Kalagrirudropanishat (कालाग्रिरुद्रोपनिषत्‌)

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ कालाग्निरुद्रोपनिषत् ॥ ॥ हरिः ॐ ॥ ब्रह्मज्ञानोपायतया यद्विभूतिः प्रकीर्तिता । तमहं कालाग्निरुद्रं भजतां स्वात्मदं भजे ॥ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ श्री हरि ॥ ॥ कालाग्निरुद्रोपनिषत् ॥ कालाग्निरुद्र उपनिषद ॐ अथ कालाग्निरुद्रोपनिषदः संवर्तकोऽग्निरृषिरनुष्टुप्छन्दः श्रीकालाग्निरुद्रो देवता श्रीकालाग्निरुद्रप्रीत्यर्थे भस्मत्रिपुण्ड्रधारणे विनियोगः ॥॥१॥ इस कालाग्निरुद्रोपनिषद् के ऋषि संवर्तक अग्नि, अनुष्टुप् छन्द और देवता श्रीकालाग्नि रुद्र हैं। श्री कालाग्निरुद्र देव की प्रसन्नता के लिए इसका विनियोग किया जाता है॥१॥ अथ कालाग्निरुद्रं भगवन्तं सनत्कुमारः पप्रच्छ अधीहि भगवंस्त्रिपुण्ड्रविधिं सतत्त्वं किं द्रव्यं कियत्स्थानं कतिप्रमाणं का रेखा के मन्त्राः का शक्तिः किं दैवतं कः कर्ता किं फलमिति च ।॥२॥ किसी समय एक बार सनत्कुमारजी ने भगवान् कालाग्निरुद्रदेव से प्रश्न किया- 'हे भगवन् ! त्रिपुण्डू की विधि तत्त्वसहित मुझे समझाने की कृपा करें। वह क्या है? उसका स्थान कौन सा है, उसका प्रमाण (अर्थात्-आकार) कितना है, उसकी रेखाएँ कितनी हैं, उसका कौन सा मंत्र है, उसकी शक्ति क्या है, उसका कौन सा देवता है, कौन उसका कर्ता है तथा उसका फल क्या होता है? ॥२॥ तं होवाच भगवान्कालाग्निरुद्रः यद्रव्यं तदाग्नेयं भस्म सद्योजातादिपञ्चब्रह्ममन्त्रैः परिगृह्याग्निरिति भस्म वायुरिति भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्म व्योमेति भस्मेत्यनेनाभिमन्त्र्य ॥३॥ मानस्तोक इति समुद्धृत्यमा नो महान्तमिति जलेन संसृज्य त्रियायुषमिति शिरोललाटवक्षः स्कन्धेषु त्रियायुषैस्त्र्यम्बकैस्त्रिशक्तिभिस्तिर्यक्तिस्रो ॥४॥ रेखाः प्रकुर्वीत व्रतमेतच्छाम्भवं सर्वेषु देवेषु वेदवादिभिरुक्तं भवति तस्मात्तत्समाचरेन्मुमुक्षुर्न पुनर्भवाय ॥५॥ यह सुनकर उन भगवान् कालाग्निरुद्र ने सनत्कुमार जी को समझाते हुए कहा कि त्रिपुण्डू का द्रव्य अग्निहोत्र की भस्म ही है। इस भस्म को 'सद्योजातादि' पञ्चब्रह्म मंत्रों को पढ़कर धारण करना चाहिए। अग्निरिति भस्म, वायुरिति भस्म, खमिति भस्म, जलमिति भस्म, स्थलमिति भस्म, (पञ्चभूतादि) मन्त्रों से अभिमन्त्रित करे।'मानस्तोक' मंत्र से अँगुली पर ले तथा'मा नो महान्' मन्त्र से जल से गीला करके 'त्रियायुषं' इस मंत्र से सिर, ललाट, वक्ष एवं कन्धे पर तथा 'त्रियायुष' एवं 'त्र्यम्बक' मन्त्र के द्वारा तीन रेखाएँ बनाए। इसी का नाम शाम्भव व्रत कहा गया है। इस व्रत का वर्णन वेदज्ञों ने समस्त वेदों में किया है। जो मुमुक्षु जन यह आकांक्षा रखते हैं कि उन्हें पुनर्जन्म न लेना पड़े, तो उन्हें इसे धारण करना चाहिए ॥३-५॥ अथ सनत्कुमारः पप्रच्छ प्रमाणमस्य त्रिपुण्ड्रधारणस्य त्रिधा रेखा भवत्याललाटादाचक्षुषोरामूर्धोराभ्रुवोर्मध्यतश्च ॥६॥ ऐसा सुनने के पश्चात् सनत्कुमार जी ने पूछा कि त्रिपुण्ड्र की तीन रेखाओं को धारण करने का प्रमाण (लम्बाई आदि) क्या है? ॥ भगवान् श्री कालाग्निरुद्र ने उत्तर दिया कि तीन रेखाएँ दोनों नेत्रों के भ्रूमध्य से आरम्भ कर स्पर्श करते हुए ललाट- मस्तक पर्यन्त धारण करे ॥६॥ यास्य प्रथमा रेखा सा गार्हपत्यश्चाकारो रजोभूर्लोकः स्वात्मा क्रियाशक्तिरुग्वेदः प्रातःसवनं महेश्वरो देवतेति ॥७॥ प्रथम रेखा गार्हपत्य अग्निरूप, 'अ' कार रूप, रजोगुणरूप, भूलोकरूप, स्वात्मकरूप, क्रियाशक्तिरूप, ऋग्वेदस्वरूप, प्रातः सवनरूप तथा महेश्वरदेव के रूप की है॥७॥ यास्य द्वितीया रेखा सा दक्षिणाग्निरुकारः सत्वमन्तरिक्षमन्तरात्मा- चेच्छाशक्तिर्यजुर्वेदो माध्यंदिनं सवनं सदाशिवो देवतेति ॥८॥ द्वितीय रेखा दक्षिणाग्निरूप, 'उ'कार रूप, सत्त्वरूप, अन्तरिक्षरूप, अन्तरात्मारूप, इच्छाशक्तिरूप, यजुर्वेदरूप, माध्यन्दिन सवनरूप एवं सदाशिव के रूप की है॥८॥ यास्य तृतीया रेखा साहवनीयो मकारस्तमो द्यौर्लोकः परमात्मा ज्ञानशक्तिः सामवेदस्तृतीयसवनं महादेवो देवतेति ॥९॥ तीसरी रेखा आहवनीयाग्नि रूप, 'म' कार रूप, तमरूप, यु- लोकरूप, परमात्मारूप, ज्ञानशक्तिरूप, सामवेदरूप, तृतीय सवनरूप तथा महादेवरूप की है॥९॥ एवं त्रिपुण्ड्रविधिं भस्मना करोति यो विद्वान्ब्रह्मचारी गृही री गृही वानप्रस्थो यतिर्वा स महापातकोपपातकेभ्यः पूतो भवति स सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति स सर्वान्वेदानधीतो भवति स सर्वान्देवाञ्ज्ञातो भवति स सततं सकलरुद्रमन्त्रजापी भवति स सकलभोगान्भु‌ङ्क्ते देहं त्यक्त्वा शिवसायुज्यमेति न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तत इत्याह भगवान्कालाग्निरुद्रः ॥१०॥ इस तरह से त्रिपुण्ड्र की विधि से जो भी कोई ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी अथवा संन्यासी भस्म को धारण करता है। वह महापातकों एवं उपपातकों से मुक्त हो जाता है। वह समस्त तीर्थों में स्नान करने के सदृश पवित्र हो जाता है, उसे समस्त वेदों के पारायण का फल प्राप्त हो जाता है। वह सम्पूर्ण देवों को जानने में समर्थ हो जाता है। वह समस्त प्रकार के भोगों को भोगकर भगवान् शिव के लोक को प्राप्त करता है। वह पुनः जन्म नहीं लेता। इस प्रकार से भगवान् कालाग्निरुद्रदेव ने सनत्कुमार जी से त्रिपुण्ड्र के धारण करने की विधि का वर्णन किया है॥१०॥ यस्त्वेतद्वाधीते सोऽप्येवमेव भवतीत्यों सत्यमित्युपनिषत् ॥ ११॥ जो मनुष्य इस उपनिषद् का अध्ययन करता है, वह भी उसी रूप में (शिवरूप में) हो जाता है। ॐ ही सत्य है। ऐसी ही यह उपनिषद् है॥११॥ ॥ हरि ॐ ॥ शान्तिपाठ ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ १९॥ परमात्मा हम दोनों गुरु शिष्यों का साथ साथ पालन करे। हमारी रक्षा करें। हम साथ साथ अपने विद्याबल का वर्धन करें। हमारा अध्यान किया हुआ ज्ञान तेजस्वी हो। हम दोनों कभी परस्पर द्वेष न करें। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हमारे, अधिभौतिक, अधिदैविक तथा तथा आध्यात्मिक तापों (दुखों) की शांति हो। ॥ इति कालाग्निरुद्रोपनिषत् ॥ ॥ कालाग्निरुद्र उपनिषद समाप्त ॥

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