ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त २०

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त २० ऋषि - गाथी कौशिकः देवता – अग्निः, १, ५ विश्वे देवाः । छंद - त्रिष्टुप अग्निमुषसमश्विना दधिक्रां व्युष्टिषु हवते वह्निरुक्थैः । सुज्योतिषो नः शृण्वन्तु देवाः सजोषसो अध्वरं वावशानाः ॥१॥ यज्ञ में समर्पित आहुतियों को धारण करने वाले अग्निदेव, उषा, अश्विनीकुमार और दधिक्रा आदि देवों को हम स्तुति वचनों द्वारा बुलाते हैं। उत्तम दीप्तिमान् तथा प्रेम और सहकार पूर्वक रहने वाले देवगण, इस यज्ञ की सफलता की कामना करते हुए हमारी स्तुतियों का श्रवण करें ॥१॥ अग्ने त्री ते वाजिना त्री षधस्था तिस्रस्ते जिह्वा ऋतजात पूर्वीः । तिस्र उ ते तन्वो देववातास्ताभिर्नः पाहि गिरो अप्रयुच्छन् ॥२॥ हे अग्निदेव ! आपके (घृत, ओषधि और सोम) तीन प्रकार के अन्न हैं और तीन प्रकार के (पृथ्वी, अंतरिक्ष और यु) निवास हैं। हे यज्ञ से उत्पन्न अग्निदेव ! आपकी पुरातन तीन जिह्वायें (गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि) हैं। आपके तीन शरीर (पवमान, पावक और शुचि) देवों द्वारा चाहने योग्य हैं। आप प्रमादरहित होकर अपने शरीरों द्वारा हमारे स्तोत्रों की रक्षा करें ॥२॥ अग्ने भूरीणि तव जातवेदो देव स्वधावोऽमृतस्य नाम । याश्च माया मायिनां विश्वमिन्व त्वे पूर्वीः संदधुः पृष्टबन्धो ॥३॥ दीप्तिमान्, ज्ञानवान्, ऐश्वर्यवान् और अविनाशी हे अग्निदेव ! देवताओं ने आपको अनेक विभूतियों से सम्पन्न बनाया है। आप जगत् को तृप्ति प्रदान करने वाले और वांछित फल दाता हैं। हे अग्निदेव ! आप मायावियों की सम्पूर्ण पुरातन मायाओं को भली-भाँति जानते हुए उन्हें धारण करते हैं॥३॥ अग्निर्नेता भग इव क्षितीनां दैवीनां देव ऋतुपा ऋतावा । स वृत्रहा सनयो विश्ववेदाः पर्षद्विश्वाति दुरिता गृणन्तम् ॥४॥ ऋतुओं का संचालन करने वाले ऐश्वर्यवान् सूर्यदेव के सदृश ये अग्निदेव मनुष्यों और देवताओं का नेतृत्व करते हैं। वे यज्ञादि सत्कर्म करने वाले, वृत्र का नाश करने वाले, सनातन, सर्वज्ञ और दीप्तिमान् हैं। वे अग्निदेव हम स्तोताओं को सम्पूर्ण पापों से मुक्त करें ॥४॥ दधिक्रामग्निमुषसं च देवीं बृहस्पतिं सवितारं च देवम् । अश्विना मित्रावरुणा भगं च वसूत्रुद्राँ आदित्याँ इह हुवे ॥५॥ हम दधिक्रा, अग्नि, दीप्तिमान् उषा, बृहस्पति, सवितादेव, दोनों अश्विनीकुमार, मित्र, वरुण, भगदेव, वसुओं, रुद्रों और आदित्यों से इस यज्ञ में उपस्थित होने की प्रार्थना करते हैं॥५॥

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