Brihadaranyaka Upanishad Chapter 6 (बृहदारण्यक उपनिषद) छठा अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ षष्ठोऽध्यायः - प्रथमं ब्राह्मणम् छठा अध्याय प्रथम ब्राह्मण ॐ यो ह वै ज्येष्ठं च श्रेष्ठं च वेद ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च स्वानां भवति । प्राणो वै ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च । ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च स्वानां भवत्यपि च येषां बुभूषति य एवं वेद ॥ १॥ जो कोई ज्येष्ठ और श्रेष्ठ को जानता है, वह अपने जाति जनों में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ होता है। प्राण ही ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है। जो इस प्रकार जानता है, वह अपने जाति जनों में तथा और भी जिन्हें चाहता है, उनमें भी ज्येष्ठ और श्रेष्ठ होता है। ॥१॥ यो ह वै वसिष्ठां वेद वसिष्ठः स्वानां भवति । वाग्वै वसिष्ठा । वसिष्ठः स्वानां भवत्यपि च येषां बुभूषति, य एवं वेद ॥ २॥ जो वसिष्ठा को जानता है, वह स्वजनों में वसिष्ठ होता है। वाणी ही वसिष्ठा है। जो ऐसी उपासना करता है, वह स्वजनों में तथा और भी जिन्हें चाहता है, उनमें वसिष्ठ होता है। ॥२॥ यो ह वै प्रतिष्ठां वेद प्रतितिष्ठति समे प्रतितिष्ठति दुर्गे । चक्षुर्वै प्रतिष्ठा चक्षुषा हि समे च दुर्गे च प्रतितिष्ठति । प्र रतितिष्ठति समे प्रतितिष्ठति दुर्गे य एवं वेद ॥ ३॥ जो प्रतिष्ठा को जानता है, वह समान देश-काल में प्रतिष्ठित होता है और दुर्गम देश-काल में भी प्रतिष्ठित होता है। नेत्र ही प्रतिष्ठा है। नेत्र ही समान और दुर्गम देश-काल में प्रतिष्ठित होता है। जो ऐसी उपासना करता है, वह समान और दुर्गम में प्रतिष्ठित होता है। ॥३॥ यो ह वै सम्पदं वेद सः हास्मै पद्यते यं कामं कामयते । श्रो रोत्रं वै सम्पच्छ्रोत्रे हीमे सर्वे वेदा अभिसम्पन्नाः। सञ् हास्मै पद्यते यं कामं कामयते य एवं वेद ॥ ४॥ जो सम्पदा को जानता है, वह जिस किसी भी भोग की इच्छा करता है, वही उसे सम्यक् प्रकार से प्राप्त हो जाता है। श्रोत्र ही सम्पद् है। श्रोत्र में ही ये सब वेद सब प्रकार निष्पन्न हैं। जो ऐसी उपासना करता है, वह जिस भोग की इच्छा करता है, वही उसे सम्यक् प्रकार से प्राप्त हो जाता है॥४॥ यो ह वा आयतनं वेदाऽऽयतन स्वानां भवति आयतनं जनानाम् । मनो वा आयतनमायतनः स्वानां भवत्यायतनं जनानां य एवं वेद ॥५॥ जो इन्द्रियों और विषयों के आश्रय दाता शरीर को जानता है, वह स्वजनों का आश्रय दाता होता है तथा अन्य जनों का भी आश्रय दाता होता है। मन ही आश्रय दाता है जो इस प्रकार जानता है, वह स्वजनों का आश्रय दाता होता है तथा अन्य जनों का भी आश्रय दाता होता है ॥५॥ यो ह वै प्रजातिं वेद प्रजायते ह प्रजया पशुभी रेतो वै प्रजातिः । प्रजायते ह प्रजया पशुभिर्य एवं वेद ॥ ६॥ जो भी प्रजापति को जानता है वह प्रजा और पशुओं द्वारा प्रजात (वृद्धि को प्राप्त) होता है। रेतस् ही प्रजापति है। जो ऐसा जानता है, वह प्रजा और पशुओं द्वारा प्रजात होता है॥६॥ ते हेमे प्राणा अहश्रेयसे विवदमाना ब्रह्म जग्मुस्तद्धोचुः को नो वसिष्ठ इति । तद्धोवाच यस्मिन्व उत्क्रान्त इदः शरीरं पापीयो मन्यते स वो वसिष्ठ इति ॥ ७॥ वह प्राण इन्द्रियां 'मैं श्रेष्ठ हूँ, मैं श्रेष्ठ हूँ' इस प्रकार विवाद करते हुए ब्रह्माजी के पास गये। उनसे बोले 'हममें कौन श्रेष्ठ है?' उन्होंने कहा, 'तुममें से जिसके शरीर के बाहर निकलने पर यह शरीर अपने को अधिक पापी मानता है, वही तुममें से श्रेष्ठ है' ॥७॥ वाग्घोच्चक्राम । सा संवत्सरं प्रोष्या। आ। आगत्योवाच कथमशकत महते जीवितुमिति । ते होचुर्यथाऽकला अवदन्तो वाचा प्राणन्तः प्राणेन पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः श्रोत्रेण विद्वासो मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति । प्रविवेश ह वाक् ॥ ८॥ पहले वाणी शरीर से बाहर निकली। उसने एक वर्ष तक बाहर रहकर लौटकर कहा-'मेरे बिना तुम कैसे जीवित रह सके थे ?' यह सुनकर उन्होंने कहा, 'जैसे मूक पुरुष वाणी से न बोलते हुए भी प्राण से प्राणक्रिया करते, नेत्र से देखते, श्रोत्र से सुनते, मन से जानते और रेतस् से प्रजा (सन्तान) की उत्पत्ति करते हुए जीवित रहते हैं, उसी प्रकार हम जीवित रहे।' यह सुनकर वाणी ने प्रवेश किया ॥८॥ चक्षुर्हेच्चक्राम । तत्संवत्सरं प्रोष्याऽऽगत्योवाच कथमशकत मदृते जीवितुमिति । ते होचुर्यथान्धा अपश्यन्तश्चक्षुषा प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा शृण्वन्तः श्रोत्रेण विद्वासो मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति । प्रविवेश ह चक्षुः ॥ ९॥ उसके पश्च्यात नेत्र शरीर से बाहर निकला। उसने एक वर्ष बाहर रहकर लौटकर कहा, 'तुम मेरे बिना कैसे जीवित रह सके थे?' वह बोले-'जिस प्रकार अन्धे लोग नेत्र से न देखते हुए भी प्राण से प्राणक्रिया करते, वाणी से बोलते, श्रोत्र से सुनते, मन से जानते और रेतस् से प्रजा उत्पन्न करते हुए जीवित रहते हैं, उसी प्रकार हम जीवित रहे।' यह सुनकर नेत्र ने प्रवेश किया ॥९॥ श्रोत्र होच्चक्राम । तत्संवत्सरं प्रोष्याऽऽगत्योवाच कथमशकत मदृते जीवितुमिति । ते होचुर्यथा बधिरा अशृण्वन्तः श्रोत्रेण प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा पश्यन्तश्चक्षुषा विद्वासो मनसा प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति । प्रविवेश ह श्रोत्रम् ॥ १०॥ फिर श्रोत्र शरीर से बाहर निकला। उसने एक वर्ष बाहर रहकर लौटकर कहा-'तुम मेरे बिना कैसे जीवित रह सके थे?' वे बोले-'जिस प्रकार बहरे आदमी कानों से न सुनते हुए भी प्राण से प्राणक्रिया करते, वाणी से बोलते, नेत्र से देखते, मन से जानते और रेतस् से प्रजा उत्पन्न करते हुए जीवित रहते हैं, उसी प्रकार हम जीवित रहे।' यह सुनकर श्रोत्र ने प्रवेश किया ॥ १०॥ मनो होच्चक्राम । तत्संवत्सरं प्रोष्याऽऽगत्योवाच कथमशकत मदृते जीवितुमिति । ते होचुर्यथा मुग्धा अविद्वासो मनसा प्रा राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः श्रो रोत्रेण प्रजायमाना रेतसैवमजीविष्मेति । प्रविवेश ह मनः ॥ ११॥ फिर मन शरीर से बाहर निकला। उसने एक वर्ष बाहर रहकर लौटकर कहा, 'तुम मेरे बिना कैसे जीवित रह सके थे?' वे बोले, "जिस प्रकार मुग्ध पुरुष मन से न समझते हुए भी, प्राण से प्राण क्रिया, वाणी से बोलते, नेत्र से देखते, कान से सुनते और रेतस् से प्रजा उत्पन्न करते हुए जीवित रहते हैं, उसी प्रकार हम जीवित रहे।' यह सुनकर मन ने शरीरमें प्रवेश किया ॥ ११॥ रेतो होच्चक्राम । तत्संवत्सरं प्रोष्याऽऽगत्योवाच कथमशकत महते जीवितुमिति । ते होचुर्यथा क्लीबा अप्रजायमाना रेतसा ि प्राणन्तः प्राणेन वदन्तो वाचा पश्यन्तश्चक्षुषा शृण्वन्तः श्रोत्रेण विद्वासो मनसैवमजीविष्मेति । प्रविवेश ह रेतः ॥ १२ ॥ इसके पश्च्यात रेतस शरीर से बाहर निकला। उसने एक वर्ष बाहर रहकर फिर लौटकर कहा, 'तुम मेरे बिना कैसे जीवित रह सके थे ?' वे बोले, जिस प्रकार नपुंसक लोग रेतस् से प्रजा उत्पन्न न करते हुए भी प्राण से प्राणक्रिया करते, वाणी से बोलते, नेत्र से देखते, श्रोत्र से सुनते और मन से जानते हुए जीवित रहते हैं, उसी प्रकार हम जीवित रहे।' यह सुनकर वीर्य ने शरीर में प्रवेश किया ॥ १२॥ अथ ह प्राण उत्क्रमिष्यन् यथा महासुहयः सैन्धवः पड्वीशशङ्‌ङ्कन्संवृहेदेव हैवेमान्प्राणान्संववर्ह । ते होचुर्मा भगव उत्क्रमीन वै शक्ष्यामस्त्वदृते जीवितुमिति । तस्यो मे बलिं कुरुतेति तथेति ॥ १३॥ फिर प्राण शरीर से बाहर निकलने लगा, तो जिस प्रकार सिन्धुदेशीय महान् अश्व पैर बाँधने के खूटों को उखाड़ डालता है, उसी प्रकार वह इन ससभी इन्द्रियों को उखाड़ने लगा। उन्होंने कहा, "भगवन् ! आप शरीर से बाहर न निकलें, आपके बिना हम जीवित नहीं रह सकते।' प्राण ने कहा, "अच्छा तो तुम सभी मुझे भेंट अर्पित करो। अन्य इन्द्रियों ने कहा- 'बहुत अच्छा ॥१३॥ सा ह वागुवाच यद्वा अहं वसिष्ठाऽस्मि त्वं तद्वसिष्ठोऽसीति । यद् वा अहं प्रतिष्ठास्मि त्वं तत्प्रतिष्ठोऽसीति चक्षुर्यद्वा अह सम्पदस्मि त्वं तत् सम्पदसीति श्रोत्रम् । यद् वा अहमायतनमस्मि त्वं तदायतनमसीति मनो यद्वा अहं प्रजातिरस्मि त्वं तत् प्रजातिरसीति रेतस्तस्यो मे किमन्नं किं वास इति । यदिदं किञ्चाऽऽश्वभ्य आ कृमिभ्य आ कीटपतङ्गेभ्यस्तत्तेऽन्नमापो वास इति । न ह वा अस्यानन्नं जग्धं भवति नानन्नं प्रतिगृहीतं य एवमेतदनस्यान्नं वेद । तद् विद्वासः श्रोत्रिया अशिष्यन्त आचामन्त्यशित्वाऽऽ चामन्त्येतमेव तदनमनग्नं कुर्वन्तो मन्यन्ते ॥१४॥ उस वाणी इंद्री ने कहा, "मैं जो वसिष्ठा हूँ, सो तुम ही उस वसिष्ठ गुण से युक्त हो।' 'मैं जो प्रतिष्ठा हूँ, सो तुम ही उस प्रतिष्ठा से युक्त हो' ऐसा नेत्रने कहा। 'मैं जो सम्पद् हूँ, सो तुम ही उस सम्प से युक्त हो' ऐसा श्रोत्र ने कहा। 'मैं जो आयतन हूँ, सो तुम्ही वह आयतन हो' ऐसा मन ने कहा। 'मैं जो प्रजाति हूँ, सो तुम ही उस प्रजाति से युक्त हो' ऐसा रेतस् ने कहा। प्राणने कहा- 'किंतु ऐसे गुणों से युक्त होने पर मेरा अन्न क्या है और क्या वस्त्र है?' वाणी इत्यादि इन्द्रियां बोले- 'कुत्ते, कृमि और कीट-पतङ्गोंसे लेकर यह जो कुछ भी है, वह सब तेरा अन्न है और जल ही वस्त्र है।' जो इस प्रकार प्राण के अत्रको जानता है, उसके द्वारा अभक्ष्य भक्षण नहीं होता और अभक्ष्य का प्रतिग्रह (संग्रह) भी नहीं होता। ऐसा जानने वाले श्रोत्रिय भोजन करने से पूर्व आचमन करते हैं तथा भोजन करके आचमन करते हैं। इसी को वे उस प्राण को अनग्न करना मानते हैं अर्थात जल रुपी वस्त्र अर्पण करते हैं ॥१४॥ ॥ इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ प्रथम ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ षष्ठोऽध्यायः - द्वितीयं ब्राह्मणम् द्वितीय ब्राह्मण श्वेतकेतुर्ह वा आरुणेयः पञ्चालानां परिषदमाजगाम । स आजगाम जैवलिं प्रवाहणं परिचारयमाणम् । तमुदीक्ष्याभ्युवाद कुमारा३ इति । स भोः ३ इति प्रतिशुश्राव अनुशिष्टोऽन्वसि पित्रेत्योमिति होवाच ॥१॥ प्रसिद्ध है कि आरुणिका पुत्र श्वेतकेतु पाञ्चालों की सभा में आया। वह जैबल के पुत्र प्रवाहण के पास पहुँचा, जो सेवकों से परिचर्या करा रहा था। उसे देखकर प्रवाहण ने कहा, 'ओ कुमार !' वह बोला 'भो !' प्रवाहण ने पूछा- 'क्या तेरे पिताने तुझे शिक्षा दी है?' तब श्वेतकेतु ने कहा 'हाँ' ॥१॥ वेत्थ यथेमाः प्रजाः प्रयत्यो विप्रतिपद्यन्ता३ इति । नेति होवाच । वेत्थो यथेमं लोकं पुनरापद्यन्ता३ इति । नेति हैवोवाच । वेत्थो यथाऽसौ लोक एवं बहुभिः पुनः पुनः प्रयद्भिर्न सम्पूर्यता३ इति नेति हैवोवाच । वेत्थो यतिथ्यामाहुत्या हुतायामापः पुरुषवाचो भूत्वा समुत्थाय वदन्ती३ इति। नेति हैवोवाच । वेत्थो देवयानस्य वा पथः प्रतिपदं पितृयाणस्य वा यत्कृत्वा देवयानं वा पन्थानं प्रतिपद्यन्ते पितृयाणं वाऽपि हि न ऋषेर्वचः श्रुतं द्वे सृती अशृणवं पितृणामहं देवानामुत मर्त्यानां ताभ्यामिदं विश्वमेजत्समेति यदन्तरा पितरं मातरं चेति । नाहमत एकं चन वेदेति होवाच ॥ २॥ प्रवाहण ने पूछाः जिस प्रकार मरने पर यह प्रजा विभिन्न मार्गों से जाती है-'सो क्या तू जानता है?' श्वेतकेतु ने उत्तर दिया : 'नहीं'। प्रवाहण ने पूछाः 'जिस प्रकार वह पुनः इस लोकमें आती है, सो क्या तुझे मालूम है ? श्वेतकेतु ने उत्तर दियाः नहीं'। प्रवाहण ने पूछाः 'इस प्रकार पुनः पुनः बहुतों के मरकर जानेपर भी जिस प्रकार वह लोक भरता नहीं है, सो क्या तू जानता है? श्वेतकेतु ने उत्तर दियाः नहीं'। प्रवाहण ने पूछाः 'क्या तू जानता है कि कितने बारकी आहुतिके हवन करनेपर आप (जल) पुरुष शब्दवाच्य हो उठकर बोलने लगता है ? श्वेतकेतु ने उत्तर दियाः नहीं'। प्रवाहण ने पूछाः 'क्या तू देवयानमार्गका कर्मरूप साधन अथवा पितृयानका कर्मरूप साधन जानता है, जिसे करके लोग देवयानमार्गको प्राप्त होते हैं अथवा पितृयानमार्गको? हमने तो मन्त्रका यह वचन सुना है-'मैंने पितरोंका और देवोंका इस प्रकार दो मार्ग सुने हैं, ये दोनों मनुष्योंसे सम्बन्ध रखनेवाले मार्ग हैं। इन दोनों मार्गोसे जानेवाला जगत् सम्यक् प्रकारसे जाता है तथा ये मार्ग (धुलोक और पृथिवीरूप) पिता और माताके मध्यमें हैं? श्वेतकेतु ने उत्तर दियाः 'मैं इनमें से एकको भी नहीं जानता' । ॥२॥ अथैनं वसत्योपमन्त्रयां चक्रेऽनादृत्य वसतिं कुमारः प्रदुद्राव । स आजगाम पितरं त होवाचेति वाव किल नो भवान्पुराऽनुशिष्टानवोच इति। कथ, सुमेध इति । पञ्च मा प्रश्नात्राजन्यबन्धुरप्राक्षीत् ततो नैकञ्चन वेदेति । कतमे त इति इम इति ह प्रतीकान्युदाजहार ॥ ३॥ फिर राजा ने श्वेतकेतु से ठहरने के लिये प्रार्थना की। किंतु वह कुमार ठहरने की परवाह न करके चल दिया। वह अपने पिता के पास आया और उनसे बोला, 'आपने यही कहा था न, कि मुझे सब विषयोंकी शिक्षा दे दी गयी है?' पिता ने कहा: 'हे सुन्दर धारणा शक्तिवाले! क्या हुआ?' श्वेतकेतु ने कहा: 'मुझसे एक क्षत्रियबन्धुने पाँच प्रश्न पूछे थे, उनमेंसे मैं एकको भी नहीं जानता। पिता ने पूछाः 'वे कौन-से थे?' श्वेतकेतु ने कहाः 'ये थे' ऐसा कहकर उसने उन प्रश्नोंके प्रतीक बतलाये ॥३॥ स होवाच तथा नस्त्वं तात जानीथा यथा यदहं किञ्च वेद सर्वमहं तत्तुभमवोचम् । प्रेहि तु तत्र प्रतीत्य ब्रह्मचर्यं वत्स्याव इति । भवानेव गच्छत्विति । स आजगाम गौतमो यत्र प्रवाहणस्य जैवलेरास । तस्मा आसनमाहृत्योदकमहारयां चकाराथ हास्मा अर्घ्य चकार । त होवाच वरं भगवते गौतमाय दद्म इति ॥ ४॥ उस पिता ने कहा, "हे तात! तू हमारे कथनानुसार ऐसा समझ कि हम जो कुछ जानते थे वह सब हमने तुझसे कह दिया था। अब हम दोनों वहीं चलें और ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक उसके यहाँ निवास करेंगे।' श्वेतकेतु ने कहाः आप ही जाइये। तब वह गौतम जहाँ जैवलि प्रवाहणकी बैठक थी, वहाँ आया। उसके लिये आसन लाकर राजाने जल मँगवाया और उसे अर्घ्यदान किया। फिर बोला, मैं पूज्य गौतम को वर देता हूँ" ॥४॥ स होवाच प्रतिज्ञातो म एष वरो यां तु कुमारस्यान्ते वाचमभाषथास्तां मे ब्रूहीति ॥ ५॥ गौतम ने कहा, 'आपने मुझे जो वर देनेके लिये प्रतिज्ञा की है, उसके अनुसार आपने कुमार से जो बात पूछी थी वह मुझसे कहिये ॥५॥ स होवाच दैवेषु वै गौतम तद्वरेषु मानुषाणां ब्रूहीति ॥ ६॥ प्रवाहण ने कहा, 'गौतम! वह वर तो दैव वरों में से है, तुम मनुष्य सम्बन्धी वरों में से कोई वर माँगो' ॥६॥ स होवाच विज्ञायते हास्ति हिरण्यस्यापात्तं गोअश्वानां दासीनां प्रवाराणां परिधानस्य मा नो भवान्बहोरनन्तस्यापर्यन्तस्याभ्यवदान्यो भूदिति । स वै गौतम तीर्थेनेच्छासा इत्युपैम्यहं भवन्तमिति वाचा ह स्मैव पूर्व उपयन्ति । स होपायनकीर्त्यावास ॥ ७॥ गौतम ने कहा: आप जानते हैं, वह तो मेरे पास है। मुझे सुवर्णकी प्राप्ति तथा गौ, अश्व, दासी, परिवार और परिधान की भी प्राप्ति है। आप महान, अनन्त और निःसीम धनके दाता होकर मेरे लिये अदाता न हों।' प्रवाहण ने कहा : तो गौतम । तुम शास्त्रोक्त विधिसे उसे पानेकी इच्छा करो।' गौतम ने कहा: 'बहुत अच्छा, मैं आपके प्रति शिष्यभाव से उपस्थित) होता हूँ। पहले ब्राह्मण लोग वाणीसे ही क्षत्रियादि के प्रति उपसन्न होते रहे हैं।' इस प्रकार उपसत्ति का वाणी से कथनमात्र करके गौतम वहाँ रहने लगा ॥७॥ स होवाच तथा नस्त्वं गौतम माऽपराधास्तव च पितामहा यथेयं विद्येतः पूर्वं न कस्मिञ्श्चन ब्राह्मण उवास तां त्वहं तुभ्यं वक्ष्यामि को हि त्वैवं ब्रुवन्तमर्हति प्रत्याख्यातुमिति ॥ ८॥ प्रवाहण ने कहा: 'गौतम ! जिस प्रकार तुम्हारे पितामहों ने हमारे पूर्वजों का अपराध नहीं माना, उसी प्रकार तुम भी हमारा अपराध न मानना। इससे पूर्व यह विद्या किसी ब्राह्मणके यहाँ नहीं रही। उसे मैं तुम्हारे ही प्रति कहता हूँ। भला, इस प्रकार विनयपूर्वक बोलनेवाले तुमको विद्या देने से इनकार करने में कौन समर्थ हो सकता है?' ॥८ ॥ असौ वै लोकोऽग्निर्गौतम । तस्याऽऽदित्य एव समिद् रश्मयो धूमो ऽहरर्चिर्दिशोऽङ्गारा अवान्तरदिशो विस्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः श्रद्धां जुह्वति तस्या आहुत्यै सोमो राजा सम्भवति ॥ ९॥ हे गौतम ! यह लोक द्युलोक ही अग्नि है। सूर्य ही उसका ईंधन है, किरणें धुआं हैं, दिन ज्वाला है, दिशाएँ अंगारे हैं, मध्य की दिशाएँ चिनगारियाँ हैं। उस इस अग्नि में देवगण श्रद्धा को हवन करते हैं, उस आहुति से राजा सोम होता है ॥९॥ पर्जन्यो वा अग्निर्गौतम । तस्य संवत्सर एव समिदभ्राणि धूमो विद्युदर्चिरशनिरङ्गारा ह्रादुनयो विस्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः सोमः राजानं जुह्वति तस्या आहुत्यै वृष्टिः सम्भवति ॥ १०॥ हे गौतम ! मेघ ही अग्नि है। संवत्सर ही उसका ईंधन है, अभ्र धुआं हैं, विद्युत् ज्वाला है, बिजली का कड़कना अंगार है, मेघगर्जन चिंगारियां है। उस इस अग्नि में देवगण सोम राजाको हवन करते हैं। उस आहुतिसे वृष्टि होती है ॥१०॥ अयं वै लोकोऽग्निर्गौतम । तस्य पृथिव्येव समिद् अग्निर्धूमो रात्रिरर्चिश्चन्द्रमा अङ्गारा नक्षत्राणि विष्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा वृष्टिं जुह्वति तस्या आहुत्या अन्न सम्भवति ॥ ११॥ हे गौतम ! यह लोक ही अग्नि है। इसकी पृथिवी ही ईंधन है, अग्नि धुआं है, रात्रि ज्वाला है, चन्द्रमा अंगारे है और नक्षत्र चिंगारियां हैं। इस अग्नि में देवता वृष्टि को होमते हैं, उस आहुति से अन्न होता है ॥११॥ पुरुषो वा अग्निर्गौतम । तस्य व्यात्तमेव समित् प्राणो धूमो वागर्चिश्चक्षुरङ्गाराः श्रोत्रं विस्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा अन्नं जुह्वति तस्या आहुत्यै रेतः सम्भवति ॥ १२॥ हे गौतम ! पुरुष ही अग्नि है। उसका खुला हुआ मुख ही ईंधन है, प्राण धुआं है, वाणी ज्वाला है, नेत्र अंगारे हैं, श्रोत्र चिंगारियां हैं। इस अग्नि में देवता अन्न को होमते हैं। उस आहुति से वीर्य होता है ॥१२॥ योषा वा आग्निर्गौतम । तस्या उपस्थ एव समिल्लोमानि धूमो योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेऽङ्गारा अभिनन्दा विस्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुत्यै पुरुषः सम्भवति । स जीवति यावज्जीवत्यथ यदा म्रियते । १३॥ हे गौतम! स्त्री ही अग्नि है। उपस्थ ही उसकी ईंधन है, रोम धुआं है, योनि ज्वाला है, मैथुन क्रिया अंगारे है, आनन्द लेश चिंगारियां हैं। इस अग्नि में देवगण वीर्य होमते हैं, इस आहुति से पुरुष उत्पन्न होता है। वह जीवित रहता है, जब तक उसके कर्म शेष रहते हैं और फिर जब वह मर जाता है ॥१३॥ अथैनमग्नये हरन्ति । तस्याग्निरेवाग्निर्भवति समित्समिद् धूमो धूमोऽर्चिरर्चिरङ्गारा अङ्गारा विस्फुलिङ्गा विस्फुलिङ्गास्तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः पुरुषं जुह्वति तस्या आहुत्यै पुरुषो भास्वरवर्णः सम्भवति ॥ १४॥ तब इसे अग्नि के पास ले जाते हैं। उस आहुतिभूत पुरुष का अग्नि ही अग्नि होता है, लकड़ी ही ईंधन होती है, धुआं ही धुआं होता है, ज्वाला ही ज्वाला होती है, अंगारे ही अंगारे होते हैं और चिंगारियां ही चिंगारियां होते हैं। इस अग्नि में देवगण पुरुष को होमते हैं। इस आहुति से पुरुष अत्यन्त दीप्तिमान् हो जाता है॥ १४॥ ते य एवमेतद्विदुर्ये चामी अरण्ये श्रद्धा सत्यमुपासते तेऽर्चिरभिसम्भवन्त्यर्चिषोऽहोऽह्न आपूर्यमाणपक्ष आपूर्यमाणपक्षाद्यान्षण्मासानुदङ्‌ङादित्य एति मासेभ्यो देवलोकं देवलोकादादित्यमादित्याद्वैद्युतं तान्वैद्युतान्पुरुषो मानस एत्य ब्रह्मलोकान् गमयति ते तेषु ब्रह्मलोकेषु पराः परावतो वसन्ति । तेषां न पुनरावृत्तिः । जो गृहस्थ इस प्रकार इस पञ्चाग्नि विद्या को जानते हैं तथा जो संन्यासी या वानप्रस्थ वन में श्रद्धायुक्त होकर सत्य ब्रह्म अर्थात् हिरण्यगर्भ की उपासना करते हैं, वे ज्योति के अभिमानी देवताओं को प्राप्त होते हैं, ज्योति के अभिमानी देवताओं से दिनके अभिमानी देवता को, दिन के अभिमानी देवता से शुक्ल पक्षाभिमानी देवता को और शुक्ल पक्षाभिमानी देवता से जिन छः महीनों में सूर्य उत्तरकी ओर रहकर चलता है उन उत्तरायण के छः महीनों के अभिमानी देवताओं को प्राप्त होते हैं। षण्मासाभिमानी देवताओं से देवलोकको, देवलोक से सूर्य को और सूर्य से विद्युत्सम्बन्धी देवताओं को प्राप्त होते हैं। उन वैद्युत देवों के पास एक मानस पुरुष आकर इन्हें ब्रह्मलोकों में ले जाता है। वे उन ब्रह्मलोकों में अनन्त वर्षों तक रहते हैं। उनकी पुनरावृत्ति नहीं होती। ॥ १५ ॥ अथ ये यज्ञेन दानेन तपसा लोकाञ्जयन्ति ते धूममभिसम्भवन्ति धूमाद्रात्रि, रात्रेरपक्षीयमाणपक्ष अपक्षीयमाणपक्षाद्यान्षण्मासान्दक्षिणादित्य एति मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकाच्चन्द्रं ते चन्द्रं प्राप्यान्नं भवन्ति तास्तत्र देवा यथा सोम राजानमाप्यायस्व अपक्षीयस्वेत्येवमेनास्तत्र भक्षयन्ति । तेषां यदा तत्पर्यवैत्यथेममेवाऽऽकाशमभिनिष्पद्यन्ते आकाशाद्वायुं वायोवृष्टिं वृष्टः पृथिवीं ते पृथिवीं प्राप्यान्नं भवन्ति ते पुनः पुरुषाग्नौ हूयन्ते ततो योषाग्नौ जायन्ते ते लोकान्प्रत्युथायिनस्त एवमेवानुपरिवर्तन्तेऽथ य एतौ पन्थानौ न विदुस्ते कीटाः पतङ्गा यदिदं दन्दशूकम् ॥ १६॥ और जो यज्ञ, दान, तप के द्वारा लोकों को जीतते हैं, वह धूमाभिमानी देवता को प्राप्त होते हैं। धूम से रात्रि देवता को, रात्रि से अपक्षीयमाण पक्ष कृष्ण पक्षाभिमानी देवता को, अपक्षीयमाण पक्ष से जिन छः महीनोंमें सूर्य दक्षिण की ओर होकर जाता है, उन छः मास के देवताओं को, छः मास के देवताओं से पितृलोक को और पितृलोक से चन्द्रमा को प्राप्त होते हैं। चन्द्रमा में पहुँचकर वे अन्न हो जाते हैं। वहाँ जैसे ऋत्विग्गण सोम राजा को 'आप्यायस्व अपक्षीयस्व' ऐसा कहकर चमस में भरकर पी जाते हैं, उसी प्रकार इन्हें देवगण भक्षण कर जाते हैं। जब उनके कर्म क्षीण हो जाते हैं, तो वे इस आकाशको ही प्राप्त होते हैं। आकाशसे वायु को, वायु से वृष्टि को और वृष्टि से पृथिवी को प्रास होते हैं। पृथिवी को प्राप्त होकर वे अन्न हो जाते हैं। फिर वे पुरुष रूप अग्नि में हवन किये जाते हैं। उससे वे लोक के प्रति उत्थान करने वाले होकर स्त्रीरूप अग्नि में उत्पन्न होते हैं। वे इसी प्रकार पुनः पुनः परिवर्तित होते रहते हैं और जो इन दोनों मार्गों को नहीं जानते, वे कीट, पतंग और मक्खीमच्छर इत्यादि होते हैं ॥ १६ ॥ ॥ इति द्वितीयं ब्राह्मणम् ॥ ॥ द्वितीय ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ षष्ठोऽध्यायः - तृतीयं ब्राह्मणम् तृतीय ब्राह्मण स यः कामयते महत्प्राप्नुयामित्युदगयन आपूर्यमाणपक्षस्य पुण्याहे द्वादशाहमुपसगती भूत्वौदुम्बरे कसे चमसे वा सर्वोषधं फलानीति सम्भृत्य परिसमुह्य परिलिप्याग्निमुपसमाधाय परिस्तीर्याऽऽवृताऽऽज्य सस्कृत्य पुसा नक्षत्रेण मन्थ सन्नीय जुहोति । यावन्तो देवास्त्वयि जातवेदस्तिर्यञ्चो घ्नन्ति पुरुषस्य कामान् तेभ्योऽहं भागधेयं जुहोमि ते मा तृप्ताः सर्वैः कामैस्तर्पयन्तु स्वाहा। या तिरश्ची निपद्यतेऽहं विधरणी इति तां त्वा घृतस्य धारया यजे सराधनीमहः । स्वाहा ॥ १॥ जो यह चाहता हो कि मैं महत्त्व को प्राप्त करूँ, वह उत्तरायण में शुक्ल पक्ष को पुण्य तिथि पर बारह दिन उपसव्रती होकर गूलर की लकड़ी के कटोरे या चमस में औषधियां, फल तथा अन्य सामग्रियों को एकत्रित कर, जहाँ हवन करना हो उस स्थान को झाड, बुहार कर तथा लेप कर अग्नि-स्थापन करता है और फिर अग्नि के चारों ओर कुशा बिछाकर गृह्यसूत्रोक्त विधि से घृत का संस्कारकर जिसका नाम पुंल्लिङ्ग हो, उस हस्त आदि नक्षत्र में मन्थ (सामग्री इत्यादि) को अपने और अग्नि के बीच में रखकर हवन करता है। हे जातवेदः ! तेरे वशवर्ती जितने देवता वक्रमति होकर पुरुषकी कामनाओं का प्रतिबन्ध करते हैं, उनके उद्देश्य से यह आज्यभाग मैं तुझमें हवन करता हूँ। वे तृप्त होकर मुझे समस्त कामनाओं से तृप्त करें-स्वाहा'। 'मैं सबकी मृत्यु को धारण करनेवाला हूँ' ऐसा समझकर जो कुटिल मति देवता तेरा आश्रय करके रहता है, सर्वसाधनों की पूर्ति करनेवाले उस देवताके लिये मैं घी को धारा से यजन करता हूँ- स्वाहा ॥१॥ ज्येष्ठाय स्वाहा श्रेष्ठाय स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सञ्स्रवमवनयति । प्राणाय स्वाहा वसिष्ठायै स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सःस्रवमवनयति । वाचे स्वाहा प्रतिष्ठायै स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सञ्स्रवमवनयति । चक्षुषे स्वाहा सम्पदे स्वाहेति अग्नौ हुत्वा मन्थे सञ्स्रवमवनयति । श्रोत्राय स्वाहाऽऽयतनाय स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सस्रवमवनयति । मनसे स्वाहा प्रजात्यै स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सस्रवमवनयति । रेतसे स्वाहेति अग्नौ हुत्वा मन्थे सञ्स्रवमवनयति ॥ २॥ 'ज्येष्ठाय स्वाहा श्रेष्ठाय स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। 'प्राणाय स्वाहा, वसिष्ठायै स्वाहा' इस मन्त्र से अग्निमें हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। 'वाचे स्वाहा प्रतिष्ठायै स्वाहा' इस मन्त्रसे अग्निमें हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थमें डाल देता है। 'चक्षुषे स्वाहा सम्पदे स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। श्रोत्राय स्वाहा आयतनाय स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। 'मनसे स्वाहा प्रजात्यै स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। 'रेतसे स्वाहा' इस मन्त्रसे अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है॥ २॥ अग्नये स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सञ्स्रवमवनयति । सोमाय स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सस्रवमवनयति । भूः स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सञ्स्रवमवनयति । भुवः स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सञ्स्रवमवनयति । स्वः स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सञ्स्रवमवनयति । भूर्भुवः स्वः स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सस्रवमवनयति । ब्रह्मणे स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सस्रवमवनयति । क्षत्राय स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सस्रवमवनयति । भूताय स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सञ्स्रवमवनयति । भविष्यते स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सञ्स्रवमवनयति । विश्वाय स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सञ्स्रवमवनयति । सर्वाय स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सञ्स्रवमवनयति । प्रजापतये स्वाहेत्यग्नौ हुत्वा मन्थे सस्रवमवनयति ॥ ३॥ 'अग्नये स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। 'सोमाय स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। 'भूः स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। 'भुवः स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। स्वः स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। भूर्भुवः स्वः स्वाहा इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थमें डाल देता है। ब्रह्मणे स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। 'क्षत्राय स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। 'भूताय स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। भविष्यते स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। विश्वाय स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। 'सर्वाय स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है। प्रजापतये स्वाहा' इस मन्त्र से अग्नि में हवन करके सुवा में बचे हुए घृत को मन्थ में डाल देता है॥३॥ अथैनमभिमृशति भ्रमदसि ज्वलदसि पूर्णमसि प्रस्तब्धमस्येकसभमसि हिङ्‌कृतमसि हि‌ङ्क्रियमाणमस्युद्गीथमस्युद्गीयमानमसि श्रावितमसि प्रत्याश्रावितमस्यर्द्र सन्दीप्तमसि विभूरसि प्रभूरस्यन्नमसि ज्योतिरसि निधनमसि संवर्गोऽसीति ॥ ४॥ इसके पश्चात् उस मन्थ को 'भ्रमदसि' इत्यादि मन्त्र द्वारा स्पर्श करता है। मन्थ द्रव्य का अधिष्ठातृ देव प्राण है, इसलिये प्राण से एकरूप होनेके कारण वह सर्वात्मक है 'भ्रमदसि' इत्यादि मन्त्र का अर्थ इस प्रकार है- तू [प्राण रूप से सम्पूर्ण देहों में भ्रमनेवाला है, अग्निरूप से सर्वत्र प्रचलित होने वाला है, ब्रह्मरूप से पूर्ण है, आकाश रूप से अत्यन्त स्तब्ध (निष्कम्प) है, सबसे अविरोधी होनेके कारण तू यह जगद्रूप एक सभाके समान है, तू ही यज्ञ के आरम्भ में प्रस्तोता के द्वारा हिकृत है, तथा उसी प्रस्तोता द्वारा यज्ञ में तू ही हि‌ङ्क्रियमाण है, यज्ञारम्भ में उद्गाता द्वारा तू ही उच्च स्वर से गाया जानेवाला उद्गीथ है और यज्ञके मध्य में उसके द्वारा तू ही उद्गीयमान है। तू ही अध्वर्यु द्वारा श्रावित और आग्नीध्र द्वारा] प्रत्याश्रावित है; आर्द्र अर्थात् मेघ में सम्यक् प्रकार से दीप्त है, तू विभु (विविध रूप होनेवाला) है और प्रभु (समर्थ) है, तू भोक्ता अग्नि रूप से ज्योति है, कारण रूप से सबका प्रलयस्थान है तथा सबका संहार करनेवाला होने से संवर्ग है ॥४॥ अथैनमुद्यच्छत्यमःस्यामः हि ते महि। स हि राजेशानोऽधिपतिः स मा राजेशनोऽधिपतिं करोत्विति ॥ ५॥ फिर 'आमंसि आमंहि' इत्यादि मन्त्र से इसे ऊपर उठाता है। इस मन्त्रका अर्थ- 'आमंसि' तू सब जानता है, 'आमंहि ते महि' मैं तेरी; महिमाको अच्छी तरह जानता हूँ। वह प्राण राजा, ईशान और अधिपति है। वह मुझे राजा, ईशान और अधिपति करे ॥५॥ अथैनमाचामति तत्सवितुर्वरेण्यम् । मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः। भूः स्वाहा । भर्गो देवस्य धीमहि मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव रजः । मधु द्यौरस्तु नः पिता । भुवः स्वाहा। धियो यो नः प्रचोदयात् । मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमा अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः । स्वः स्वाहेति । सर्वां च सावित्रीमन्वाह सर्वाश्च मधुमतीरहमेवेद सर्वं भूयासम् । भूर्भुवः स्वः स्वाहेत्यन्तत आचम्य पाणी प्र रक्षाल्य जघनेनाग्निं प्राक्षिराः संविशति । प्रातरादित्यमुपतिष्ठते दिशामेकपुण्डरीकमसि अहं मनुष्याणामेकपुण्डरीकं भूयासमिति । यथेतमेत्य जघनेनाग्निमासीनो वशं जपति ॥ ६॥ इसके पश्चात् 'तत्सवितुर्वरेण्यम्' इत्यादि मन्त्रसे इस मन्थ को भक्षण करता है। तत्सवितुः इत्यादि मन्त्रका अर्थ तत्सवितुर्वरेण्यम्'- सूर्य के उस वरेण्य श्रेष्ठ पदका मैं ध्यान करता हूँ। 'वातामधु ऋतायते'-हवा मधुर मन्द गतिसे बह रही है। 'सिन्धवः मधु क्षरति'- नदियाँ मधुरस का स्राव कर रही हैं। 'नः ओषधीः माध्वीः सन्तु' हमारे लिये ओषधियाँ मधुर हों।' भूः स्वाहाः' इतने अर्थवाले मन्त्र से मन्थ का पहला ग्रास भक्षण करे। 'देवस्य भर्गः धीमहि' हम सवितादेव के तेजका ध्यान करते हैं।' नक्तमुत उषसः मधु'-रात्र और दिन सुखकर हों। 'पार्थिव रजः मधुमत्' पृथिवीके धूलिकण उद्वेग न करनेवाले हों।' द्यौः पिता न मधु अस्तु' -पिता द्युलोक हमारे लिये सुखकर हो। 'भुवः स्वाहा' इतने अर्थवाले मन्त्र से दूसरा ग्रास भक्षण करे। 'यः नः धियः प्रचोदयात्' जो सवितादेव हमारी बुद्धियोंको प्रेरित करता है। नः वनस्पतिः मधुमान्'- हमारे लिये वनस्पति (सोम) मधुर रसमय हो। 'सूर्यः मधुमान् अस्तु' सूर्य हमारे लिये मधुमान् हो। 'गावः नः माध्वीः भवन्तु' किरणे अथवा दिशाएँ हमारे लिये सुखकर हों। 'स्वः स्वाहा' - इतने अर्थ वाले मन्त्रसे तृतीय ग्रास भक्षण करे। इसके पश्चात् सम्पूर्ण सावित्री (गायत्रीमन्त्र) 'मधु वाता त्रतायते' इत्यादि समस्त मधुमती ऋचा और 'अहमेवेदं सर्वं भूयासम्' (यह सब मैं ही हो जाऊँ) 'भूर्भुवः स्वाहा' इस प्रकार कहकर अन्तमें समस्त मन्थको भक्षण कर दोनों हाथ धो अग्नि के पश्चिम भाग में पूर्व की ओर सिर करके बैठता है। प्रातःकालमें दिशामेकपुण्डरीकमस्यह--भूयासम्" इस मन्त्रद्वारा आदित्य का उपस्थान (नमस्कार) करता है। फिर जिस मार्गसे गया होता है, उसीसे लौटकर अग्नि के पश्चिम भागमें बैठकर आगे कहे जानेवाले) वंश को जपता है ॥६॥ त हैतमूद्दालक आरुणिर्वाजसनेयाय याज्ञवल्क्यायान्तेवासिन उक्त्वोवाचापि य एन शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज् शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेत् जायेरञ्छाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति ॥ ७॥ इस मन्थ का उद्दालक आरुणि ने अपने शिष्य वाजसनेय याज्ञवल्क्य को उपदेश करके कहा था, 'यदि कोई इस मन्थ को सूखे ढूँठ पर डाल देगा तो उससे शाखाएँ उत्पन्न हो जायेंगी और पत्ते निकल आयेंगे ॥७॥ उस इस मन्थ का उद्दालक आरुणिने अपने शिष्य वाजसनेय याज्ञवल्क्यको उपदेश करके कहा था, 'यदि कोई इस मन्थ को सूखे ढूँठ पर डाल देगा तो उससे शाखाएँ उत्पन्न हो जायेंगी और पत्ते निकल आयेंगे' ॥७॥ एतमु हैव वाजसनेयो याज्ञवल्क्यो मधुकाय पै‌ङ्ग्यायान्तेवासिन उक्त्त्वोवाचापि य एन शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज् स्थाणौ निषिञ्चेत् जायेरञ्छाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति ॥ ८ ॥ इस मन्थ का वाजसनेय याज्ञवल्क्य ने अपने शिष्य मधुक पैङ्गय को उपदेश करके कहा था, 'यदि कोई इसे सूखे ढूँठपर डाल देगा तो उसमें शाखाएँ उत्पन्न हो जायेंगी और पत्ते निकल आयेंगे' ॥८ ॥ एतमु हैव मधुकः पैङ्ग्यश्शूलाय भागवित्तयेऽन्तेवासिन उक्त्वोवाचापि य एन शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज् जायेरञ्छाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति ॥ ९॥ इस मन्थ का मधुक पैङ्गय ने अपने शिष्य चूल भागवित्ति को उपदेश करके कहा था, 'यदि कोई इसे सूखे ढूँठपर डाल देगा तो उसमें शाखाएँ उत्पन्न हो जायेंगी और पत्ते निकल आयेंगे' ॥९॥ एतमु हैव चूलो भागवित्तिर्जानकय आयस्थूणायान्तेवासिन उक्त्वोवाचापि य एनः शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज् यसेनम् शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेत् जायेरञ्छाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति ॥ १०॥ इस मन्थ का चूल भागवित्ति ने अपने शिष्य जानकि आयस्थूण को उपदेश करके कहा था, 'यदि कोई इसे सूखे ढूँठपर डाल देगा तो उसमें शाखाएँ उत्पन्न हो जायँगी और पत्ते निकल आयेंगे' ॥१०॥ एतमु हैव जानकिरयस्थूणः सत्यकामाय जाबालायान्तेवासिन उक्त्वोवाचापि य एन शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज् जायेरञ्छाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति ॥ ११॥ इस मन्थ का जानकि आयस्थूण ने अपने शिष्य सत्यकाम जाबाल को उपदेश करके कहा था, 'यदि कोई इसे सूखे ढूँठपर डाल देगा तो उसमें शाखाएँ उत्पन्न हो जायेंगी और पत्ते निकल आयेंगे' ॥ ११॥ एतमु हैव सत्यकामो जाबालोऽन्तेवासिभ्य उक्त्वोवाचापि य एन शुष्के स्थाणौ निषिञ्चेज् जायेरञ्छाखाः प्ररोहेयुः पलाशानीति । तमेतं नापुत्राय वाऽनन्तेवासिने वा ब्रूयात् ॥ १२॥ इस मन्थ का सत्यकाम जाबाल ने अपने शिष्यों को उपदेश करके कहा था, 'यदि कोई इसे सूखे ढूँठपर डाल देगा तो उसमें शाखाएँ उत्पन्न हो जायँगी और पत्ते निकल आयेंगे।' उस इस मन्थ का जो पुत्र या शिष्य न हो, उसे उपदेश न करे ॥ १२ ॥ चतुरौदुम्बरो भवत्यौदुम्बरः सुव औदुम्बरश्चमस औदुम्बर इध्म औदुम्बर्या उपमन्थन्यौ । दश ग्राम्याणि धान्यानि भवन्ति व्रीहियवास्तिलमाषा अणुप्रियङ्गवो गोधूमाश्च मसूराश्च खल्वाश्च खलकुलाश्च तान्पिष्टान्दधनि मधुनि घृत उपसिञ्चत्याज्यस्य जुहोति ॥ १३॥ यह मन्थ कर्म में चार वस्तुएं गूलर की लकड़ी की होती हैं। इसमें गूलर की लकड़ी का सुवा, गूलर की लकड़ी का चमस, गूलर की लकड़ी का ईंधन और गूलर की लकड़ी की दो उपमन्थनी (रगड़ने वाले लकड़ियाँ) होती हैं। इसमें व्रीहि (धान), यव, (जौ), तिल, माष (उड़द), अणु (साँवा), प्रियङ्गु (काँगनी), गोधूम (गेहूँ), मसूर, खल्व (बाल) और खलकुल (कुलथी) दस ग्रामीण अन्न उपयुक्त होते हैं। उन्हें पीसकर दही, मधु और घृत में मिलाकर घृत से हवन होता है।॥ १३ ॥ ॥ इति तृतीयं ब्राह्मणम् ॥ ॥ तृतीय ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ षष्ठोऽध्यायः - चतुर्थं ब्राह्मणम् चौथा ब्राह्मण एषां वै भूतानां पृथिवी रसः पृथिव्या आपोऽपामोषधय ओषधीनां पुष्पाणि पुष्पाणां फलानि फलानां पुरुषः पुरुषस्य रेतः ॥१॥ इन प्राणियों का रस (आधार अथवा सार) पृथिवी है, पृथिवी का रस जल है, जल का रस ओषधियाँ हैं, ओषधियों का रस पुष्प है, पुष्पों का रस फल है, फलों का रस पुरुष है तथा पुरुष का रस शुक्र है ॥१॥ स ह प्रजापतिरीक्षांचक्रे हन्तास्मै प्रतिष्ठां कल्पयानीति स स्त्रियः ससृजे । ताः सृष्ट्वाऽध उपास्त तस्मास्त्रियमध उपासीत स एतं प्राञ्चं ग्रावाणमात्मन एव समुदपारयत् तेनैनामभ्यसृजत् ॥ २॥ सुप्रसिद्ध प्रजापति ने विचार किया कि मैं इस वीर्य की स्थापना के लिये किसी योग्य प्रतिष्ठा (आधार भूमि) का निर्माण करूँ, अतः उन्होंने स्त्री की सृष्टि की। उसकी सृष्टि करके उन्होंने उसके अधोभाग की उपासना की अर्थात मैथुनक्रिया का विधान किया। प्रजापति ने इस उत्कृष्ट गतिशील प्रस्तर खण्ड-सदृश शिश्नेन्द्रिय को उत्पन्न करके उसे स्त्री की ओर प्रेरित किया, इससे उस स्त्री का संसर्ग किया।॥ १३ ॥ तस्या वेदिरुपस्थो लोमानि बर्हिश्चर्माधिषवणे समिद्धो मध्यतस्तौ मुष्कौ । स यावान्ह वै वाजपेयेन यजमानस्य लोको भवति तावानस्य लोको भवति य एवं विद्वानधोपहासं चरत्यासा स्त्रीणा सुकृतं वृङ्क्तेऽथ य इदमविद्वानधोपहासं चरत्याऽस्य स्त्रियः सुकृतं वृञ्जते ॥ ३॥ स्त्री की उपस्थेन्द्रिय वेदी है, वहाँ के रोएँ कुशा हैं, योनि का मध्यभाग प्रज्वलित अग्नि है, योनि के पार्श्वभागमें जो दो कठोर मांसखण्ड हैं उनको मुष्क कहते हैं, वे दोनों मुष्क ही 'अधिषवण' नामसे प्रसिद्ध चर्ममय सोमफलक हैं। वाजपेय यज्ञ करने से यजमान को जितना पुण्यलोक प्राप्त होता है, उतना ही उसे भी प्राप्त होता है। जो कि इस प्रकार जानकर मैथुन का आचरण करता है, वह इन स्त्रियों के पुण्यको अवरुद्ध कर लेता है और जो इसे नहीं जानता है, वह यदि मैथुन करता है तो स्त्रियाँ ही उसके पुण्य को अवरुद्ध कर लेती हैं ॥ ३॥ एतद्ध स्म वै तद्विद्वानुद्दालक आरुणिराहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान्नाको मौद्गल्य आहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान् कुमारहारित आह एतद् ध स्म वै तद् विद्वान् कुमारहारितसाह बहवो मर्या ब्राह्मणायना निरिन्द्रिया विसुकृतोऽस्माल्लोकात्प्रयन्ति य इदमविद्वा सोऽधोपहासं चरन्तीति बहु वा इद सुप्तस्य वा जाग्रतो वा रेतः स्कन्दति ॥ ४॥ निश्चय ही इस मैथुनकर्म को वाजपेय सम्पन्न जाननेवाले अरुणनन्दन उद्दालक कहते हैं, इसे उस रूप में जाननेवाले मुद्गलपुत्र नाक कहते हैं तथा इसे उक्त रूपमें जाननेवाले कुमारहारित मुनि भी कहते हैं कि 'बहुत-से ऐसे मरणधर्मा नाममात्र के ब्राह्मण हैं, जो निरिन्द्रिय, सुकृतहीन और मैथुन-विज्ञान से अपरिचित होकर भी मैथुनकर्म में आसक्ति पूर्वक प्रवृत्त होते हैं, वे परलोक से भ्रष्ट हो जाते हैं। यदि पत्नी का ऋतुकाल प्राप्त होनेसे पूर्व इस प्राणोपासक का वीर्य अधिक या कम सोते समय अथवा जागते समय गिर जाता है तो उसे निम्नाङ्कित प्रायश्चित्त करना चाहिये ॥४॥ तदभिमृशेदनु वा मन्त्रयेत यन्मेऽद्य रेतः पृथिवीमस्कान्त्सीद् यदोषधीरप्यसरद् यदपः । इदमहं तद्रेत आददे पुनर्मामैत्विन्द्रियं पुनस्तेजः पुनर्भगः । पुनरग्निर्धिष्ण्या यथास्थानं कल्पन्तामित्यनामिकाङ्‌गुष्ठाभ्यामादायान्तरेण स्तनौ वा ध्रुवौ वा निमृज्यात् ॥ ५॥ उस वीर्य को हाथसे छूए तथा अभिमन्त्रित करे-स्पर्श करते समय इस प्रकार कहे-'आज जो मेरा वीर्य स्खलित होकर पृथिवी पर गिरा है, जो पहले कभी अन्न में भी गिरा है तथा जो जलमें पड़ा है उस इस वीर्यको मैं ग्रहण करता हूँ।' ऐसा कहकर अनामिका और अंगूठे से उस वीर्यको ग्रहण करके दोनों स्तनों अथवा भौंहों के बीचमें लगावे। लगाते समय इस प्रकार कहे- जो स्खलित वीर्य रूप से बाहर निकल गयी थी, वह मेरी इन्द्रिय पुनः मेरे पास लौट आवे। मुझे पुनः तेज और पुनः सौभाग्य की प्राप्ति हो। अग्नि ही जिनके स्थान हैं, वे देवगण पुनः मेरे शरीरमें उस वीर्य को यथास्थान स्थापित करे दें।॥