ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ११

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त ११ ऋषि - सुतंभर आत्रेयः देवता - अग्नि । छंद -जगती जनस्य गोपा अजनिष्ट जागृविरग्निः सुदक्षः सुविताय नव्यसे । घृतप्रतीको बृहता दिविस्पृशा द्युमद्वि भाति भरतेभ्यः शुचिः ॥१॥ प्रजा की रक्षा करने वाले, जागृति एवं दक्षता प्रदान करने वाले अग्निदेव याजकों को प्रगति का नवीन पथ प्रशस्त करने के लिए प्रकट हुए हैं। घृत की आहुतियों से अधिक प्रदीप्त होकर विराट् आकाश का स्पर्श करने में समर्थ, तेज से युक्त पवित्रता प्रदान करने वाले आप साधकों के लिए (अनुदान देने हेतु) चमकते हैं ॥१॥ यज्ञस्य केतुं प्रथमं पुरोहितमग्निं नरस्त्रिषधस्थे समीधिरे । इन्द्रेण देवैः सरथं स बर्हिषि सीदन्नि होता यजथाय सुक्रतुः ॥२॥ यज्ञ की पताका वाले रथ पर देवताओं के साथ बैठने वाले पुरोहित अग्निदेव को, याजक तीन स्थानों (पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्युलोक) में भली-भाँति प्रज्वलित करते हैं। सत्कर्म में निरत यज्ञ करने के इच्छुक अग्निदेव अपने स्थान पर (यज्ञकुण्ड में) यज्ञ करने के लिए स्थित होते हैं ॥२॥ असम्मृष्टो जायसे मात्रोः शुचिर्मन्द्रः कविरुदतिष्ठो विवस्वतः । घृतेन त्वावर्धयन्नग्न आहुत धूमस्ते केतुरभवद्दिवि श्रितः ॥३॥ हे अग्निदेव ! आप मातृ रूप दो अरणियों से निर्विघ्न रूप से जन्म लेते हैं। आप मेधावी, पवित्र करने वाले और स्तुत्य हैं। आपको यजमान अपनी. हितकामना से प्रज्वलित करते हैं। पूर्वकालीन ऋषियों ने आपको घृत से प्रवृद्ध किया था। आहुतियों से प्रवृद्ध आपका धूम्र, केतु रूप में आकाश तक व्याप्त होता है ॥३॥ अग्निर्नो यज्ञमुप वेतु साधुयाग्निं नरो वि भरन्ते गृहेगृहे । अग्निर्दूतो अभवद्धव्यवाहनोऽग्निं वृणाना वृणते कविक्रतुम् ॥४॥ सब श्रेष्ठ कार्यों को सिद्ध करने वाले अग्निदेव हमारे यज्ञ में अधिष्ठित हों । सभी मनुष्य घर-घर में अग्निदेव की स्थापना करते हैं। वे हव्यवाहक अग्निदेव देवों के दूत रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। स्तोतागण ज्ञान-सम्पन्न यज्ञ कर्म में अग्निदेव की सम्यक् स्तुतियाँ करते हैं ॥४॥ तुभ्येदमग्ने मधुमत्तमं वचस्तुभ्यं मनीषा इयमस्तु शं हृदे । त्वां गिरः सिन्धुमिवावनीर्महीरा पृणन्ति शवसा वर्धयन्ति च ॥५॥ हे अग्निदेव ! हमारे अतिशय मधुर वचन आपके निमित्त निवेदित हैं। ये स्तोत्र आपके हृदय में सुख प्रदायक हों। जैसे नदियाँ समुद्र को पूर्ण कर उसका बल बढ़ाती हैं, उसी प्रकार हमारी स्तुतियाँ आपको पूर्ण कर आपका बल बढ़ाने वाली हों ॥५॥ त्वामग्ने अङ्गिरसो गुहा हितमन्वविन्दञ्छिश्रियाणं वनेवने । स जायसे मथ्यमानः सहो महत्त्वामाहुः सहसस्पुत्रमङ्गिरः ॥६॥ हे अग्निदेव ! अंगिरावंशी ऋषियों ने गहन स्थलों में स्थित और विभिन्न वनस्पतियों में व्याप्त आपको, अन्वेषण करके प्राप्त किया। आप अत्याधिक बलपूर्वक घर्षण करने के उपरान्त अरणियों से उत्पन्न होते हैं । अतएव मनीषीगण आपको शक्ति के पुत्र कहकर सम्बोधित करते हैं ॥६॥

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