ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त १२

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त १२ ऋषि–सुतंभर आत्रेयः देवता - अग्नि । छंद - त्रिष्टुप प्राग्नये बृहते यज्ञियाय ऋतस्य वृष्णे असुराय मन्म । घृतं न यज्ञ आस्ये सुपूतं गिरं भरे वृषभाय प्रतीचीम् ॥१॥ ये अग्निदेव अपनी सामर्थ्य से अतिशय महान्, यज्ञ-योग्य, जल की वृष्टि करने वाले, प्राणों के आधार और अभीष्टवर्धक हैं। यज्ञ के मुख में सिञ्चित घृत धारा के सदृश हमारी स्तुतियाँ अग्निदेव के लिए प्रीतिकारक हों ॥१॥ ऋतं चिकित्व ऋतमिच्चिकिद्धघृतस्य धारा अनु तृन्धि पूर्वीः । नाहं यातुं सहसा न द्वयेन ऋतं सपाम्यरुषस्य वृष्णः ॥२॥ हे अग्निदेव ! हमारी स्तुतियों को आप जानने वाले हैं, हमारी स्तुतियों का अनुमोदन करें। प्रचुर जल-वृष्टि के लिए हमारे अनुकूल हों। हम बल-संयुक्त होकर यज्ञ में कोई विघ्न उत्पन्न नहीं करते और न ही वैदिक कार्य के विधान को भंग करते हैं। आप अत्यन्त दीप्तिमान् हैं और कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। आपका हम स्तवन करते हैं ॥२॥ कया नो अग्न ऋतयन्नृतेन भुवो नवेदा उचथस्य नव्यः । वेदा मे देव ऋतुपा ऋतूनां नाहं पतिं सनितुरस्य रायः ॥३॥ हे अग्निदेव ! आप जल-वृष्टि करने वाले हैं। आप हमारे किस श्रेष्ठ यज्ञ-कर्म द्वारा हमारे नवीन स्तोत्रों को जानने वाले होंगे ? ऋतुओं का संरक्षण करने वाले अग्निदेव हमें जानें। सर्वदा येजन करने वाले हम, क्या धनों के अधीश्वर अग्निदेव को नहीं जानते ? (अर्थात् निश्चित ही जानते हैं ।) ॥३॥ के ते अग्ने रिपवे बन्धनासः के पायवः सनिषन्त ह्युमन्तः । के धासिमग्ने अनृतस्य पान्ति क आसतो वचसः सन्ति गोपाः ॥४॥ हे अग्निदेव ! कौन शत्रुओं को बाँधने वाले हैं? कौन लोगों का पोषण करते हैं? कौन अति दीप्तिमान् और दानशील हैं ? कौन असत्य- धारकों की रक्षा करते हैं? असत्य वचनयुक्तों की रक्षा कौन कर सकता है ? (अर्थात् आपके कृपा पात्र व्यक्ति ही ऐसा कर सकते हैं) ॥४॥ सखायस्ते विषुणा अग्न एते शिवासः सन्तो अशिवा अभूवन् । अधूर्षत स्वयमेते वचोभिऋजूयते वृजिनानि ब्रुवन्तः ॥५॥ हे अग्निदेव ! सर्वत्र व्याप्त आपके ये मित्रजन आपकी उपासना न करने से दुःखी हुए थे, तदनन्तर आपकी उपासना करके वे सुखों से युक्त हुए। हम आपके निमित्त सरल आचरण करते हैं, फिर भी जो हमारे साथ कुटिल वचनों से युक्त व्यवहार करते हैं, वे शत्रु स्वयं अपना अनिष्ट करके नष्ट होते हैं ॥५॥ यस्ते अग्ने नमसा यज्ञमीट्ट ऋतं स पात्यरुषस्य वृष्णः । तस्य क्षयः पृथुरा साधुरेतु प्रसर्साणस्य नहुषस्य शेषः ॥६॥ हे अग्निदेव ! आप दीप्तिमान् और इच्छित कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। जो यजमान हृदय से नमस्कारयुक्त स्तोत्रों से आपका स्तवन करते हैं और यज्ञ का सम्यक् पालन करते हैं, उनका घर विस्तीर्ण हो। आपकी भली प्रकार परिचर्या करने वाले वे यजमान कामनाओं को सिद्ध करने वाले पुत्रादि प्राप्त करते हैं ॥६॥

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