५॥ अथ यद्युदक आत्मानं पश्येत् तदभिमन्त्रयेत मयि तेज इन्द्रियं यशो द्रविणः सुकृतमिति । श्रीर्ह वा एषा स्त्रीणां यन्मलोद्वासास्तस्मान्मलोद्वाससं यशस्विनीमभिक्रम्योपमन्त्रयेत ॥ ६॥ यदि कभी भूल से जल में वीर्य स्खलित हो जाने पर वहाँ अपनी परछाईं देख ले, तब उस जल को इस प्रकार अभिमन्त्रित करे- 'देवगण मुझमें तेज, इन्द्रिय (वीर्य), यश, धन और सत्कर्म की प्रतिष्ठा करें।' तत्पश्चात् जिसके गर्भ से पुत्र उत्पन्न करना हो उस पत्नी की इस प्रकार स्तुति (प्रशंसा) करे- यह मेरी पत्नी संसार की समस्त स्त्रियों में लक्ष्मीस्वरूपा है; क्योंकि इसके वस्त्र में रजस्वलापनके चिह्न स्पष्ट दिखायी देते हैं।' तदनन्तर जब वह रजस्वला एवं यशस्विनी पत्नी तीन रात के बाद स्नान कर ले तब उस के पास जाकर कहे आज हम दोनोंको वह कार्य करना है, जिससे पुत्र की उत्पत्ति होती है। ॥ ६ ॥ सा चेदस्मै न दद्यात् काममेनामवक्रिणीयात् सा चेदस्मै नैव दद्यात् काममेनां यष्ट्या वा पाणिना वोपहत्यातिक्रामेदिन्द्रियेण ते यशसा यश आदद इत्ययशा एव भवति ॥ ७॥ पत्नी यदि पति को मैथुन न करने दे तो पति उसे उसकी इच्छा के अनुसार वस्त्र, आभूषण आदि देकर उसके प्रति अपना प्रेम प्रकट करे। इतने पर भी यदि वह मैथुन का अवसर न दे तो वह पति इच्छानुसार दण्ड का भय दिखाकर उसके साथ समागम करे। यदि यह भी सम्भव न हो तो कहे 'मैं तुझे शाप देकर दुर्भगा बना दूंगा।' ऐसा कहकर वह उसके निकट जाय और 'मैं अपनी यशः-स्वरूप इन्द्रियद्वारा तेरे यशको छीने लेता हूँ।' इस मन्त्रका उच्चारण करे। इस प्रकार शाप देनेपर वह अयशस्विनी दुर्भगा हो ही जाती है ॥७॥ सा चेदस्मै दद्यादिन्द्रियेण ते यशसा यश आदधामीति यशस्विनावेव भवतः ॥ ८॥ पत्नी यदि पति को मैथुन का अवसर दे तो उसे आशीर्वाद देते हुए कहे-मैं अपनी यशोरूप इन्द्रिय द्वारा तुझमें यश की ही स्थापना करता हूँ।' तब वे दोनों दम्पति यशस्वी ही होते हैं। ॥८॥ स यामिच्छेत् कामयेत मेति तस्यामर्थं निष्ठाय मुखेन मुख सन्धायोपस्थमस्या अभिमृश्य जपेदङ्गादङ्गात्सम्भवसि हृदयादधिजायसे । स त्वमङ्गकषायोऽसि दिग्धविद्धमिव मादयेमाममूं मयीति ॥ ९॥ वह पुरुष अपनी जिस पत्नीके सम्बन्धमें ऐसी इच्छा करे कि यह मुझे हृदयसे चाहे, उसकी योनि में अपनी जननेन्द्रिय को स्थापित करके और अपने मुख से उसके मुख को मिलाकर उसके उपस्थभाग का स्पर्श करते हुए इस मन्त्रका जप करे-'हे वीर्य! तुम मेरे प्रत्येक अंग में प्रकट होते हो, विशेषतः हृदय से नाड़ीद्वारा तुम्हारा प्रादुर्भाव होता है, तुम मेरे अंगों के रस हो। अतः जिस प्रकार विष लगाये हुए बाण से घायल हुई हरिणी मूच्छित हो जाती है, उसी प्रकार तुम मेरी इस पत्नी को मेरे प्रति उन्मत्त बना दो-इसे मेरे अधीन कर दो' ॥ ९॥ अथ यामिच्छेन् न गर्भ दधीतेति तस्यामर्थं निष्ठाय मुखेन मुखः सन्धायाभिप्राण्यापान्यादिन्द्रियेण ते रेतसा रेत आदद इत्यरेता एव भवति ॥ १०॥ अपनी जिस पत्नीके विषय में ऐसी इच्छा हो कि वह गर्भधारण न करे तो उसकी योनिमें अपनी जननेन्द्रियको स्थापित करके उसके मुखसे अपना मुख मिलाकर अभिप्राणन कर्म करके अपानन क्रिया करे और कहे-'इन्द्रिय स्वरूप वीर्य के द्वारा मैं तेरे रेतस् को ग्रहण करता हूँ', ऐसा करनेपर वह रेतोहीन ही हो जाती है-गर्भिणी नहीं होती ॥१०॥ अथ यामिच्छेद् दधीतेति तस्यामर्थं निष्ठाय मुखेन मुख सन्धायापान्याभिप्राण्यादिन्द्रियेण ते रेतसा रेत आदधामीति गर्भिण्येव भवति ॥ ११॥ पुरुष को अपनी जिस पत्नी के सम्बन्ध में ऐसी इच्छा हो कि यह गर्भ धारण करे, वह उसकी योनि में अपनी जननेन्द्रिय स्थापित करके उसके मुख से मुख मिलाकर पहले अपानन क्रिया करके पश्चात् अभिप्राणन कर्म करे और कहे-'मैं इन्द्रियरूप वीर्य के द्वारा तेरे रेतस् का आधान करता हूँ।' ऐसा करनेसे वह गर्भवती ही होती है ॥११॥ अथ यस्य जायायै जारः स्यात् तं चेद् द्विष्यादामपात्रेऽग्निमुपसमाधाय प्रतिलोमः शरबर्हिस्तीर्वा तस्मिन्नेताः शरभृष्टीः प्रतिलोमाः सर्पिषाऽक्ता जुहुयान् मम समिद्धेऽहौषीः प्राणापानौ त आददेऽसाविति । मम समिद्धेऽहौषीः पुत्रपशूस्त आददे ऽसाविति । मम समिद्धेऽहौषीरिष्टासुकृते त आददेऽसाविति । मम समिद्धेऽहौषीराशापराकाशौ त आददेऽसाविति । स वा एष निरिन्द्रियो विसुकृतोऽस्माल्लोकात्प्रैति यमेवंविद्ब्राह्मणः शपति । तस्मादेवंवित्छ्रोत्रियस्य दारेण नोपहासमिच्छेदुत ह्येवंवित्परो भवति ॥ १२॥ जिस गृहस्थ विद्वान की पत्नी का किसी जार पुरुष से सम्बन्ध हो, वह पति उस जार से द्वेषभाव रखकर उसे दण्ड देना चाहे तो वह मिट्टी के कच्चे बर्तन में पञ्चभूसंस्कार पूर्वक अग्नि-स्थापन करके विपरीत क्रम से अर्थात् दक्षिणाग्र या पश्चिमाग्रभाव से सरकंडोंका बर्हिष बिछाकर उनकी बाणाकार सींकों को घी से भिगोकर उनके अग्रभाग को विपरीत दिशा में ही रखते हुए उस अग्नि में उनकी चार आहुतियाँ दे। उन आहुतियोंके मन्त्र इस प्रकार हैं-] 'मम समिद्धेऽहौषीः प्राणापानौ त आददे' यह मन्त्र पढ़कर 'फट' शब्द का उच्चारण करके पहली आहुति दे, आहुतिके अन्त में 'असौ मम शत्रुः' इस प्रकार बोलकर शत्रुका नाम लेना चाहिये। पूर्ववत् 'मम समिद्धेहोषीः पुत्रपयूँस्त आददे' यह मन्त्र बोलकर दूसरी आहुति दे और अन्तमें 'असौ-' कहकर शत्रुका नाम ले। इसी प्रकार 'मम समिद्धेऽहौषीरिष्टासुकृते त आददे' यह मन्त्र बोलकर तीसरी आहुति दे और अन्तमें 'असौ' कहकर शत्रुका नाम ले तथा 'मम समिद्धेऽहौषीराशापराकाशौ त आददे' यह मन्त्र पढ़कर चौथी आहुति दे और पूर्ववत् 'असौ' कहकर शत्रु के नाम का उच्चारण करे। इस प्रकार मन्थ कर्म को जाननेवाला प्राणदर्शी विद्वान् ब्राह्मण जिसको शाप देता है, वह इन्द्रियरहित एवं पुण्यहीन होकर इस लोक से चल बसता है। अतः परस्त्रीगमन के इस भयंकर परिणामको जाननेवाला पुरुष किसी श्रोत्रिय की पत्नी से सम्भोग की तो बात ही क्या है, परिहास की भी इच्छा न करे; क्योंकि उक्त अभिचार कर्म को जाननेवाला श्रोत्रिय उसका शत्रु बन जाता है ॥ १२॥ अथ यस्य जायामार्तवं विन्देत् त्र्यहं कसे न पिबेदहतवासा नैनां वृषलो न वृषल्युपहन्यात् अपहन्यात् त्रिरात्रान्त आप्लुत्य व्रीहीनवघातयेत् ॥ १३॥ जिसकी पत्रीको ऋतुभाव (रजोधर्म) प्राप्त हो, उसकी वह पत्नी तीन दिनों तक कांसे के बर्तनों में न खाय और चौथे दिन स्नान के बाद ऐसा वस्त्र पहने फटा न हो, साफ-सुथरा हो। इसे कोई शूद्रजातीय स्त्री या पुरुष न छुए। वह रजस्वला नारी जब तीन दिन बीतनेपर स्नान कर ले तो उसे धान कूटने के काम में लगावे ॥ १३॥ स य इच्छेत् पुत्रो मे शुक्लो जायेत वेदमनुब्रुवीत सर्वमायुरियादिति क्षीरौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै ॥ १४॥ जो पुरुष चाहता हो कि मेरा पुत्र शुक्ल वर्णका हो, एक वेदका अध्ययन करे और पूरे सौ वर्षों की आयुतक जीवित रहे, उस दशामें वे दोनों पति-पत्नी दूध और चावलको पकाकर खीर बना लें और उसमें घी मिलाकर खायें। इससे वे उपर्युक्त योग्यतावाले पुत्रको उत्पन्न करनेमें समर्थ होते हैं ॥ १४॥ अथ य इच्छेत् पुत्रो मे कपिलः पिङ्ग‌लो जायेत द्वौ वेदावनुब्रुवीत सर्वमायुरियादिति दध्योदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै ॥ १५॥ जो चाहे कि मेरा पुत्र कपिल या पिङ्गल वर्णका हो, दो वेदों का अध्ययन करे और पूरे सौ वर्षों तक जीवित रहे तो वह और उसकी पत्नी दही के साथ भात पकाकर उसमें घी मिलाकर खायें। इससे वे वैसे पुत्र को जन्म देने में समर्थ होते हैं ॥१५॥ अथ य इच्छेत् पुत्रो मे श्यामो लोहिताक्षो जायेत त्रीन्वेदाननुब्रुवीत सर्वमायुरियादित्युदौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै ॥ १६॥ जो चाहे कि मेरा पुत्र श्याम वर्ण, अरुण नयन हो, तीन वेदों का स्वाध्याय करे तथा पूरे सौ वर्षों तक जीवित रहे, वह और उसकी पत्नी केवल जल में चावल पकाकर भात तैयार कर लें और उसमें घी मिलाकर खायें। इससे वे उक्त योग्यता वाले पुत्र को जन्म देने में समर्थ होते हैं ॥ १६॥ अथ य इच्छेद् दुहिता मे पण्डिता जायेत सर्वमायुरियादिति तिलौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै ॥ १७॥ जो चाहता हो कि मेरी पुत्री विदुषी हो और पूरे सौ वर्षों की आयुतक जीवित रहे, वह और उसकी पत्नी तिल और चावल की खिचड़ी पकाकर उसमें घी मिलाकर खायें। इससे वे उक्त योग्यतावाली कन्या को जन्म देने में समर्थ होते हैं।॥ १७॥ अथ य इच्छेत् पुत्रो मे पण्डितो विगीतः समितिङ्गमः शुश्रूषितां वाचं भाषिता जायेत सर्वान्वेदाननुब्रुवीत सर्वमायुरियादिति मासौदनं पाचयित्वा सर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै । औक्षेण वाऽऽर्षभेण वा ॥ १८ ॥ जो चाहता हो कि मेरा पुत्र प्रख्यात पण्डित, विद्वानों की सभामें निर्भय प्रवेश करनेवाला तथा श्रवणसुखद वाणी बोलनेवाला हो, सम्पूर्ण वेदों का स्वाध्याय करे और पूरे सौ वर्षों तक जीवित रहे, वह पुरुष और उसकी पत्नी ओषधियों का गूदा और चावल पकाकर उसमें घी मिलाकर खायें। इससे वे उक्त योग्यतावाले पुत्रको जन्म देने में समर्थ होते हैं। उक्षा अथवा ऋषभ नामक ओषधि के गूदेके साथ खानेका नियम है ॥ १८ ॥ अथाभिप्रातरेव स्थालीपाकावृताऽऽज्यं चेष्टित्वा स्थालीपाकस्योपघातं जुहोत्यग्नये स्वाहाऽनुमतये स्वाहा देवाय सवित्रे सत्यप्रसवाय स्वाहेति हुत्वोद्धृत्य प्राश्नाति । प्राश्येतरस्याः प्रयच्छति । प्रक्षाल्य पाणी उदपात्रं पूरयित्वा तेनैनां त्रिरभ्युक्षत्युत्तिष्ठातो विश्वावसोऽन्यामिच्छ प्रपूर्व्या सं जायां पत्या सहेति ॥ १९॥ तदनन्तर चौथे दिन प्रातःकाल ही संध्या आदि का अनुष्ठान करके पली के कूटे हुए चावलों को लेकर स्थालीपाक की विधिसे घी का संस्कार करके चरु पकाकर उसका भी संस्कार करके स्थालीपाक के अन्न में से थोड़ा-थोड़ा लेकर प्रधान आहुतियाँ दे, उनके मन्त्र इस प्रकार हैं-'अग्नये स्वाहा, अनुमतये स्वाहा, देवाय सवित्रे सत्यप्रसवाय स्वाहा'। इस प्रकार आहुति देकर 'स्विष्टकृत्' होम करके स्थाली में बचे हुए चरु को एक पात्र में निकालकर उसमें घी मिलाकर पहले पति उस अन्न को खाता है। खाकर उसी उच्छिष्ट अन्न को अपनी पत्नी के लिये देता है। तत्पश्चात् हाथ-पैर धोकर शुद्ध आचमन करके जलपात्र को भरकर उसी जल से अपनी पत्नी का तीन बार अभिषेक करे। अभिषेक का मन्त्र इस प्रकार है-'उत्तिष्ठातो विश्वावसोऽन्यामिच्छ प्रपूा संजायां पत्या सह' ॥ १९ ।। अथैनामभिपद्यतेऽमोऽहमस्मि सा त्व सा त्वमस्यमोऽह सामाहमस्मि ऋक्त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम् । तावेहि सरभावहै सह रेतो दधावहै पुसे पुत्राय वित्तय इति ॥ २०॥ तदनन्तर पति अपनी कामना के अनुसार पली की खीर आदि भोजन कराने के पश्चात् शयनकाल में 'अमोऽहमस्मि' इत्यादि मन्त्र पढ़कर उसका आलिङ्गन करे। उस मन्त्रका भाव इस प्रकार है- 'देवि! मैं प्राण हूँ, तुम वाक् हो; तुम वाक् हो, मैं प्राण हूँ, मैं साम हूँ, तुम ऋत हो; मैं आकाश हूँ, तुम पृथ्वी हो; अतः आओ, हम दोनों दम्पति एक- दूसरेका आलिङ्गन करें, एक साथ रेतस् धारण करें, जिससे हमें पुरुषत्वविशिष्ट पुत्र का लाभ हो ॥२०॥ अथास्या ऊरू विहापयति विजिहीथां द्यावापृथिवी इति । तस्यामर्थं निष्ठाय मुखेन मुखः सन्धाय त्रिरेनामनुलोमामनुमार्टि विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिशतु आसिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भ दधातु ते। गर्भ धेहि सिनीवालि गर्भ धेहि पृथुष्टुके । गर्भ ते आश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ ॥ २१॥ तत्पश्चात् पत्नी के ऊरुद्वय (दोनों जाँघों) को एक-दूसरे से विलग करे। उस समय यह मन्त्र पढ़ना चाहिये- 'विजिहीथां द्यावापृथिवी इति' हे ऊरुस्वरूप आकाश और पृथिवी! तुम दोनों विलग होओ इसके बाद पत्नी की योनि में अपनी जननेन्द्रिय स्थापित करके उसके मुँह से मुँह मिलाकर अनुलोम-क्रम से पत्नी के केशादि पादान्त सम्पूर्ण शरीर का तीन बार मार्जन करे मार्जन काल में 'विष्णुर्योनिं कल्पयतु' इत्यादि मन्त्रका पाठ करे, जिसका भाव इस प्रकार है- प्रिये ! सर्वव्यापी भगवान् विष्णु तेरी जननेन्द्रिय को पुत्र की उत्पत्ति में समर्थ बनावें। भगवान् सूर्य तेरे तथा उत्पन्न होनेवाले बालक के अङ्गों को विभागपूर्वक पुष्ट एवं दर्शनीय बनावें। विराट् पुरुष भगवान् प्रजापति मुझसे अभिन्नरूपमें स्थित हो तुझमें वीर्यका आधान करें। भगवान् धाता मुझसे अभिन्न भावसे स्थित हो तेरे गर्भका धारण एवं पोषण करें। देवि! जिसकी भूरि-भूरि स्तुति की जाती है, वह सिनीवाली जिसमें चन्द्रमाकी एक कला शेष रहती है, वह अमावास्या तुम हो, तुम यह गर्भ धारण करो, धारण करो। देव अश्विनीकुमार (सूर्य और चन्द्रमा) अपनी किरणरूपी कमलोंकी माला धारण करके मुझसे अभिन्नरूप में स्थित हो तुझ में गर्भका आधान करें ॥ २१॥ हिरण्मयी अरणी याभ्यां निर्मन्थतामाश्विनौ तं ते गर्भ हवामहे दशमे मासि सूतये । यथाऽग्निगर्भा पृथिवी यथा द्यौरिन्द्रेण गर्भिणी वायुर्दिशां यथा गर्भ एवं गर्भ दधामि तेऽसाविति ॥ २२॥ प्राचीन कालमें ज्योतिर्मयी अरणियाँ थीं, जिनसे अश्विनीकुमारोंने मन्थन किया। उस मन्थनसे अमृतरूप गर्भ प्रकट हुआ। उसी अमृतरूप गर्भ को हम तेरी कुक्षि में स्थापित करते हैं। इसलिये कि तू इसे दसवें महीनेमें उत्पन्न कर सके। जैसे पृथ्वी का गर्भ अग्रि है, जैसे स्वर्गीय भूमि इन्द्र से गर्भवती है, जैसे दिशओं का गर्भ वायु है, उसी प्रकार मैं तुझमें पुत्ररूप गर्भ स्थापित करता हूँ, अमुक देवि ! ॥२२॥ सोष्यन्तीमद्भिरभ्युक्षति यथा वायुः पुष्करिणी समिङ्गयति सर्वतः । एवा ते गर्भ एजतु सहावैतु जरायुणा । इन्द्रस्यायं व्रजः कृतः सार्गलः सपरिश्रयः । तमीन्द्र निर्जहि गर्भेण सावरा सहेति ॥ २३॥ प्रसवकाल में प्रसव करनेवाली स्त्रीके ऊपर 'यथा वायुः' इत्यादि मन्त्र पढ़कर जल छिड़के। मन्त्रार्थ इस प्रकार है- 'जैसे वायु पोखरी के जल को सब ओर से चञ्चल कर देती है, उसी प्रकार तेरा गर्भ अपने स्थान से चले और जरायुके साथ बाहर निकले। इन्द्र (प्रसूति वायुके) लिये यह योनिरूप मार्ग निर्मित हुआ है; जो अर्गला-गर्भवेष्टन (जरायु) के साथ है। इन्द्र ! (प्रसव वायो!) उस मार्गपर पहुँचकर तुम गर्भ एवं मांसपेशीके साथ बाहर निकलो ॥ २३॥ जातेऽग्निमुपसमाधायाङ्क आधाय कसे पृषदाज्यः सन्नीय पृषदाज्यस्योपघातं जुहोत्यस्मिन्सहस्रं पुष्यासमेधमानः स्वे गृहे । अस्योपसन्द्यां मा च्छेत्सीत् प्रजया च पशुभिश्च स्वाहा । मयि प्राणास्त्वयि मनसा जुहोमि स्वाहा । यत् कर्मणाऽत्यरीरिचं यद्वा न्यूनमिहाकरम् । अग्निष्टत्स्विष्टकृद्विद्वान् स्विष्ट सुहुतं करोतु नः स्वाहेति ॥ २४॥ पुत्र उत्पन्न होनेपर पिता उसे अपनी गोद में लेकर अग्नि की स्थापना करके कांसे के कटोरे में दधि मिश्रित घी रखकर उसका थोड़ा- थोड़ा-सा अंश लेकर "अस्मिन् सहस्रम्" इत्यादि मन्त्रों द्वारा अग्नि में आहुति दे। मन्त्रार्थ इस प्रकार है- अपने इस घर में पुत्ररूप से वृद्धि को प्राप्त हुआ मैं सहस्रों मनुष्यों का एकमात्र पोषण करनेवाला होऊँ। मेरे इस पुत्र की संतति में प्रजा तथा पशुओं के साथ सम्पत्तिका कभी उच्छेद न हो-स्वाहा। मुझ पिता में जो प्राण हैं, उन प्राणों का तुझ पुत्र में मैं मन-ही-मन होम करता हूँ, स्वाहा। मैंने प्रधान कर्म करने के साथ-साथ जो कुछ अधिक कार्य कर डाला हो अथवा आवश्यक कर्म में भी जो न्यूनता (त्रुटि) कर दी हो, हमारे उस कर्मको विद्वान् अनिदेव अभीष्टसाधक होकर स्विष्ट और सुहुत (न्यूनातिरिक्त दोषसे रहित) कर दें-स्वाहा ॥२४॥ अथास्य दक्षिणं कर्णमभिनिधाय वाग्वागिति त्रिरथ दधि मधु घृतः सन्नीयानन्तर्हितेन जातरूपेण प्राशयति । भूस्ते दधामि भुवस्ते दधामि स्वस्ते दधामि भूर्भुवः स्वः सर्वं त्वयि दधामीति ॥ २५॥ स्विष्टकृत होम के अनन्तर पिता शिशु के दाहिने कान को अपने मुखके पास ले आकर 'वाक्, वाक्, वाक्' इस प्रकार तीन बार कहे । तत्पश्चात् दही, मधु और घी एक में मिलाकर उसे दूसरे धातुओं के मेलसे रहित विशुद्ध सोनेकी चम्मच से बालक को चटावे। उस समय इन चार मन्त्रोंका पाठ करे- 'भूस्ते दधामि' 'भुवस्ते दधामि' 'स्वस्ते दधामि' 'भूर्भुवः स्वः सर्वं त्वयि दधामि ॥ २५ ॥ अथास्य नाम करोति वेदोऽसीति । तदस्यैतद्‌गुह्यमेव नाम भवति ॥ २६॥ इसके पश्च्यात बालक के दाहिने कान को अपने मुखके पास ले जाकर 'वाक् वागिति त्रिजपेत्। अथ दधि | वाक्' यह तीन बार जपे। इसके बाद बालकका नामकरण करे। 'तुम वेद हो।' अतः वेद यह उस बालकका गुप्त नाम ही होता है ।। २६ ।। अथैनं मात्रे प्रदाय स्तनं प्रयच्छति यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रो येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वति तमिह धातवे करिति ॥ २७॥ तदनन्तर इस बालक को माता की गोद में देकर 'यस्ते स्तनः' इत्यादि मन्त्र पढ़ते हुए स्तन पिलावे। मन्त्र का भाव इस प्रकार है- 'हे सरस्वति! तुम्हारा जो स्तन दूध का अक्षयभण्डार तथा पोषण का आधार है, जो रत्नों को खान है तथा सम्पूर्ण धन-राशि का ज्ञाता और उदार दानी है तथा जिसके द्वारा तुम समस्त वरणीय पदार्थों का पोषण करती हो, इस सत्पुत्र के जीवनधारणार्थ उस स्तन को तुम मेरी पत्नी के शरीरमें प्रविष्ट होकर इस शिशुके मुख में दे दो।॥ २७॥ अथास्य मातरमभिमन्त्रयते । इलाऽसि मैत्रावरुणी वीरे वीरमजीजनत् । सा त्वं वीरवती भव याऽस्मान्वीरवतोऽकरदिति । तं वा एतमाहुरतिपिता बताभूरतिपितामहो बताभूः । परमां बत काष्ठां प्रापयच्छ्रिया यशसा ब्रह्मवर्चसेन य एवंविदो ब्राह्मणस्य पुत्रो जायत इति ॥ २८ ॥ इसके बाद बालक की माताको इस प्रकार 'इलासि' इत्यादि मन्त्रद्वारा अभिमन्त्रित करे। मन्त्र का भाव इस प्रकार है- 'हे देवि! तू ही स्तुति के योग्य मैत्रावरुणी-अरुन्धती है। वीरे! तूने वीर पुत्र को जन्म देकर हमें वीरवान्-वीर पुत्र का पिता बनाया है, अतः तू वीरवती हो। इस बालक को देखकर दूसरे लोग कहें-'तू सचमुच अपने पिता से भी आगे बढ़ गया, तू निःसंदेह अपने पितामह से भी श्रेष्ठ निकला, तू लक्ष्मी, कीर्ति तथा ब्रह्मतेज के द्वारा उन्नति की चरम सीमा को पहुँच गया।' इस प्रकार विशिष्टज्ञान सम्पन्न जिस ब्राह्मण के ऐसा पुत्र उत्पन्न होता है, वह पिता भी इसी प्रकार स्तुत्य होता है ॥२८॥ इति चतुर्थं ब्राह्मणम् ॥ ॥ चौथा ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥बृहदारण्यकोपनिषद ॥ अथ षष्ठोऽध्यायः - पञ्चमं ब्राह्मणम् पांचवां ब्राह्मण अथ वशः । पौतिमाषीपुत्रः कात्यायनीपुत्रात् कात्यायनीपुत्रो गौतमीपुत्राद् गौतमीपुत्रो भारद्वाजीपुत्राद् भारद्वाजीपुत्रः पाराशरीपुत्रात् पाराशरीपुत्र औपस्वस्तीपुत्रादौपस्वस्तीपुत्रः पाराशरीपुत्रात् पाराशरीपुत्रः कात्यायनीपुत्रात् कात्यायनीपुत्रः कौशिकीपुत्रात् कौशिकीपुत्र आलम्बीपुत्राच्च वैयाघ्रपदीपुत्राच्च वैयाघ्रपदीपुत्रः काण्वीपुत्राच्च कापीपुत्राच्च कापीपुत्रः ॥ १॥ अब वंशका वर्णन किया जाता है-पौतिमाषीपुत्र ने कात्यायनीपुत्र से, कात्यायनीपुत्र ने गौतमीपुत्र से, गौतमीपुत्र ने भारद्वाजीपुत्र से भारद्वाजीपुत्र ने पाराशरीपुत्र से, पाराशरीपुत्र ने औपस्वस्तीपुत्र से, औपस्वस्तीपुत्र ने पाराशरीपुत्र से, पाराशरीपुत्र ने कात्यायनीपुत्र से, कात्यायनीपुत्र ने कौशिकीपुत्र से, कौशिकीपुत्र ने आलम्बीपुत्र से और वैयाघ्रपदीपुत्र से, वैयाघ्रपदीपुत्र ने काण्वोपुत्र से तथा कापीपुत्र से, कापीपुत्रने ॥१॥ आत्रेयीपुत्रादात्रेयीपुत्रो गौतमीपुत्राद् गौतमीपुत्रो भारद्वाजीपुत्राद् भारद्वाजीपुत्रः पाराशरीपुत्रात् पाराशरीपुत्रो वात्सीपुत्राद् वात्सीपुत्रः पाराशरीपुत्रात् पाराशरीपुत्रो वार्कारुणीपुत्राद् वार्कारुणीपुत्रो वार्कारुणीपुत्राद् वार्कारुणीपुत्र आर्तभागीपुत्रादार्तभागीपुत्रः शौङ्गीपुत्राच्चौङ्गीपुत्रः साङ्‌कृतीपुत्रात् साङ्‌कृतीपुत्र आलम्बायनीपुत्रादालम्बायनीपुत्र आलम्बीपुत्रादालम्बीपुत्रो जायन्तीपुत्राज् जायन्तीपुत्रो माण्डूकायनीपुत्रान् माण्डूकायनीपुत्रो माण्डूकीपुत्रान् माण्डूकीपुत्रः शाण्डिलीपुत्राच्छाण्डिलीपुत्रो राथीतरीपुत्राद् राथीतरीपुत्रो भालुकीपुत्राद् भालुकीपुत्रः क्रौञ्चिकीपुत्राभ्यां क्रौञ्चिकीपुत्रौ वैदभृतीपुत्राद् वैदभृतीपुत्रः काकियीपुत्रात् कार्शकयीपुत्रः प्राचीनयोगीपुत्रात् प्राचीनयोगीपुत्रः साञ्जीवीपुत्रात् साज्ञ्जीवीपुत्रः प्राश्नीपुत्रादासुरिवासिनः प्राश्नीपुत्र आसुरायणादासुरायण आसुरेरासुरिः ॥ २॥ आत्रेयीपुत्र से, आत्रेयीपुत्र ने गौतमीपुत्र से, गौतमीपुत्र ने भारद्वाजीपुत्र से, भारद्वाजीपुत्र ने पाराशरीपुत्र से, पाराशरीपुत्र ने वात्सीपुत्र से, वात्सीपुत्र ने पाराशरीपुत्र से, पाराशरीपुत्र ने वार्कारुणीपुत्र से, वार्कारुणीपुत्र ने वाकारुणीपुत्र से; वार्कारुणीपुत्र ने आर्तभागीपुत्र से, आर्तभागीपुत्र ने शौङ्गीपुत्र से, शौङ्गीपुत्र ने साङ्‌कृतीपुत्र से साङ्‌कृतीपुत्र ने आलम्बायनीपुत्र से, आलम्बायनीपुत्र ने आलम्बीपुत्र से आलम्बीपुत्र ने जायन्तीपुत्र से, जायन्तीपुत्र ने माण्डूकायनीपुत्र से, माण्डूकायनीपुत्र ने माण्डूकीपुत्र से, माण्डूकीपुत्र ने शाण्डिलीपुत्र से, शाण्डिलीपुत्र ने राथीतरीपुत्र से, राथीतरीपुत्र ने भालुकीपुत्र से, भालुकीपुत्र ने दो क्रौञ्चिकी पुत्रों से, दोनों क्रौञ्चिकी पुत्रों ने वैदभृतीपुत्र से, वैदभृतीपुत्र ने कार्शकयीपुत्र से, काशकेयीपुत्र ने प्राचीनयोगीपुत्र से, प्राचीनयोगीपुत्र ने साज्ञ्जीवीपुत्र से, साञ्जीवीपुत्र ने आसुरिवासी प्राश्नीपुत्र से, प्रानीपुत्र ने आसुरायण से, आसुरायण ने आसुरि से, आसुरि ने ॥२॥ याज्ञवल्क्याद् याज्ञवल्क्य ऊद्दालकादूद्दालकोऽरुणादरुण उपवेशेरुपवेशिः कुश्रेः कुश्रिर्वाजश्रवसो वाजश्रवा जीह्वावतो बाध्योगाज् जीह्वावान्बाध्योगोऽ सिताद्वार्षगणादसितो वार्षगणो हरितात्कश्यपाद्द् हरितः कश्यपः शिल्पात्कश्यपाच्छिल्पः कश्यपः कश्यपान्नैध्रुवेः कश्यपो नैध्रुविर्वाचो वागम्भिण्याः अम्भिण्यादित्यादादित्यानीमानि शुक्लानि यजूषि वाजसनेयेन याज्ञवल्क्येनाऽऽख्ययन्ते ॥ ३॥ याज्ञवल्क्य से, याज्ञवल्क्य ने उद्दालक से, उद्दालक ने अरुण से, अरुण ने उपवेशि से, उपवेशि ने कुश्रि से, कुश्रि ने, वाजश्रवा से, वाजश्रवा ने जिह्वावान् बाध्योग से, जिह्वावान् बाध्योग ने असित वार्षगण से, असित वार्षगण ने हरित कश्यप से, हरित कश्यप ने शिल्पकश्यप से शिल्पकश्यप ने कश्यप नैध्रुवि से, कश्यप नैध्रुवि ने वाक से, वाक ने अम्भिणी से, अम्भिणी ने आदित्य से, आदित्य से प्राप्त हुई ये शुक्ल यजुः श्रुतियाँ वाजसनेय याज्ञवल्क्यद्वारा प्रसिद्ध की गयी हैं ॥३॥ समानमा साज्ञ्जीवीपुत्रात् सञ्जिवीपुत्रो माण्डूकायनेर्माण्डूकायनिर्माण्डव्यान् माण्डव्यः कौत्सात् कौत्सो माहित्थेर्माहित्थिर्वामकक्षायणाद् वामकक्षायणः शाण्डिल्याच्छाण्डिल्यो वात्स्याद् वात्स्यः कुश्रेः कुश्रिर्यज्ञवचसो राजस्तम्बायनाद् यज्ञवचा राजस्तम्बायनस्तुरात्कावषेयात् तुरः कावषेयः प्रजापतेः प्रजापतिर्ब्रह्मणो ब्रह्म स्वयम्भु । ब्रह्मणे नमः ॥ ४॥ साज्ञ्जीवीपुत्रपर्यन्त यह एक ही वंश है। साञ्जीवीपुत्र ने माण्डूकायनि से, माण्डूकायनि ने माण्डव्य से, माण्डव्य ने कौत्स से, कौत्स ने माहित्थि से, माहित्थि ने वामकक्षायण से, वामकक्षायण ने शाण्डिल्य से, शाण्डिल्य ने वात्स्य से, वात्स्य ने कुश्रि से, कुश्रि ने यज्ञवचा राजस्तम्बायन से, यज्ञवचा राजस्तम्बायन ने तुर कावषेय से, तुर कावषेय ने प्रजापति से और प्रजापति ने ब्रह्म से। ब्रह्म स्वयम्भु है, स्वयम्भु ब्रह्म को नमस्कार है ॥४॥ इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥ ॥ पांचवां ब्राह्मण समाप्त ॥ ॥ इति बृहदारण्यकोपनिषदि षष्ठोऽध्यायः ॥ ॥ बृहदारण्य उपनिषद का छठा अध्याय समाप्त ॥ ॥ हरि ॐ ॥ शान्तिपाठ ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमदुच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ वह परब्रह्म पूर्ण है और वह जगत ब्रह्म भी पूर्ण है, पूर्णता से ही पूर्ण उत्पन्न होता है। यह कार्यात्मक पूर्ण कारणात्मक पूर्ण से ही उत्पन्न होता है। उस पूर्ण की पूर्णता को लेकर यह पूर्ण ही शेष रहता है। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। हरि ॐ तत सत ॥ इति वाजसनेयके बृहदारण्यकोपनिषत्समाप्ता ॥ ॥ वाजनेय शाखा के अंतर्गत वर्णित बृहदारण्य उपनिषद समाप्त ॥

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