ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ११३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ११३ ऋषि - कुत्स अंगिरसः: देवता - १, उषाः रात्रिश्च, २-२० उषा। छंद त्रिष्टुप - इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिरागाच्चित्रः प्रकेतो अजनिष्ट विभ्वा । यथा प्रसूता सवितुः सवायँ एवा रात्र्युषसे योनिमारैक् ॥१॥ सर्व दीप्तिमान् पदार्थों में ये देवी उषा सर्वाधिक तेजयुक्त हैं। इनका विलक्षण प्रकाश चारों ओर व्यापक होकर सभी पदार्थों को आच्छादित कर लेता है। सूर्यदेव के अस्त होने के पश्चात्) से उत्पन्न हुई रात्रि, इन देवी उषा के उदय के लिए स्थान रिक्त कर देती है ॥१॥ रुशद्वत्सा रुशती श्वेत्यागादारैगु कृष्णा सदनान्यस्याः । समानबन्धू अमृते अनूची द्यावा वर्णं चरत आमिनाने ॥२॥ तेजस्वी देवी उषा उज्ज्वल पुत्र (सूर्य) को लेकर प्रकट हुईं और काले रंग की रात्रि ने उसे स्थान दिया है। देवी उषा और रात्रि दोनों सूर्यदेव के साथ समान सखा भाव से युक्त हैं। दोनों अविनाशी और क्रमशः एक के पीछे एक आकाश में विचरण करती हैं तथा एक दूसरे के प्रभाव को नष्ट करने वाली हैं॥२॥ समानो अध्वा स्वस्रोरनन्तस्तमन्यान्या चरतो देवशिष्टे । न मेथेते न तस्थतुः सुमेके नक्तोषासा समनसा विरूपे ॥३॥ रात्रि और देवी उषा दोनों का बहिनों जैसा एक ही मार्ग है तथा वे अन्तहीन हैं। उस मार्ग से होकर देवी उषा और रात्रि द्योतमान सूर्य से अनुप्राणित होकर क्रमशः एक के पीछे एक चलती हैं। उत्तम कार्य करने वाली ये एक दूसरे के विपरीत रूप वाली होते हुए भी एक मनोभूमि की हैं। न कभी परस्पर विरुद्ध होती हैं, न ही कहीं रुकती हैं, अपितु अपने-अपने कार्यों में निरत रहती हैं॥३॥ भास्वती नेत्री सूनृतानामचेति चित्रा वि दुरो न आवः । प्रार्ष्या जगद्व्यु नो रायो अख्यदुषा अजीगर्भुवनानि विश्वा ॥४॥ अपने प्रकाश से लोगों को श्रेष्ठ कर्मों की ओर प्रेरित करने वाली दीप्तिमती देवी उषा का उदय हो गया है। वे अद्भुत मनोहारी किरणों से दरवाजे खोलने की प्रेरणा देती हैं। विश्व को ज्योतिर्मय (प्रकाशित) करके ऐश्वर्य प्राप्ति हेतु मनुष्यों में प्रेरणा भरती हैं तथा अपनी किरणों से समस्त लोकों को प्रकाशित करती हैं॥४॥ जिह्मश्ये चरितवे मघोन्याभोगय इष्टये राय उ त्वम् । दभ्रं पश्यद्भय उर्विया विचक्ष उषा अजीगर्भुवनानि विश्वा ॥५॥ धनेश्वरी देवी उषा सुषुप्त (सोये हुओं) को जगाकर चलने के लिए, उपभोग, ऐश्वर्य एवं इष्टकर्म के लिए प्रेरित करती हैं। अन्धकार में भटके हुए लोगों को दृष्टि देने हेतु विस्तृत तेजस्विता से युक्त देवी उषा सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करती हैं॥५॥ क्षत्राय त्वं श्रवसे त्वं महीया इष्टये त्वमर्थमिव त्वमित्यै । विसदृशा जीविताभिप्रचक्ष उषा अजीगर्भुवनानि विश्वा ॥६॥ हे तेजस्वी देवी उचे ! रक्षापरक (क्षत्रियोचित) कर्म के लिए श्रेय (कीर्ति के लिए महायज्ञों हेतु प्रचुर धनोपार्जन तथा नानाविध जीवनोपयोगी कर्तव्य निर्वाह के लिए समस्त लोकों को आप ही जाग्रत् करती हैं॥६॥ एषा दिवो दुहिता प्रत्यदर्शि व्युच्छन्ती युवतिः शुक्रवासाः । विश्वस्येशाना पार्थिवस्य वस्व उषो अद्येह सुभगे व्युच्छ ॥