Mandal Brahman Upanishad First Brahman (मण्डल ब्राह्मण उपनिषद) प्रथम ब्राह्मण

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ मण्डलब्राह्मणोपनिषत् ॥ ॥ हरिः ॐ ॥ बाह्यान्तस्तारकाकरं व्योमपञ्चकविग्रहम् । राजयोगैकसंसिद्धं रामचन्द्रमुपास्महे ॥ ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमदुच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ वह परब्रह्म पूर्ण है और वह जगत ब्रह्म भी पूर्ण है, पूर्णता से ही पूर्ण उत्पन्न होता है। यह कार्यात्मक पूर्ण कारणात्मक पूर्ण से ही उत्पन्न होता है। उस पूर्ण की पूर्णता को लेकर यह पूर्ण ही शेष रहता है। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ मण्डलब्राह्मणोपनिषत् ॥ मण्डल ब्राह्मण उपनिषद प्रथमं ब्राह्मणम्-प्रथम ब्राह्मण ॐ याज्ञवल्क्यो ह वै महामुनिरादित्यलोकं जगाम । तमादित्यं नत्वा भो भगवन्नादित्यात्मतत्त्वमनुब्रूहीति । सहोवाच नारायणः । ज्ञानयुक्तयमाद्यष्टाङ्गयोग उच्यते । शीतोष्णाहारनिद्राविजयः सर्वदा शान्तिर्निश्चलत्वं विषयेन्द्रियनिग्रहश्चैते यमाः। गुरुभक्तिः सत्यमार्गानुरक्तिः सुखागतवस्त्वनुभवश्च तद्वस्त्वनुभवेन तुष्टिर्निः सङ्गता एकान्तवासो मनोनिवृत्तिः फलानभिलाषो वैराग्यभावश्च नियमाः । सुखासनवृत्तिश्चीरवासाश्चैवमासननियमो भवति । यथाक्रमं पूरककुम्भकरेचकैः षोडशचतुष्षष्टिद्वात्रिऽन्शत्स‌ङ्ख्यया प्राणायामः । विषयेभ्य इन्द्रियार्थेभ्यो मनोनिरोधनं प्रत्याहारः । सर्वशरीरेषु चैतन्यैकतानता ध्यानम् । विषयव्यावर्तनपूर्वकं चैतन्ये चेतःस्थापनं धारणं भवति । ध्यानविस्मृतिः समाधिः । एवं सूक्ष्माङ्गानि । य एवं वेद स मुक्तिभाग्भवति ॥ १॥ महामुनि याज्ञवल्क्य (एकबार) आदित्यलोक में गये और वहाँ भगवान् आदित्य को प्रणाम करके कहा-हे भगवन् आदित्य ! आप हमें आत्म तत्त्व का उपदेश प्रदान करें। तब सूर्यनारायण ने कहा-तत्त्वज्ञान सहित यम-नियम आदि को अष्टाङ्ग योग कहा जाता है। सर्दी-गर्मी, आहार एवं निद्रा पर विजय प्राप्त करना, सर्वदा शान्त रहना और निश्चल होकर इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना, ये सभी यम हैं॥ मंडलब्राह्मणोपनिषद् गुरु भक्ति, सत्य मार्ग में अनुरक्ति, यथालाभ- सन्तोष, एकान्त निवास, अनासक्ति, मनोनिवृत्ति, फल की इच्छा न करना और वैराग्य भाव-ये सभी नियम हैं॥ सुखासन वृत्ति (सुखपूर्वक एक वृत्ति में दीर्घकाल तक स्थित रहना) और चिरनिवास (बिना प्रयास के चिरकाल तक एक स्थिति में रहना) ये आसन के नियम हैं॥ षोडश मात्राओं द्वारा पूरक, चौंसठ मात्राओं द्वारा कुम्भक और बत्तीस मात्राओं द्वारा रेचक करने को प्राणायाम कहते हैं। इन्द्रियों के विषयों से मन को निरोध करना प्रत्याहार कहलाता है॥ विषयों से निरोधित मन को चैतन्य सत्ता में स्थित करना धारणा है। सभी शरीरों में एक ही चैतन्य तत्त्व विद्यमान है, इसी एकतानता (निरन्तर चिन्तन) को ध्यान कहा गया है और ध्यान को भी विस्मृत कर देना (भूल जाना) समाधि है। इस प्रकार ये सभी सूक्ष्म अङ्ग हैं, जो इन्हें इस प्रकार जानता है, वह मुक्ति का अधिकारी होता है॥१॥ देहस्य पञ्चदोषा भवन्ति कामक्रोधनिःश्वासभयनिद्राः । तन्निरासस्तु निःसङ्कल्पक्षमालघ्वाहारप्रमादतातत्त्वसेवनम् । निद्राभयसरीसृपं हिंसादितरङ्गं तृष्णावर्तं दारपङ्कः संसारवार्धि तर्तुं सूक्ष्ममार्गमवलम्ब्य सत्त्वादिगुणानतिक्रम्य तारमवलोकयेत् । भ्रूमध्ये सच्चिदानन्दतेजःकूटरूपं तारकं ब्रह्म । तदुपायं लक्ष्यत्रयावलोकनम् । ि मूलाधारादारभ्य ब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तं सुषुम्ना सूर्याभा । मृणालतन्तुसूक्ष्मा कुण्डलिनी । ततो तमोनिवृत्तिः । तद्दर्शनात्सर्वपापनिवृत्तिः । तर्जन्यग्रोन्मीलितकर्णरन्ध्रद्वये फूत्कारशब्दो जायते । तत्र स्थिते मनसि चक्षुर्मध्य नीलज्योतिः पश्यति । एवं हृदयेऽपि । बहिर्लक्ष्यं तु नासाग्रे चतुःषडष्टदशद्वादशाङ्‌गुलीभिः क्रमान्नीलद्युतिश्यामत्वसदृग्रक्तभङ्गीस्फुरत्पीतवर्णद्वयोपेतं व्योमत्वं पश्यति स तु योगी चलनदृष्ट्या व्योमभागवीक्षितुः पुरुषस्य दृष्ट्यग्रे ज्योतिर्मयूखा वर्तन्ते । तदृष्टिः स्थिरा भवति । शीर्षोपरि द्वादशाङ्‌गुलिमानज्योतिः पश्यति तदाऽमृतत्वमेति । मध्यलक्ष्यं तु प्रातश्चित्रादिवर्णसूर्यचन्द्रवह्निज्वाला- वलीवत्तद्विहीनान्तरिक्षवत्पश्यति । तदाकाराकारी भवति । अभ्यासान्निर्विकारं गुणरहिताकाशं भवति । विस्फुरत्तारकाकारगाढ तमोपमं पराकाशं भवति । कालानलसमं द्योतमानं महाकाशं भवति । सर्वोत्कृष्टपरमाद्वितीयप्रद्योतमानं तत्त्वाकाशं भवति । कोटिसूर्यप्रकाशं सूर्याकाशं भवति । एवमभ्यासात्तन्मयो भवति । य एवं वेद ॥ २॥ इस शरीर के काम, क्रोध, निःश्वास ( श्वासावरोध), भय और निद्रा ( अज्ञान-निद्रा)-ये पाँच दोष होते हैं। संकल्परहित होना, क्षमाशील होना, अल्पाहार करना, निर्भय होना और तत्त्व चिन्तन करना, ये उपर्युक्त (शरीर के) दोषों को दूर करने के साधन हैं॥ निद्रा (अज्ञान- निद्रा) और भय सर्प हैं, हिंसा आदि तरंगें हैं, तृष्णा भंवर है, स्त्री पङ्क है (स्त्री के प्रति भोग्याभाव कीचड़ है)-ऐसे संसार रूपी सागर से पार जाने के लिए सूक्ष्म मार्ग का अवलम्बन लेकर सत्त्व आदि गुणों से परे (ऊपर) होकर तारक ब्रह्म का दर्शन करना चाहिए (उसका ध्यान करना चाहिए) ॥ दोनों भौंहों के मध्य में सच्चिदानन्द स्वरूप, तेजः- सम्पन्न, कूट रूप तारक ब्रह्म का निवास है। उस (तारक ब्रह्म) की प्राप्ति के उपायों में लक्ष्यत्रय का अवलोकन करना चाहिए ॥ मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त सूर्य के समान आभा वाली सुषुम्ना नामक नाड़ी है। उसके बीच में उससे कोटिगुनी मृणाल तन्तु जितनी सूक्ष्म कुण्डलिनी है। वहाँ (उसके ज्ञान से) तमोगुण की निवृत्ति होती है। उसके दर्शन से समस्त पाप विनष्ट होते हैं॥ तर्जनी अँगुली के अग्रभाग से दोनों कानों को बन्द करने पर उस (साधक) के कर्णछिद्रों से फूत्कार शब्द होता है। जब उस शब्द में मन को स्थिर किया जाता है, तब नेत्रों के मध्य में नीलवर्ण ज्योति का दर्शन होता है। इसी प्रकार हृदय में भी (वही ज्योति) दिखाई पड़ती है। बाह्य लक्ष्य यह है कि (जिसे) नासिका के अग्रभाग से चार, छः, आठ, दस और बारह अंगुल की दूरी पर क्रम से नीलवर्ण, श्यामवर्ण, रक्तवर्ण, पीतवर्ण और दो रंगों के मिश्रित रंग युक्त आकाश दिखाई पड़ता है, वह योगी हो जाता है। चल दृष्टि (चञ्चल दृष्टि) से व्योम भाग को देखते हुए पुरुष की दृष्टि के अग्रभाग में ज्योति युक्त किरणें दिखाई पड़ती हैं, उससे दृष्टि में स्थिरत्व आ जाता है॥ शीर्ष (मस्तिष्क) के ऊपर द्वादशाङ्‌गुल की दूरी पर ज्योति दिखाई पड़ती है। उसे देखने वाले को अमरत्व प्राप्त हो जाता है॥ मध्य लक्ष्य इस प्रकार है कि प्रात: कालीन वेला में सूर्य, चन्द्र और अग्नि ज्वालवत् और उससे विहीन अन्तरिक्षवत् दिखाई देता है। उसके आकार की तरह ही आकार वाला हो जाता है। अभ्यास के द्वारा वह विकाररहित, त्रिगुणातीत आकाश रूप होता है। अत्यंत प्रगाढ़ प्रकाशयुक्त तारकों के समान पराकाश होता है। कालाग्नि के समान प्रकाशमान महाकाश होता है। सर्वोत्कृष्ट परम अद्वितीय और विशिष्ट रूप से द्योतमान प्रकाश तत्त्वाकाश होता है। करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान सूर्याकाश होता है। जो इस तथ्य को इस प्रकार जानता है, वह अभ्यासपूर्वक तन्मय हो जाता है॥२॥ तद्योगं च द्विधा विद्धि पूर्वोत्तरविभागतः । पूर्वं तु तारकं विद्यादमनस्कं तदुत्तरमिति । तारकं द्विविधम् । मूर्तितारकममूर्तितारकमिति । यदिन्द्रियान्तं तन्मूर्तितारकम् । यद्भूयुगातीतं तदमूर्तितारकमिति । उभयमपि मनोयुक्तमभ्यसेत् मनोयुक्तान्तरदृष्टिस्तारकप्रकाशाय भवति । भूयुगमध्यबिले तेजस आविर्भावः । एतत्पूर्वतारकम् । उत्तरं त्वमनस्कम् । तालुमूलोर्ध्वभागे महाज्योतिर्विद्यते । तद्दर्शनादणिमादिसिद्धिः । लक्ष्येऽन्तर्बाह्यायां दृष्टौ निमेषोन्मेषवर्जितायां च इयं शाम्भवी मुद्रा भवति । सर्वतन्त्रेषु गोप्यमहाविद्या भवति । तज्ज्ञानेन संसारनिवृत्तिः । तत्पूजनं मोक्षफलदम् । अन्तर्लक्ष्यं जलज्योतिःस्वरूपं भवति । महर्षिवेद्यं अन्तर्बाह्येन्द्रियैरदृश्यम् ॥ ३॥ उस योग के दो विभाग हैं। एक पूर्व तथा दूसरा उत्तर । पूर्व विभाग को तारक ब्रह्म कहते हैं और उत्तर विभाग को अमनस्क कहते हैं। तारक ब्रह्म के भी दो प्रकार हैं-एक मूर्तितारक और दूसरा अमूर्ति तारक। जो इन्द्रियों तक सीमित है, वह मूर्तितारक है, जो दोनों भौंहों से परे आगे है, वह अमूर्तितारक है। इन दोनों (मूर्तितारक और अमूर्तितारक) का मनयुक्त (मनोयोग पूर्वक) होकर अभ्यास करना चाहिए; क्योंकि मनयुक्त अन्तर्दृष्टि तारक ब्रह्म को प्रकट करने में सक्षम होती है। इसके बाद भूयुगल के मध्य स्थित छिद्र में तेज आविर्भूत होता है। यह पूर्व तारक ब्रह्म है। उत्तर विभाग तो अमनस्क (मनरहित) होता है। तालुमूल के ऊर्ध्व भाग में महाज्योति का निवास होता है। उसके दर्शन से अणिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। जब लक्ष्य में अन्तः-बाह्य दृष्टि निर्निमेष (स्थिर) हो जाती है, तो यह शाम्भवी मुद्रा होती है। समस्त तन्त्रों में गोपनीय यह ब्रह्म विद्या है। उसके ज्ञान से संसार से निवृत्ति हो जाती है, उसका पूजन मोक्षरूपी फल प्रदान करता है॥ अन्तर्लक्ष्य दीप्तिमान् ज्योति के समान है, इसे महर्षिगण ही जान सकते हैं। यह बाह्य और आन्तरिक इन्द्रियों (नेत्रों-मन आदि) के द्वारा अगोचर है॥३॥ सहस्रारे जलज्योतिरन्तर्लक्ष्यम् । बुद्धिगुहायां सर्वाङ्गसुन्दरं पुरुषरूपमन्तर्लक्ष्यमित्यपरे । शीर्षान्तर्गतमण्डलमध्यगं पञ्चवक्त्रमुमासहायं नीलकण्ठं प्रशान्तमन्तर्लक्ष्यमिति केचित् । अङ्‌गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तर्लक्ष्यमित्येके । उक्तविकल्पं सर्वमात्मैव । तल्लक्ष्यं शुद्धात्मदृष्ट्या वा यः पश्यति स एव ब्रह्मनिष्ठो भवति । जीवः पञ्चविंशकः स्वकल्पितचतुर्विंशतितत्त्वं परित्यज्य षड्विंशः परमात्माहमिति निश्चयाज्जीवन्मुक्तो भवति । एवमन्तर्लक्ष्यदर्शनेन जीवन्मुक्तिदशायां स्वयमन्तर्लक्ष्यो भूत्वा परमाकाशाखण्डमण्डलो भवति ॥ ४॥ सहस्रार दल में दीप्तिमान् ज्योति के समान अन्तर्लक्ष्य है। कुछ अन्य लोग ऐसा मानते हैं कि बुद्धि रूपी गुहा में सर्वाङ्ग सुन्दर पुरुष का रूप अन्तर्लक्ष्य है। कितने ही ऐसा नानते हैं कि शीर्ष के अन्तर्गत स्थित मण्डल के मध्य पाँच मुख वाले और उमा सहित नीलकण्ठ भगवान् शंकर का प्रशान्त रूप भी अन्तर्लक्ष्य है। अङ्‌गुष्ठ मात्र पुरुष ही अन्तर्लक्ष्य है, ऐसा भी कितने ही विद्वान् मानते हैं॥ उपर्युक्त सभी विकल्प (विभेद) आत्मा के ही हैं। उस लक्ष्य (अन्तर्लक्ष्य) को जो शुद्ध आत्म-दृष्टि से देखता है, वह ब्रह्मनिष्ठ हो जाता है। जीव पच्चीसवाँ तत्त्व है। स्वकल्पित चौबीस तत्त्वों को त्यागकर छब्बीसवाँ मैं स्वयं परमात्मा हूँ, जब वह ऐसा निश्चय करता है, तो इस निश्चय से वह जीवन्मुक्त हो जाता है॥ इस प्रकार अन्तर्लक्ष्य का दर्शन प्राप्त कर लेने से वह (जीव) जीवन्मुक्त की ओर अग्रसर होते हुए स्वयं अन्तर्लक्ष्य होकर परम आकाशस्वरूप अखण्ड मण्डल हो जाता है ॥४॥ ॥ इति प्रथमं ब्राह्मणम् ॥१॥ ॥ प्रथम ब्राह्मण समात ॥

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