप्त होकर इन्द्रादि देवों का यजन करें, क्योंकि आप ही हव्यादि पदार्थों को वहन करने वाले हैं ॥५॥ आ जुहोता दुवस्यताग्निं प्रयत्यध्वरे । वृणीध्वं हव्यवाहनम् ॥६॥ हे अंत्वजो ! आप लोग हमारे यज्ञ में प्रवृत्त होकर हव्य वहन करने वाले अग्निदेव को आहुतियाँ अर्पित करें । स्तुतियों द्वारा उनकी परिचर्या करें और देवों के दूतरूप में उनका वरण करें ॥६॥

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