ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १४९

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १४९ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- अग्नि । छंद - विराट महः स राय एषते पतिर्दन्निन इनस्य वसुनः पद आ । उप ध्रजन्तमद्रयो विधन्नित् ॥१॥ जब वे अग्निदेव धन-सम्पदा प्रदान करने के लिए हमारे यज्ञों में आगमन करते हैं, तब पत्थरों द्वारा कूटकर अभिषुत सोमरस से उनका अभिनन्दन किया जाता है॥१॥ स यो वृषा नरां न रोदस्योः श्रवोभिरस्ति जीवपीतसर्गः । प्र यः सस्राणः शिश्रीत योनौ ॥२॥ शक्तिशाली पुरुष की तरह अग्निदेव द्युलोक और भूलोक में यश सहित रहते हैं। वे प्राणियों के लिए उपयुक्त सृष्टि की रचना करते हैं। वे ही प्रदीप्त होकर यज्ञवेदी में स्थापित होते हैं ॥२॥ आ यः पुरं नार्मिणीमदीदेदत्यः कविर्नभन्यो नार्वा । सूरो न रुरुक्वाञ्छतात्मा ॥३॥ जो अग्निदेव यजमानों द्वारा निर्मित यज्ञ वेदियों को प्रदीप्त करते हैं, जो द्रुतगामी घोड़े और वायु के सदृश गति वाले तथा दूर द्रष्टा हैं, वे अनेक रूपों में (विद्युत्, प्रकाश, ऊर्जा आदि) सुशोभित अग्निदेव सूर्यदेव के संदृश तेजोमय हैं॥३॥ अभि द्विजन्मा त्री रोचनानि विश्वा रजांसि शुशुचानो अस्थात् । होता यजिष्ठो अपां सधस्थे ॥४॥ ये अग्निदेव द्विजन्मा (दो अरणियों अथवा मंथन एवं अग्याधान से स्थापित) हैं, त्रिरोचन (सूर्य, विद्युत् एवं लौकिक अग्निरूप में) सारे विश्व को प्रकाशित करने वाले हैं। ये होता अग्निदेव जलों के बीच भी विद्यमान हैं ॥४॥ अयं स होता यो द्विजन्मा विश्वा दधे वार्याणि श्रवस्या । मर्तो यो अस्मै सुतुको ददाश ॥५॥ दो अरणियों से उत्पन्न हुए अग्निदेव देवों का आवाहन करने (बुलाने) वाले, सब श्रेष्ठ धनों और यशस्वी कर्मों के धारक हैं। वे अग्निदेव अपने याजकों को उत्तम सम्पत्ति प्रदान करने वाले हैं॥५॥

Recommendations