ऋग्वेद द्वितीय मंडल सूक्त १

ऋग्वेद - द्वितीय मंडल सूक्त १ ऋषिः- गृत्समद (अंगीरसः शौन होत्रः पश्चयाद) भार्गवः शौनकः। देवता-अग्नि । छंद-जगती त्वमग्ने युभिस्त्वमाशुशुक्षणिस्त्वमद्भयस्त्वमश्मनस्परि । त्वं वनेभ्यस्त्वमोषधीभ्यस्त्वं नृणां नृपते जायसे शुचिः ॥१॥ हे मनुष्यों के स्वामी अग्निदेव! आप द्युलोक से प्रकट होकर शीघ्र प्रकाशित होने वाले तथा पवित्र हैं। आप बड़वाग्नि रूप में जल से, चिंगारी रूप में पाषाण घर्षण से, दावानल रूप में वनों से, तेजाबयुक्त ज्वलनशील रूप में ओषधियों से उत्पन्न होने वाले हैं॥१॥ तवाग्ने होत्रं तव पोत्रमृत्वियं तव नेष्टं त्वमग्निदृतायतः । तव प्रशास्त्रं त्वमध्वरीयसि ब्रह्मा चासि गृहपतिश्च नो दमे ॥२॥ हे अग्ने ! यज्ञीय प्रक्रिया के संचालक ऋत्विजों में आप ही देव आवाहन कर्ता होता, पवित्रता बनाये रखने वाले पोता, सोमादि का वितरण करने वाले नेष्टा, अग्निकर्म के ज्ञाता आग्नीध हैं। आप ही यज्ञ की कामना करने वाले प्रशास्ता अर्थात प्रेरणा देने वाले, कर्मकाण्ड के संचालक अध्वर्यु तथा निरीक्षक ब्रह्मा हैं। यजमान यज्ञकर्ता गृहपति भी आप ही हैं॥२॥ त्वमग्न इन्द्रो वृषभः सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्यः । त्वं ब्रह्मा रयिविद्ब्रह्मणस्पते त्वं विधर्तः सचसे पुरंध्या ॥३॥ हे अग्निदेव ! आप सज्जनों को प्रभावशाली नेतृत्व प्रदान करने वाले इन्द्र हैं। आप ही सबके स्तुत्य सर्वव्यापी विष्णु हैं। हे ज्ञान सम्पन्न अग्निदेव ! आप उत्तम ऐश्वर्य से युक्त ब्रह्मा हैं, विविध प्रकार की बुद्धि को धारण करने के कारण आप मेधावी हैं॥३॥ त्वमग्ने राजा वरुणो धृतव्रतस्त्वं मित्रो भवसि दस्म ईड्यः । त्वमर्यमा सत्पतिर्यस्य सम्भुजं त्वमंशो विदथे देव भाजयुः ॥४॥ हे अग्निदेव ! आप व्रतों को धारण करने वाले राजा वरुण हैं। दुष्टनाशक तथा सबके स्तुत्य मित्र देवता हैं। सर्वव्यापी आप दान देने वाले सज्जनों के पालक अर्यमा हैं । आप ही सूर्य हैं । अतः हे अग्निदेव ! दिव्य गुणों से युक्त अभीष्ट फल हमें प्रदान करें ॥४॥ त्वमग्ने त्वष्टा विधते सुवीर्यं तव ग्नावो मित्रमहः सजात्यम् । त्वमाशुहेमा ररिषे स्वश्व्यं त्वं नरां शर्धी असि पुरूवसुः ॥५॥ हे अग्निदेव ! साधकों के लिए आप श्रेष्ठ पराक्रम प्रदान करने वाले त्वष्टादेव हैं। सभी स्तुतियाँ आपके लिये हैं। आप हमारे मित्र और सजातीय (बन्धु हैं। आप शीघ्र ही उत्तम ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं। हे अग्निदेव ! आप मनुष्यों को आश्रय प्रदान करने वाले महान् बली हैं॥५॥ त्वमग्ने रुद्रो असुरो महो दिवस्त्वं शर्धी मारुतं पृक्ष ईशिषे । त्वं वातैररुणैर्यासि शंगयस्त्वं पूषा विधतः पासि नु त्मना ॥६॥ हे अग्निदेव ! आप द्युलोक के प्राणदाता रुद्र हैं। आप अन्नाधिपति तथा मरुतों के बल हैं। आप वायु के समान द्रुतगामी अश्व पर आरूढ़ होकर, कल्याण की कामना वाले गृहस्वामी के यहाँ जाते हैं। आप पोषणकर्ता पूषादेव हैं, अतः आप स्वयं ही मनुष्यों की रक्षा करते हैं॥६॥ त्वमग्ने द्रविणोदा अरंकृते त्वं देवः सविता रत्नधा असि । त्वं भगो नृपते वस्व ईशिषे त्वं पायुर्दमे यस्तेऽविधत् ॥७॥ हे अग्निदेव ! प्रज्वलित करने वाले को आप धन प्रदान करते हैं। आप रत्नों के धारणकर्ता सवितादेव हैं। हे प्रजापालक अग्निदेव! आप ही धनाधिपति भग' देव हैं। जो अपने घर में आपको प्रज्वलित रखती हैं, उसकी आप रक्षा करें ॥७॥ त्वामग्ने दम आ विश्पतिं विशस्त्वां राजानं सुविदत्रमृञ्जते । त्वं विश्वानि स्वनीक पत्यसे त्वं सहस्राणि शता दश प्रति ॥८॥ हे प्रजापालक अग्निदेव प्रजा अपने घरों में प्रकाशमान तथा ज्ञानयुक्त अग्नि के रूप में आपको प्राप्त करती है। हे सुन्दर ज्वालाओं से युक्त अग्निदेव! आप सम्पूर्ण विश्व के स्वामी हैं तथा लाखों फल प्रदान करने वाले हैं॥८॥ त्वामग्ने पितरमिष्टिभिर्नरस्त्वां भ्रात्राय शम्या तनूरुचम् । त्वं पुत्रो भवसि यस्तेऽविधत्त्वं सखा सुशेवः पास्याधृषः ॥९॥ हे अग्निदेव ! आप मनुष्यों के पितर हैं, वे यज्ञों द्वारा आपको तृप्त करते हैं। आपका भ्रातृत्व प्राप्त करने के लिए वे शरीर को तेजस्वी बनाने वाले आपको कर्मों से प्रसन्न करते हैं। सेवा करने वालों के लिए आप पुत्र (तुष्टिकर) बन जाते हैं। आप मित्र, हितैषी तथा विघ्ननाशक बनकर हमारी रक्षा करें ॥९॥ त्वमग्न ऋभुराके नमस्यस्त्वं वाजस्य क्षुमतो राय ईशिषे । त्वं वि भास्यनु दक्षि दावने त्वं विशिक्षुरसि यज्ञमातनिः ॥१०॥ हे अग्निदेव ! आपका अत्यन्त तेजस्वी स्वरूप भी समीप से स्तुति के योग्य है। आप प्रचुर अन्न आदि भोग्य सामग्री से युक्त बल के स्वामी हैं। आप काष्ठों को जलाकर प्रकाशित होते हैं। आप दान देने वालों के यज्ञ को पूर्ण करते हैं॥१०॥ त्वमग्ने अदितिर्देव दाशुषे त्वं होत्रा भारती वर्धसे गिरा । त्वमिळा शतहिमासि दक्षसे त्वं वृत्रहा वसुपते सरस्वती ॥११॥ हे अग्निदेव ! आप दान-दाताओं के लिए 'अदिति' हैं। वाणी रूपी स्तुतियों से विस्तृत होने के कारण 'होता' तथा 'भारती' हैं। सैकड़ों वर्ष की आयु प्रदान करने में समर्थ होने के कारण आप 'इळा' हैं। हे धनाधिपति अग्निदेव ! आप वृत्रहन्ता और 'सरस्वती' हैं ॥११॥ त्वमग्ने सुभृत उत्तमं वयस्तव स्पार्हे वर्ण आ संदृशि श्रियः । त्वं वाजः प्रतरणो बृहन्नसि त्वं रयिर्बहुलो विश्वतस्पृथुः ॥१२॥ हे अग्निदेव ! आप सर्वश्रेष्ठ पोषक अन्न हैं। आपके द्वारा ही वरण करने योग्य तथा दर्शनीय ऐश्वर्य प्राप्त होता है। आप सदा बढ़ने वाले तथा महान् हैं। आप प्रचुर अन्न एवं ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं॥१२॥ त्वामग्न आदित्यास आस्यं त्वां जिह्वां शुचयश्चक्रिरे कवे । त्वां रातिषाचो अध्वरेषु सश्चिरे त्वे देवा हविरदन्त्याहुतम् ॥१३॥ हे दूरदर्शी अग्निदेव ! आप आदित्यों के मुख हैं। पवित्र देवगणों के लिए आप जिह्वा रूप हैं। यज्ञ में दानशील देवगण आपका ही आश्रय प्राप्त करते हैं और आपको समर्पित की गई आहुतियों को ग्रहण करते हैं॥१३॥ त्वे अग्ने विश्वे अमृतासो अद्रुह आसा देवा हविरदन्त्याहुतम् । त्वया मर्तासः स्वदन्त आसुतिं त्वं गर्भी वीरुधां जज्ञिषे शुचिः ॥१४॥ हे अग्निदेव ! परस्पर द्रोह न करने वाले, अमरत्व प्राप्त सभी देवगण आपके मुख से ही हविष्यान्न ग्रहण करते हैं। आपका आश्रय प्राप्त करके ही मनुष्य अन्नादि को ग्रहण करते हैं। हे अग्निदेव! आप वृक्ष- वनस्पतियों में ऊर्जा के रूप में विद्यमान रहकर अन्नादि को उत्पन्न करते हैं॥१४॥ त्वं तान्सं च प्रति चासि मज्मनाग्ने सुजात प्र च देव रिच्यसे । पृक्षो यदत्र महिना वि ते भुवदनु द्यावापृथिवी रोदसी उभे ॥१५॥ हे अग्निदेव ! आप अपनी शक्ति से देवगणों से संयुक्त एवं पृथक् होते हैं तथा अपने महान् गुणों के कारण ही देवगणों में सर्वश्रेष्ठ हैं । आपको जो कुछ भी अन्न समर्पित किया जाता है, उसे आप द्युलोक तथा पृथिवीं लोक के मध्य विस्तृत कर देते हैं॥१५॥ ये स्तोतृभ्यो गोअग्रामश्वपेशसमग्ने रातिमुपसृजन्ति सूरयः । अस्माज्ञ्च ताँश्च प्र हि नेषि वस्य आ बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥१६॥ हे अग्निदेव ! जो ज्ञानीजन स्तोताओं को गाय तथा घोड़े आदि पशुओं का दान करते हैं, उन दानियों सहित हमें श्रेष्ठ (यज्ञ) स्थल पर शीघ्र ले चलें। हम वीर सन्तति से युक्त यज्ञ में उत्तम स्तुतियाँ करें ॥१६॥

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