ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त २८

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त २८ ऋषि – आजीगर्तिः शुनः शेप स करित्रमो वैश्वामित्रों देवतरातः: देवता- १-४ इन्द्र ५-६ उलूखलं, ७-८ उलूखल मूसले, ९ प्रजापति हरिश्चंद्रः । छंद- १-६, अनुष्टुप, ७-९ गायत्री यत्र ग्रावा पृथुबुन ऊर्ध्वा भवति सोतवे । उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः ॥१॥ हे इन्द्रदेव ! जहाँ (सोमवल्ली) कूटने के लिए बड़ा मूसल उठाया जाता है (अर्थात् सोमरस तैयार किया जाता है), वहाँ (यज्ञशाला में) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें ॥१॥ यत्र द्वाविव जघनाधिषवण्या कृता । उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! जहाँ दो जंधाओं के समान विस्तृत, सोम कूटने के दो फलक रखे हैं, वहाँ (यज्ञशाला में) उलूखल से निष्पन्न सोम का पान करें ॥२॥ यत्र नार्यपच्यवमुपच्यवं च शिक्षते । उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः ॥३॥ हे इन्द्रदेव ! जहाँ गृहिणी सोमरस तैयार करने के लिए कूटने (मूसल चलाने) का अभ्यास करती है, वहाँ (यज्ञशाला में) उलूखल से निष्पन्न सोमरस का पान करें ॥३॥ यत्र मन्थां विबनते रश्मीन्यमितवा इव । उलूखलसुतानामवेद्विन्द्र जल्गुलः ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! जहाँ सारथी द्वारा घोड़े को लगाम लगाने के समान (मथानी को) रस्सी से बाँधकर मन्थन करते हैं, वहाँ (यज्ञशाला में) उलूखल से निष्पन्न हुए सोमरस का पान करें ॥४॥ यच्चिद्धि त्वं गृहेगृह उलूखलक युज्यसे । इह द्युमत्तमं वद जयतामिव दुन्दुभिः ॥५॥ हे उलूखल ! यद्यपि घर-घर में तुमसे काम लिया जाता है, फिर भी हमारे घर में विजय-दुन्दुभि के समान उच्च शब्द करो ॥५॥ उत स्म ते वनस्पते वातो वि वात्यग्रमित् । अथो इन्द्राय पातवे सुनु सोममुलूखल ॥६॥ हे उलूखल - मूसल रूप वनस्पते ! तुम्हारे सामने वायु विशेष गति से बहती है । हे उलूखल ! अब इन्द्रदेव के सेवनार्थ सोमरस का निष्पादन करो ॥६॥ आयजी वाजसातमा ता ह्युच्चा विजर्भूतः । हरी इवान्धांसि बप्सता ॥७॥ यज्ञ के साधन रूप पूजन-योग्य वे उलूखल और मूसल दोनों, अन्न (चने) खाते हुए इन्द्रदेव के दोनों अश्वों के समान उच्च स्वर से शब्द करते हैं॥७॥ ता नो अद्य वनस्पती ऋष्वावृष्वेभिः सोतृभिः । इन्द्राय मधुमत्सुतम् ॥८॥ दर्शनीय उलूखल एवं मूसल रूप हे वनस्पते ! आप दोनों सोमयाग करने वालों के साथ इन्द्रदेव के लिए मधुर सोमरस का निष्पादन करें ॥८॥ उच्छिष्टं चम्वोर्भर सोमं पवित्र आ सृज । नि धेहि गोरधि त्वचि ॥९॥ उलूखले और मूसल द्वारा निष्पादित सोम को पात्र से निकालकर पवित्र कुशा के आसन पर रखें और अवशिष्ट को छानने के लिए पवित्र चर्म पर रखें ॥९॥

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