ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ६८

ऋग्वेद - पंचम मंडल सूक्त ६८ ऋषिः यजत आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ । छंद - गायत्री प्र वो मित्राय गायत वरुणाय विपा गिरा । महिक्षत्रावृतं बृहत् ॥१॥ हे मंत्विजो ! आप मित्र और वरुणदेव हेतु तेज ध्वनि से गायन करें। महानतायुक्त, क्षात्रबल से सम्पन्न वे दोनों यज्ञ-स्थल पर विस्तृत स्तोत्रगान-श्रवण हेतु उपस्थित हों ॥१॥ सम्राजा या घृतयोनी मित्रश्वोभा वरुणश्च । देवा देवेषु प्रशस्ता ॥२॥ तेजस्विता के उत्पत्ति केन्द्र, मित्र और वरुण दोनों अधिपतियों की देवगणों के बीच प्रशंसा होती है ॥२॥ ता नः शक्तं पार्थिवस्य महो रायो दिव्यस्य । महि वां क्षत्रं देवेषु ॥३॥ देवताओं में प्रसिद्ध, पराक्रमी, हे मित्र और वरुणदेवो! आप हमें पृथ्वी एवं द्युलोक की अपार वैभव प्रदान करें, हम आपका स्तवन करते हैं ॥३॥ ऋतमृतेन सपन्तेषिरं दक्षमाशाते । अद्रुहा देवौ वर्धते ॥४॥ सत्य से सत्य का पालन करने वाले अभीष्ट बल प्राप्त करते हैं। द्रोह न करने वाले मित्र और वरुणदेव अपनी सामर्थ्य से वृद्धि पाते हैं ॥४॥ वृष्टिद्यावा रीत्यापेषस्पती दानुमत्याः । बृहन्तं गर्तमाशाते ॥५॥ वर्षा के लिए जिनकी वंदना की जाती हैं, नियमानुसार सब कुछ प्राप्त करने वाले, दान की प्रवृत्ति वाले, अन्नों के अधिपति वे मित्र और वरुणदेव श्रेष्ठ स्थान में प्रतिष्ठित हैं ॥५॥

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