ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ३८

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ३८ ऋषि – प्रजापतिवैश्वामित्रः, प्रजापतिर्वाच्यो, तावुभावपि, गाथिनो विश्वामित्रो वा देवता - इन्द्रः । छंद - त्रिष्टुप अभि तष्टेव दीधया मनीषामत्यो न वाजी सुधुरो जिहानः । अभि प्रियाणि मर्मृशत्पराणि कवींरिच्छामि संदृशे सुमेधाः ॥१॥ हे स्तोता ! त्वष्टा (कान के शिल्पी) की तरह आप इन्द्रदेव के लिए उत्तम स्तोत्रों का निर्माण करें। श्रेस धुरौ में योजित वेगवान् अश्व की भाँति कर्म में प्रवृत्त होकर और इन्द्रदेव के निमित प्रियकारी स्तुतियों करते हुए हम उत्तम मेधावान् कवियों (द्रष्ट्राओं के दर्शन की इच्छा करते हैं ॥१॥ इनोत पृच्छ जनिमा कवीनां मनोधृतः सुकृतस्तक्षत द्याम् । इमा उ ते प्रण्यो वर्धमाना मनोवाता अध नु धर्मणि ग्मन् ॥२॥ हे इन्द्रदेव ! इन कवियों के जन्म के सम्बन्ध में उन आचार्य गणों से पूछे, जिन्होंने मनोबत को धारण करके अपने पुण्य-कर्मो से स्वर्ग का निर्माण किया था। इस यज्ञ में आपके मन में आनन्द प्रदान करने वाली आपके हो निमित्त प्रणोत स्तुतियां आपके पास जाती हैं॥२॥ नि षीमिदत्र गुह्या दधाना उत क्षत्राय रोदसी समज्ञ्जन् । सं मात्राभिर्ममिरे येमुरुर्वी अन्तर्मही समृते धायसे धुः ॥३॥ कवियों ने गूढ़ कर्मों को सम्पादित करते हुए द्यावा-पृथिबी को बल- प्राप्ति के लिए परस्पर संगत किया और उन्हें मात्राओं से परिमित किया । परस्पर संगत विस्तीर्ण और महतीं शाय-पृथियों को नियंत्रित किया। उन दोनों के बीच में धारण करने के लिए उन्होंने अन्तरिक्ष को स्थापित किया ॥३॥ आतिष्ठन्तं परि विश्वे अभूषञ्छ्रियो वसानश्चरति स्वरोचिः । महत्तदृष्णो असुरस्य नामा विश्वरूपो अमृतानि तस्थौ ॥४॥ समस्त कवियों ने रथ में अधिष्ठित इन्द्रदेव को महिमामंडित किया । वे इन्द्रदेव अपनी दीप्ति से दीप्तिमान् होकर शोभायमान होते हुए विचरण करते हैं। सबके जीवन में प्राण संचार करने वाले, उनके श्रेष्ठ संकल्पों को पूर्ण करने वाले इन्द्रदेव की कीर्ति महान् हैं। सम्पूर्ण रूपों से युक्त होकर वे अमृत तत्त्वों पर स्थित होते हैं ॥४॥ असूत पूर्वो वृषभो ज्यायानिमा अस्य शुरुधः सन्ति पूर्वीः । दिवो नपाता विदथस्य धीभिः क्षत्रं राजाना प्रदिवो दधाथे ॥५॥ मनोवांछित फल प्रदान करने वाले, पुरातन और श्रेष्ठ देव इन्द्र ने जल- वृष्टि की। इस विपुल ज्ञल राशि में पिपासा को दूर किया । द्युलोक के धारक दीप्तिमान् वरुण और इन्द्रदेव, तेजस्वी याजकों की स्तुतियों को सुनकर उनके लिए धनों को धारण करते हैं॥५॥ त्रीणि राजाना विदथे पुरूणि परि विश्वानि भूषथः सदांसि । अपश्यमत्र मनसा जगन्वान्व्रते गन्धर्वा अपि वायुकेशान् ॥६॥ हे द्रावरुण ! आप इस यज्ञ में सम्पूर्ण और व्यापक तीनों सदनों को अलंकृत करें। हे इन्द्रदेव! आप यज्ञ में गये थे; क्योंकि हमने इस यज्ञ में वायु से स्पन्दित केश युक्त अश्यों को देखा है॥६॥ तदिन्वस्य वृषभस्य धेनोरा नामभिर्ममिरे सक्म्यं गोः । अन्यदन्यदसुर्यं वसाना नि मायिनो ममिरे रूपमस्मिन् ॥७॥ इस वृषभ (बलशाली इन्द्र) की धेनु (वत्स को धारण करने वालों। तथा गौ (पोषण करने वाली सामथ्यों के सार तत्वों को जिन प्रतिभावानों ने दुहा; उन्होंने नई-नई शक्तियों के रूप में इस को पाया ॥७॥ तदिन्वस्य सवितुर्नकिर्मे हिरण्ययीममतिं यामशिश्रेत् । आ सुष्टुती रोदसी विश्वमिन्वे अपीव योषा जनिमानि वव्रे ॥८॥ इन सूर्यदेव की स्वर्णमयों दीप्ति को कोई नष्ट नहीं कर सकता। इस दौप्ति के आश्रय को जो स्वीकार करता हैं, वह उत्तम स्तुतियों द्वारा प्रशंसित होता हैं। जैसे माता अपना सन्तानों का वरण करती है, वैसे ही वह देव सर्वदत्रों द्यावा-पृथिबी द्वारा धरण किया जाता हैं॥८॥ युवं प्रत्नस्य साधथो महो यदैवी स्वस्तिः परि णः स्यातम् । गोपाजिह्वस्य तस्थुषो विरूपा विश्वे पश्यन्ति मायिनः कृतानि ॥९॥ हे इन्द्र और वरुणदेव ! आप पुरातन स्तोताओं का हर प्रकार से कल्याण करते हैं, उनके निमित्त स्वर्गापम श्रेय सम्पादित करते हैं। आप हमें सब ओर से संरक्षित करें समस्त मायावी शक्तियों में दक्ष आप, हमें अगने आश्रय में रखकर, संरक्षणकारों वचनों का आश्वासन दें-ऐसे आपके विविध कार्यों को हम देखते हैं॥९॥ शुनं हुवेम मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे नृतमं वाजसातौ । शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि संजितं धनानाम् ॥१०॥ हम जीवन-संग्राम में संरक्षण की कामना से ऐश्वर्यवान् इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं; क्योंकि वे देव पवित्र करने वाले, अप्ठतम नेतृत्वकर्ता, स्तुतियों को सुनने वाले, उग्र, शत्रुओं का हनन करने वाले एवं धन-विजेता हैं॥१०॥

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