ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १६८

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १६८ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता- मरुतः । छंद -जगती, ८-१० त्रिष्टुप, यज्ञायज्ञा वः समना तुतुर्वणिर्धियंधियं वो देवया उ दधिध्वे । आ वोऽर्वाचः सुविताय रोदस्योर्महे ववृत्यामवसे सुवृक्तिभिः ॥१॥ हे मरुद्गण ! प्रत्येक यज्ञीय कर्म में आपके मन की अनकलता ही कार्य को तत्परता से सम्पन्न करा लेती है। आपका चिन्तन देवत्व की ओर ही उन्मुख होता है। हम आकाश और पृथ्वी की सुस्थिरता तथा संरक्षण की कामना से श्रेष्ठ स्तुतियों द्वारा आपको यहाँ आवाहित करते हैं॥१॥ वव्रासो न ये स्वजाः स्वतवस इषं स्वरभिजायन्त धूतयः । सहस्रियासो अपां नोर्मय आसा गावो वन्द्यासो नोक्षणः ॥२॥ हे मरुद्गण ! आप अपनी सामर्थ्य से अत्यधिक पौष्टिक अन्न की प्राप्ति के लिए स्वयं प्रकट हुए हैं। आप जल की लहरों के समान हजारों लोगों द्वारा प्रशंसित हैं। आप पूज्य गौ आदि (पशुधन) के समान सदैव हमारे समीप रहें ॥२॥ सोमासो न ये सुतास्तृप्तांशवो हृत्सु पीतासो दुवसो नासते । ऐषामंसेषु रम्भिणीव रारभे हस्तेषु खादिश्च कृतिश्च सं दधे ॥३॥ सोमरस पान करने से जिस प्रकार तृप्ति होती हैं, उसी प्रकार इन मरुद्गणों के कंधों पर सुशोभित आयुधों का आश्रय प्राप्त कर सेना प्रसन्न एवं निर्भय होती है। इन मरुद्गणों के हाथों में अलंकृत तलवारें भी सुशोभित हैं॥३॥ अव स्वयुक्ता दिव आ वृथा ययुरमर्त्याः कशया चोदत त्मना । अरेणवस्तुविजाता अचुच्यवुर्हव्ळ्हानि चिन्मरुतो भ्राजदृष्टयः ॥४॥ अपनी ही इच्छा से कर्मरत ये मरुद्गण दिव्यलोक से अनायास ही अन्तरिक्ष में आये हैं। हे अविनाशी मरुतो! आप अपनी शक्तियों से प्रेरणा प्रदान करें। प्रखर एवं तेजस्वी शक्तियों से हथियारों को धारण करने वाले ये वीर मरुद्गण प्रबलतम शत्रुओं को भी परास्त कर देते हैं॥४॥ को वोऽन्तर्मरुत ऋष्टिविद्द्युतो रेजति त्मना हन्वेव जिह्वया । धन्वच्युत इषां न यामनि पुरुप्रैषा अहन्यो नैतशः ॥५॥ हे आयुधों से सुशोभित वीर मरुतो ! आप अन्न वृद्धि के लिए विशेष प्रेरणाएँ प्रदान करते हैं। धनुष से छोड़े गये बाण के समान, प्रशिक्षित अश्वों के समान तथा जीभ के साथ स्वतः चलायमान हुनु (डी) की तरह कौन आपको गतिशील करता है? ॥५॥ क्व स्विदस्य रजसो महस्परं क्वावरं मरुतो यस्मिन्नायय । यच्च्यावयथ विथुरेव संहितं व्यद्रिणा पतथ त्वेषमर्णवम् ॥६॥ हे वीर मरुद्गण ! आप जिस महान् तथा असीम अन्तरिक्ष से आते हैं, उसका आदि-अन्त कौन सा है? जब आप सघन बादलों को हिलाते हैं, उस समय वज्र प्रहार से आश्रयहीन होने के समान वे तेजस्वी बादल जल वृष्टि करने लगते हैं॥६॥ सातिर्न वोऽमवती स्वर्वती त्वेषा विपाका मरुतः पिपिष्वती । े भद्रा वो रातिः पृणतो न दक्षिणा पृथुज्रयी असुर्येव जज्ञ्जती ॥७॥ हे वीर मरुद्गण ! आपके अनुदानों की तरह ही आपकी सम्पदा भी है । वह सामर्थ्यवान्, सुखप्रद, तेजसम्पन्न, विशिष्ट फलदायक, शत्रुदल संहारक तथा कल्याणकारी है। आपकी कृपा दक्षिणा के समान ही विजय प्रदान करने वालीं और दैवी शक्ति के समान शत्रु को परास्त करने वाली है॥७॥ प्रति ष्टोभन्ति सिन्धवः पविभ्यो यदभ्रियां वाचमुदीरयन्ति । अव स्मयन्त विद्युतः पृथिव्यां यदी घृतं मरुतः प्रुष्णुवन्ति ॥८॥ जब इन वीर मरुद्गणों के रथ के पहियों से मेघों के गर्जन के समान प्रतिध्वनि सुनाई देती हैं, तब नदियों के जल प्रवाह में भारी खलबली मच जाती है। वीर मरुद्गण जब जल वृष्टि करते हैं, तब पृथ्वी पर विद्युत् तरंगें मानो हास्य कर रहीं प्रतीत होती हैं॥८॥ असूत पृश्निर्महते रणाय त्वेषमयासां मरुतामनीकम् । ते सप्सरासोऽजनयन्ताभ्वमादित्स्वधामिषिरां पर्यपश्यन् ॥९॥ मातृभूमि की प्रेरणा से महासंग्राम के लिए गतिशील वीर मरुतों की प्रखर तेजस्वी सेना अस्तित्व में आयी। संगठित होकर शत्रुओं पर प्रहार करने वाले इन वीरों ने संग्राम में प्रखर तेजस्विता का परिचय दिया। उसके बाद सभी ने अन्न उत्पादक एवं धारक क्षमताओं को भी चारों ओर फैले हुए अनुभव किया ॥९॥ एष वः स्तोमो मरुत इयं गीर्मान्दार्यस्य मान्यस्य कारोः । एषा यासीष्ट तन्वे वयां विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥१०॥ हे वीर मरुतो ! सम्माननीय कवियों द्वारा आपको प्रसन्न करने के लिए उनके द्वारा की गई काव्य रचना आपके निमित्त समर्पित है । ये स्तुतियाँ आपको परिपुष्ट बनाएँ। हमें भी अन्न, बल तथा विजय प्राप्त कराएँ ॥१०॥

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