७॥ ये स्वर्ग कन्या देवी उषा अँधेरे को भगाती हुई उदित हो गई हैं। नवयुवती की तरह शुभ्र वस्त्र धारण करने वाली देवी उषा सम्पूर्ण धरती की सम्पदाओं की अधीश्वरी हैं। हे सौभाग्य प्रदात्री उषे! आप यहाँ अपना आलोक प्रकट करें ॥७॥ परायतीनामन्वेति पाथ आयतीनां प्रथमा शश्वतीनाम् । व्युच्छन्ती जीवमुदीरयन्त्युषा मृतं कं चन बोधयन्ती ॥८॥ ये देवी उषा पिछली आई हुई उषाओं के मार्ग का ही अनुसरण कर रही हैं तथा भविष्य में अनन्तकाल तक आने वाली अनेक उषाओं में सर्वप्रथम हैं। ये प्रकाशमयी देवी उषा जीवन्तों में प्रेरणा जगातीं तथा मृतक के समान सोये हुओं में प्राणतत्त्व का संचार करती हैं॥८॥ उषो यदग्निं समिधे चकर्थ वि यदावश्चक्षसा सूर्यस्य । यन्मानुषान्यक्ष्यमाणाँ अजीगस्तद्देवेषु चकृषे भद्रमप्नः ॥९॥ हे उषे ! आपके उदय होते ही यज्ञ कर्मों का सम्पादन करने वाले जागकर अग्नि को प्रदीप्त करने लगे। सूर्योदय से पूर्व आपने ही प्रकाश फैलाया। विश्व के लिए मंगलकारी और देवताओं के लिए प्रिय उपासनादि सत्कर्मों की प्रेरणा आपने ही प्रदान की ॥९॥ कियात्या यत्समया भवाति या व्यूषुर्याश्च नूनं व्युच्छान् । अनु पूर्वाः कृपते वावशाना प्रदीध्याना जोषमन्याभिरेति ॥१०॥ कितने समय पर्यन्त ये देवीं उषा यहाँ स्थित रहती हैं? जो पूर्व में प्रकाशित हो चुकीं और जो भविष्य में आने वाली हैं, वे भी कहाँ अधिक समय तक स्थित रहेंगी? पूर्व में आ चुकी उषाओं का स्मरण दिलाती हुई वर्तमान में देवीं उषा प्रकाश फैलाने में सक्षम होती हैं। प्रकाश फैलाने वाली देवी उषा अन्य उषाओं का ही अनुगमन करती हैं॥१०॥ ईयुष्टे ये पूर्वतरामपश्यन्व्युच्छन्तीमुषसं मर्त्यासः । अस्माभिरू नु प्रतिचक्ष्याभूदो ते यन्ति ये अपरीषु पश्यान् ॥११॥ जो मनुष्य विगतकाल में प्रकट हुई उषाओं का दर्शन करते थे, वे दिवंगत हो गये। जो आज इन देवी उषा को देख रहे हैं, वे भी एक दिन यहाँ से प्रस्थान कर जायेंगे। जो भविष्य में उषाओं का दर्शन करेंगे, उनका भी स्थायित्व नहीं है, अर्थात् मात्र देवी उषा ही अकेली स्थायी रहने वाली हैं, जो बार-बार आती रहेंगी ॥११॥ यावयद्द्वेषा ऋतपा ऋतेजाः सुम्नावरी सूनृता ईरयन्ती । सुमङ्गलीर्बिभ्रती देववीतिमिहाद्योषः श्रेष्ठतमा व्युच्छ ॥१२॥ अज्ञानान्धकार रूपीं शत्रुओं का विनाश करने वाली, सत्य के विस्तार हेतु ही प्रकट होने वाली, सत्य का अनुपालन करने वाली, सुखप्रद वाणी की प्रेरक, श्रेष्ठ कल्याणकारी देवों की सन्तुष्टि हेतु यज्ञीय कर्मों की प्रेरक, अति श्रेष्ठ गुणों से युक्त हे उषे! आप यहाँ प्रकाशमान हों ॥१२॥ शश्वत्पुरोषा व्युवास देव्यथो अद्येदं व्यावो मघोनी । अथो व्युच्छादुत्तराँ अनु यूनजरामृता चरति स्वधाभिः ॥१३॥ देवी उषा विगत काल में हमेशा प्रकाशित होती रहीं हैं। धनेश्वरी देवी उषा आज इस विश्व को प्रकाशमान कर रही हैं तथा भविष्य में भी प्रकाश देती रहेंगी, ऐसीं ये देवी उषा तीनों कालों में प्रकाशमान होने से अजर-अमर हैं। अपनी धारण की गई क्षमताओं से ये देवी उषा सदा चलायमान हैं॥१३॥ व्यज्ञ्जिभिर्दिव आतास्वद्यौदप कृष्णां निर्णिजं देव्यावः । प्रबोधयन्त्यरुणेभिरश्वरोषा याति सुयुजा रथेन ॥