ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ५५

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ५५ ऋषि - प्रजापतिवैश्वामित्रः, प्रजापतिर्वाच्यो वा देवता – विश्वेदेवाः । छंद - त्रिष्टुप उषसः पूर्वा अध यद्व्यूषुर्महद्वि जज्ञे अक्षरं पदे गोः । व्रता देवानामुप नु प्रभूषन्महदेवानामसुरत्वमेकम् ॥१॥ उदयकाल में पूर्व उषा जब प्रकाशित होती है, तब अविनाशी सूर्यदेव आकाश में प्रकट होते हैं तभी यजमान यज्ञादि देवकर्म करते हुए देवों के समीप उपस्थित होते हैं सभी देवों की महान् शक्ति संयुक्त (एक ही है ॥१॥ मो षू णो अत्र जुहुरन्त देवा मा पूर्वे अग्ने पितरः पदज्ञाः । पुराण्योः सद्मनोः केतुरन्तर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥२॥ हैं अग्निदेव ! यहाँ देवगण हमें हिंसित न करें। देवत्व पद को प्राप्त हमारे पूर्वज्ञ पितरगण भी हमारे लिए अनिष्ट रहित हों । यज्ञ के प्रकाशक पुरातन द्यावा-पृथिवीं के बीच उदीयमान महान् ज्योतिरूप सूर्यदेव प्रकाशित होते हैं। सभी देवताओं का महान् संयुक्त बल एक ही हैं॥२॥ वि मे पुरुत्रा पतयन्ति कामाः शम्यच्छा दीद्ये पूर्व्याणि । समिद्धे अग्नावृतमिद्वदेम महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥३॥ हे अग्नदेव ! हमारी नानाविध आकांक्षाएँ विभिन्न दिशाओं में गतिशील होती हैं। अग्निष्टोमादि यज्ञों में अग्नि के प्रचलित होने पर हम गुरातन स्तोत्रों को जाम करते हैं। अग्नि प्रज्वलित होने पर होम स्तात्रों का उच्चारण करेंगे। देवताओं का महान् पुरुषार्थ एक ही हैं॥३॥ समानो राजा विभृतः पुरुत्रा शये शयासु प्रयुतो वनानु । अन्या वत्सं भरति क्षेति माता महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥४॥ सर्वसाधारण के शासक, दीप्तिमान् अग्निदेव अनेक स्थानों में यज्ञार्थ प्रतिष्ठित होते हैं। वे यज्ञवेदी के ऊपर शयन करते हैं तथा अणि (काष्ठा के माध्यम से प्रकट होते हैं। माता-पिता रूप द्यावा-पृथिवी इन्हें धारण करते हैं, वृष्टि आदि द्वारा द्युलोक परिपुष्ट करते हैं तथा वसुधा उन्हें आश्रय प्रदान करती हैं, सभी देवों का महान् शक्ति । स्रोत एक ही है॥४॥ आक्षित्पूर्वास्वपरा अनूरुत्सद्यो जातासु तरुणीष्वन्तः । अन्तर्वतीः सुवते अप्रवीता महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥५॥ ये अग्निदेव अति प्राचीन और जीर्ण-शीर्ण वृक्षों में विद्यमान रहते हैं तथा जो पौधे नये-नये गे हैं, उनमें भी रहते हैं। इन वनस्पतियों में कोई भी स्थूल प्रजनन क्रिया नहीं करता, फिर भी वे अग्नि द्वारा गर्भ धारण करके फल । और फूलों को पैदा करती हैं. इन समस्त देव कार्यों का महान् बल एक ही है॥५॥ शयुः परस्तादध नु द्विमाताबन्धनश्चरति वत्स एकः । मित्रस्य ता वरुणस्य व्रतानि महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥६॥ पश्चिम में सोने (अस्त होने वाला, दो माताओं (उषा और द्युलोकों का यह शिशु (सूर्य) बिना किसी विघ्न बाधा के अन्तरिक्ष में अकेले ही विचरण करता है। ये सभी कार्य मित्र और वरुण देवों के हैं। सभी देवताओं की महान् शक्ति संयुक्त ही है ॥६॥ द्विमाता होता विदथेषु सम्राळन्वग्रं चरति क्षेति बुधः । प्र रण्यानि रण्यवाचो भरन्ते महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥७॥ दोनों लोकों के निर्माता, यज्ञ के होता तथा यज्ञों के स्वामी अग्निदेव आकाश में सूर्यरूप में सबसे आगे विचरण करते हैं। ये सभी कर्मों के मूलभूत कारण के रूप में भूमि पर निवास करते हैं। स्तोताओं की वाणियों ऐसे देव का गुणगान करती हैं। समस्त देवताओं का महान् पराक्रम एक ही हैं॥७॥ शूरस्येव युध्यतो अन्तमस्य प्रतीचीनं ददृशे विश्वमायत् । अन्तर्मतिश्चरति निष्षिधं गोर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥८॥ युद्ध में पराक्रम दिखाने वाले, शूरवीर के समान ही तेजस्वी निदेव के समक्ष आने वाले सभी प्राणी पराइमुख नतमस्तक होते हुए दिखाई देते हैं। सबके द्वारा जानने योग्य अग्निदेव जल को धारण करने वाले आकाश में विचरण करते हैं। सभी देवताओं का महान् पराक्रम एक ही है ॥८॥ नि वेवेति पलितो दूत आस्वन्तर्महाँश्चरति रोचनेन । वपूंषि बिभ्रदभि नो वि चष्टे महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥९॥ सभी प्राणियों के पालक और देवों के दूत अग्निदेव वनस्पतियों के मध्य संव्याप्त हैं। अपनी तेजस्विता में ये महिमा युक्त अग्निदेव इनके अन्दर विचरण करते हैं। जब वे नानाविध रूपों को धारण करते हैं, तभी ये हमें दिखाई देते हैं। समस्त देवों की महान् शक्ति एक (संयुक्त) ही हैं ॥९॥ विष्णुर्गोपाः परमं पाति पाथः प्रिया धामान्यमृता दधानः । अग्निष्टा विश्वा भुवनानि वेद महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१०॥ अविनाशी, प्रिय, लोकों के धारणकर्ता और सर्वरक्षक विरासुदेव अपने मार्ग से परम धाम की रक्षा करते हैं। अग्निदेव उन सम्पूर्ण लोकों के ज्ञाता हैं। देवताओं को महान् विलक्षण शक्ति का स्रोत एक ही हैं॥१०॥ नाना चक्राते यम्या वपूंषि तयोरन्यद्रोचते कृष्णमन्यत् । श्यावी च यदरुषी च स्वसारौ महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥११॥ दिन-रात्रि रूपी दो जुड़वाँ बहिने नाना रूपों को धारण करती हैं । इनमें एक तेजस्विनी और दूसरी कृष्णवर्णा हैं। जो कृष्णवर्णा और प्रकाशयुक्त स्त्रियाँ हैं, वे दोनों परस्पर बहिनें हैं समस्त देवकार्यों का बल संयुक्त ही हैं ॥११॥ माता च यत्र दुहिता च धेनू सबर्दुघे धापयेते समीची । ऋतस्य ते सदसीळे अन्तर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१२॥ (पृथ्वी-द्युलोक) ये दोनों सम्पूर्ण विश्व के उत्पादक, पोषक, तृप्तिदायक, अमृतमय पदार्थों के दाता नाथा सम्पूर्ण विश्व को अपना रस प्रदान करने वाले हैं सर्व उत्पादक होने से माता रूप तथा एक दूसरे से पोषक इस ग्रहण करने के कारण पुत्र-पुत्र रूप (द्यावा- पृथिवीं) की हम स्तुति करते हैं सभी देवताओं का महान् पराक्रम एक ही हैं॥१२॥ अन्यस्या वत्सं रिहती मिमाय कया भुवा नि दधे धेनुरुधः । ऋतस्य सा पयसापिन्वतेळा महदेवानामसुरत्वमेकम् ॥१३॥ दुसरे के वत्स (बड़े या शिशु क (प्रेम से) चाटने वाली, (प्रसन्नता शब्द करने वाली, धेनु (गाय-धारण करने वाली पृथ्वीं) अपने घनों में कहाँ से दूध भरती है ? (सूर्य से उत्पन्न मेघों को प्यार करने वाली धरती में पोषण शक्ति कहाँ से आती हैं ?) यह इला (पृथिवी) ऋज़ (यज्ञ) के दूध से सिंचित होती है, सभी देवों की शक्ति एक ही हैं॥१३॥ पद्या वस्ते पुरुरूपा वपूंष्यूर्ध्वा तस्थौ त्र्यविं रेरिहाणा । ऋतस्य सद्म वि चरामि विद्वान्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१४॥ विराट् पुरुष के पैरों में उत्पन्न होने वाली (पृश्न) विभिन्न रूपों को धारण करती है। तीनों लोकों (घु अन्तरिक्ष और पृथिवी) में प्रकाशित करने वाले सूर्य की किरणों को चाटते हुए ऊर्ध्वं गति पाती हैं । सत्यरूप सूर्यदेव के स्थान को जानते हुए हम उनकों वन्दना करते हैं। समस्त देवों का महान् बल एक ही है॥१४॥ पदे इव निहिते दस्मे अन्तस्तयोरन्यद्गुह्यमाविरन्यत् । सध्रीचीना पथ्या सा विषूची महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१५॥ सुन्दर रूप वाले दिन और रात्रि दोनो अन्तरिक्ष में गमन करते हैं। उनमें एक रात्रि कृष्णवर्णा होने से छिपी हुई रहती है और दूसरा, 'दिन' प्रकाशयुक्त होने से सभी को दृष्टिगोचर होता हैं। इन दोनों (दिन और रात्रि) का मार्ग (अन्तरिक्ष) एक होते हुए भी अलग-अलग विभाजित है। समस्त देवों का महान् बल संयुक्त हो हैं॥१५॥ आ धेनवो धुनयन्तामशिश्वीः सबर्दुघाः शशया अप्रदुग्धाः । नव्यानव्या युवतयो भवन्तीर्महदेवानामसुरत्वमेकम् ॥१६॥ शिशुओं से रहित, अमृत का दोहन करने वालों, तेजस्विता मुक्त, दोहन न की गई तरुणीं गौएँ (किरणें या दिशाये) प्रतिदिन नवीनता को धारण करके अमृत रस प्रदान करती हैं। समस्त देवों का महान् पुरुषार्थ एक ही हैं॥ १६ ॥ यदन्यासु वृषभो रोरवीति सो अन्यस्मिन्यूथे नि दधाति रेतः । स हि क्षपावान्त्स भगः स राजा महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१७॥ जो वीर (तेजस्वी मेघ) किसी दिशा में गर्जन करता है, वह अन्य समूह में जाकर (वर्षा जल रूपों) अपने वीर्य का सिंचन करता है। इस प्रकार जल बरसाकर पृथ्वी का पालन करने और ऐश्वर्य प्रदान करने में वह सबके स्वामी के रूप में प्���तिष्ठित होता है। देवों का महान् बल एक ही हैं॥ १७ ॥ वीरस्य नु स्वव्यं जनासः प्र नु वोचाम विदुरस्य देवाः । षोळ्हा युक्ताः पञ्चपञ्चा वहन्ति महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१८॥ हे मनुष्यों ! (इस) वीर (इन्द्र या आत्मशक्ति) के उत्तम पराक्रम की हम प्रशंसा करें, इनके इस पराक्रम को देवगण भी जानते हैं। ये छ; (षट् शुओं-षट् सम्पत्ती से युक्त है; (किन्तु पाँच पंच प्राण, पंचतत्त्व या पंच इन्द्रियों द्वारा इसका वहन किया जाता हैं। देवों का महान् पराक्रम संयुक्त ही हैं॥ १८ ॥ देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः पुपोष प्रजाः पुरुधा जजान । इमा च विश्वा भुवनान्यस्य महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१९॥ सबके उत्पादक अनेक रूपों से युक्त त्वष्टादेव अनेक प्रकार की प्रजाओं को उत्पन्न करते हैं। वहीं इन्हें परंपुष्ट भी करते हैं। ये सम्पूर्ण भुवन इन्हीं त्वष्टादेव के द्वारा रचे गये हैं। समस्त देवों की महान् शक्ति एक ही हैं॥१९॥ मही समैरच्चम्वा समीची उभे ते अस्य वसुना न्पृष्टे । शृण्वे वीरो विन्दमानो वसूनि महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥२०॥ परस्पर मिल-जुल कर चलने वाले चुलोक और पृथ्वी लोक इन्द्रदेव की महिमा से ही प्रेरित होकर गतिमान् होते हैं। वे दोनों ही लोक इन्द्रदेव के तेज से संव्याप्त हैं। ऐसे शूरवर इन्द्रदेव (कृपण) शत्रुओं के अनों को असपूर्वक प्राप्त करते हैं। समस्त देवों का महान् पराक्रम एक ही है॥२०॥ इमां च नः पृथिवीं विश्वधाया उप क्षेति हितमित्रो न राजा । पुरःसदः शर्मसदो न वीरा महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥२१॥ अपनी प्रजाओं के मित्र के समान हितैषी एक राजा जिस प्रकार सदैव अपनी प्रजा के समीप रहता है, उसी प्रकार इन्द्रदेव भी हम सबको धारण करने वाली पृथ्वी के समीप रहते हैं। इन इन्द्रदेव के सहयोगी वीर मरुद्गण सदैव आगे बढ़ने वाले तथा कल्याण करने वाले हैं। समस्त देवताओं का महान् बस एक ही है॥२१॥ निष्षिध्वरीस्त ओषधीरुतापो रयिं त इन्द्र पृथिवी बिभर्ति । सखायस्ते वामभाजः स्याम महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥२२॥ हे इन्द्रदेव ! जल और ओषधियाँ आपके ऐश्वर्य से हो समृद्धिशाली हैं । पृथ्वीं भी आपके ही ऐश्वर्य को धारण करती हैं। अतएव आपके मित्रस्वरूप हम, श्रेष्ठ ऐश्वर्य-सम्पन्न हों। समस्त देवों का महान् पराक्रम एक ही है॥२२॥

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