ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त १९

ऋग्वेद - चतुर्थ मंडल सूक्त १९ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र । छंद - त्रिष्टुप, एवा त्वामिन्द्र वज्रिन्नत्र विश्वे देवासः सुहवास ऊमाः । महामुभे रोदसी वृद्धमृष्वं निरेकमिदृणते वृत्रहत्ये ॥१॥ वज्र धारण करने वाले हे इन्द्रदेव! सुरक्षा करने वाले समस्त देवगण तथा द्यावा-पृथिवी वृत्र का संहार करने के लिए आपका आवाहन करते हैं। आप प्रार्थनीय, वृद्ध, महान् तथा दर्शनीय हैं ॥१॥ अवासृजन्त जिव्रयो न देवा भुवः सम्राळिन्द्र सत्ययोनिः । अहन्नहिं परिशयानमर्णः प्र वर्तनीररदो विश्वधेनाः ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! जिस प्रकार वृद्ध पिता तरुण पुत्र को प्रेरणा देते हैं, उसी प्रकार समस्त देवता रिपुओं का विनाश करने के लिए आपको प्रेरणा देते हैं। हे इन्द्रदेव ! आप सत्य के आश्रय स्थान हैं। आप सम्पूर्ण लोकों के अधिष्ठाता हैं। जल के चारों ओर शयन करने वाले 'अहि' का विनाश करके, सबको हर्षित करने वाली सरिताओं को अपने ही प्रेरित किया है ॥२॥ अतृप्णुवन्तं वियतमबुध्यमबुध्यमानं सुषुपाणमिन्द्र । सप्त प्रति प्रवत आशयानमहिं वज्रेण वि रिणा अपर्वन् ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! आपने अतृप्त इच्छाओं से युक्त, शिथिल अंग वाले, अज्ञानी, शयन करने की कामना करने वाले, सप्त सरिताओं को आवृत करने वाले तथा अंतरिक्ष में निवास करने वाले वृत्र का वज्र द्वारा संहार किया ॥३॥ अक्षोदयच्छवसा क्षाम बुधं वार्ण वातस्तविषीभिरिन्द्रः । दृव्हान्यौभ्नादुशमान ओजोऽवाभिनत्ककुभः पर्वतानाम् ॥४॥ जैसे वायुदेव अपनी शक्ति द्वारा पानी को हिलाते हैं, उसी प्रकार इन्होंने अपनी शक्ति द्वारा द्युलोक तथा भूलोक को कैंपा दिया । बलाकांक्षी इन्द्रदेव ने अत्यन्त शक्तिशाली रिपुओं का विनाश किया तथा पर्वतों (मेघों) के पंखों को छिन्न-भिन्न कर दिया ॥४॥ अभि प्र दद्रुर्जनयो न गर्भ रथा इव प्र ययुः साकमद्रयः । अतर्पयो विसृत उब्ज ऊर्मीन्त्वं वृताँ अरिणा इन्द्र सिन्धून् ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! जिस प्रकार माताएँ अपने पुत्र के समीप जाती हैं, उसी प्रकार मरुद्गण आपके समीप जाते हैं। जिस प्रकार संग्राम में रथ साथ गमन करते हैं, उसी प्रकार आयुध आपके साथ गमन करते हैं। आपने मेघों को विदीर्ण करके, नदियों को तुष्ट किया तथा अवरुद्ध की हुई नदियों को प्रवाहित किया ॥५॥ त्वं महीमवनिं विश्वधेनां तुर्वीतये वय्याय क्षरन्तीम् । अरमयो नमसैजदर्णः सुतरणाँ अकृणोरिन्द्र सिन्धून् ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! राजा 'तुर्वीत' तथा 'वय्य' के लिए आपने पृथ्वी को, तुष्ट करने वाली, धान्य प्रदान करने वाली तथा अन्न-जल से समृद्ध बनाया । हे इन्द्रदेव ! आपने सरिताओं को सरलतापूर्वक पार करने योग्य बनाया ॥६॥ प्राग्ग्रुवो नभन्वो न वक्वा ध्वस्त्रा अपिन्वद्‌द्युवतीर्ऋतज्ञाः । धन्वान्यज्राँ अपृणक्तृषाणाँ अधोगिन्द्रः स्तर्यो दंसुपत्नीः ॥७॥ उन इन्द्रदेव ने रिपु सहायक सेनाओं के सदृश किनारों को नष्ट करने वाली, पानी से भरी हुई तथा अन्न पैदा करने वाली सरिताओं को परिपूर्ण किया। उन्होंने मरुस्थलों तथा प्यासे व्यक्तियों को तृप्त किया और दस्युओं द्वारा नियन्त्रित गौओं को दुहा ॥७॥ पूर्वीरुषसः शरदश्च गूर्ता वृत्रं जघन्वाँ असृजद्वि सिन्धून् । परिष्ठिता अतृणद्वद्वधानाः सीरा इन्द्रः स्रवितवे पृथिव्या ॥८॥ इन्द्रदेव ने घने अन्धकार में आवृत उषाओं को एवं वर्षों (१२महीनों के समुच्चय) को वृत्रासुर का वध करके विमुक्त किया। उन्होंने मेघों को विदीर्ण कर वृत्र द्वारा अवरुद्ध नदियों को प्रवाहित कर पृथ्वी को तृप्त किया ॥८॥ वम्रीभिः पुत्रमनुवो अदानं निवेशनाद्धरिव आ जभर्थ । व्यन्धो अख्यदहिमाददानो निर्भूदुखच्छित्समरन्त पर्व ॥९॥ हे अश्ववान् इन्द्रदेव ! आपने दीमकों द्वारा भक्ष्यमान 'अमु' के पुत्र को उनके स्थान (बिल) से बाहर निकाला। बाहर निकाले जाते समय अन्धे 'अ'-पुत्र ने अहि (सर्प) को भली प्रकार देखा। उसके बाद चींटियों द्वारा काटे गये अंगों को आपने (इन्द्रदेव ने) संयुक्त किया (जोड़ा) ॥९॥ प्र ते पूर्वाणि करणानि विप्राविद्वाँ आह विदुषे करांसि । यथायथा वृष्ण्यानि स्वगूर्तापांसि राजन्नर्याविवेषीः ॥१०॥ तेजस् सम्पन्न हे इन्द्रदेव! आप सर्वज्ञाता तथा स्वयं प्रशंसित हैं। आपने मनुष्यों के लिए कल्याणकारी तथा पराक्रम से सम्पन्न कर्मों को जिस प्रकार पूर्ण किया, उन समस्त ज्ञानयुक्त कर्मों के ज्ञाता हम 'वामदेव' ऋषि उन सबका वर्णन करते हैं ॥१०॥ नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो न पीपेः । अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः ॥११॥ हे इन्द्रदेव ! आप प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रशंसित होकर तथा हमारे द्वारा स्तुत होकर हमें सरिताओं के सदृश अन्न से पूर्ण करें। हे अश्ववान् इन्द्रदेव ! हम अपनी मेधा द्वारा आपके लिए अभिनव स्तोत्रों को रचते हैं, जिससे हम रथों तथा दासों से सम्पन्न हों ॥११॥

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