१४॥ देवी उषा अपनी तेजस्वी रश्मियों से आकाश की सभी दिशाओं में प्रकाशित होती हैं। इन दिव्य देवी उषा ने कृष्णवर्ण (कालेरंग) के अन्धकार को दूर किया है। भली प्रकार रक्तवर्ण की किरणों रूपी अश्वों द्वारा खींचे गये रथ से ये देवी उषा आगमन करती हैं और सभी को जाग्रत् करती हैं॥१४॥ आवहन्ती पोष्या वार्याणि चित्रं केतुं कृणुते चेकिताना । ईयुषीणामुपमा शश्वतीनां विभातीनां प्रथमोषा व्यश्वेत् ॥१५॥ पौष्टिक और धारण करने योग्य उपयोगी धनों की प्रदात्री ये देवी उषा सबको प्रकाशित करती हुई अद्भुत मनोरम तेजस्विता को फैला रही हैं। वर्तमान देवी उषा विगत उषाओं में अन्तिम हैं और आगत उषाओं में सर्वप्रथम हैं, अतएव उत्तम रूप से प्रकाशित हो रही हैं॥१५॥ उदीर्ध्वं जीवो असुर्न आगादप प्रागात्तम आ ज्योतिरेति । आरैक्पन्थां यातवे सूर्यायागन्म यत्र प्रतिरन्त आयुः ॥१६॥ हे मनुष्यो ! उठो आलस्य त्यागकर उन्नति के मार्ग पर बढ़ चलो। प्रभात वेला में हमें प्राणरूपी जीवनी शक्ति का सघन संचार प्राप्त होता है। मोहरूपी अन्धकार हटता है। ज्योतिर्मान सूर्यदेव आगे बढ़ते जाते हैं। देवी उषा सूर्यदेव के आगमन के निमित्त मार्ग बनाती जाती हैं। हम सभी उस आयु (आरोग्यवर्धक जीवनी शक्ति) को प्राप्त करें ॥१६॥ स्यूमना वाच उदियर्ति वह्निः स्तवानो रेभ उषसो विभातीः । अद्या तदुच्छ गृणते मघोन्यस्मे आयुर्नि दिदीहि प्रजावत् ॥१७॥ ज्ञान सम्पन्न साधक दीप्तिमान् उषाओं की प्रार्थना करते हुए शोभनीय तथा मनोरम स्तोत्रों का उच्चारण करते हैं। हे ऐश्वर्यशाली उषे ! स्तुति करने वालों के हृदय में आप ज्ञान रूपी प्रकाश भर दें। हमारे लिए सुसन्तति से युक्त जीवन और अन्नादि प्रदान करें ॥१७॥ या गोमतीरुषसः सर्ववीरा व्युच्छन्ति दाशुषे मर्त्याय । वायोरिव सूनृतानामुदर्के ता अश्वदा अश्नवत्सोमसुत्वा ॥१८॥ हविदाता मनुष्यों के लिए ये उषाएँ सम्पूर्ण शक्तियों से युक्त, कान्तिमान् रश्मियों से सम्पन्न होकर प्रकाशमान हो रही हैं। वायु के तुल्य तीव्र गतिशील स्तोत्र रूपी श्रेष्ठ वाणियों से प्रशंसित होकर जीवनी शक्ति प्रदान करने वाली ये उषाएँ, सोमयज्ञ सम्पादित करने वाले साधकों के समीप जाती हैं॥ १८ ॥ माता देवानामदितेरनीकं यज्ञस्य केतुबृहती वि भाहि । प्रशस्तिकृद्ब्रह्मणे नो व्युच्छा नो जने जनय विश्ववारे ॥१९॥ हे देवी उषे ! आप देवत्व का संचार करने से देवमाता हैं, अदिति के मुख के समान तेजस्वी हैं। यज्ञ की ध्वजा के समान हे विस्तृत उषे ! आप विशेष रूप से प्रकाशित हो रही हैं। हमारे सज्ञान की प्रशंसा करती हुई आलोकित हों। हे विश्ववंद्य उषे! हमें श्रेष्ठ मार्ग से उत्तम लोकों में ले चलें ॥१९॥ यच्चित्रमप्न उषसो वहन्तीजानाय शशमानाय भद्रम् । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥२०॥ जिन आश्चर्यजनक विभूतियों को उषाएँ धारण करती हैं, वहीं विभूतियाँ यज्ञ का निर्वाह करने वाले यजमान के लिए भी कल्याणप्रद हों। मित्र, वरुण, अदिति, समुद्र, पृथ्वी और दिव्य लोक ये सभी देवत्व सम्वर्धक धाराएँ हमारी प्रार्थना को पूर्ण करें ॥२०॥

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