ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ३३

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ३३ ऋषि - हिरण्यस्तूप अंगीरसः देवता- इन्द्र । छंद - त्रिष्टुप एतायामोप गव्यन्त इन्द्रमस्माकं सु प्रमतिं वावृधाति । अनामृणः कुविदादस्य रायो गवां केतं परमावर्जते नः ॥१॥ गौओं को प्राप्त करने की कामना से युक्त मनुष्य इन्द्रदेव के पास जायें । ये अपराजेय इन्द्रदेव हमारे लिए गोरूप धनों को बढ़ाने की उत्तम बुद्धि देंगे। वे गौओं की प्राप्ति का उत्तम उपाय करेंगे ॥१॥ उपेदहं धनदामप्रतीतं जुष्टां न श्येनो वसतिं पतामि । इन्द्रं नमस्यन्नुपमेभिरकैर्यः स्तोतृभ्यो हव्यो अस्ति यामन् ॥२॥ श्येन पक्षी के वेगपूर्वक घोंसले में जाने के समान हम उन धन दाता इन्द्रदेव के समीप पहुँचकर, स्तोत्रों से उनका पूजन करते हैं। युद्ध में सहायता के लिए स्तोताओं द्वारा बुलाये जाने पर अपराजेय इन्द्रदेव अविलम्ब पहुँचते हैं॥२॥ नि सर्वसेन इषुधीँरसक्त समर्यो गा अजति यस्य वष्टि । चोष्कूयमाण इन्द्र भूरि वामं मा पणिर्भूरस्मदधि प्रवृद्ध ॥३॥ सब सेनाओं के सेनापति इन्द्रदेव तरकसों को धारण कर गौओं एवं धन को जीतते हैं। हे स्वामी इन्द्रदेव! हमारी धन प्राप्ति की इच्छा पूरी करने में आप वैश्य की तरह विनिमय जैसा व्यवहार न करें ॥३॥ वधीर्हि दस्युं धनिनं घनेनँ एकश्चरन्नुपशाकेभिरिन्द्र । धनोरधि विषुणक्ते व्यायन्नयज्वानः सनकाः प्रेतिमीयुः ॥४॥ हे इन्द्रदेव ! आपने अकेले ही अपने प्रचण्ड वज्र से धनवान् दस्यु 'वृत्र' का वध किया । जब उसके अनुचरों ने आप के ऊपर आक्रमण किया, तब यज्ञ विरोधी उन दानवों को आपने (दृढ़तापूर्वक) नष्ट कर दिया ॥४॥ परा चिच्छीर्षा ववृजुस्त इन्द्रायज्वानो यज्वभिः स्पर्धमानाः । प्र यद्दिवो हरिवः स्थातरुग्र निरव्रताँ अधमो रोदस्योः ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! याजकों से स्पर्धा करने वाले अयाज्ञिक मुँह छिपाकर भाग गये। हे अश्व-अधिष्ठत इन्द्रदेव! आप युद्ध में अटल और प्रचण्ड सामर्थ्य वाले हैं। आपने आकाश, अन्तरिक्ष और पृथ्वी से धर्म- व्रतहीनों को हटा दिया है॥५॥ अयुयुत्सन्ननवद्यस्य सेनामयातयन्त क्षितयो नवग्वाः । वृषायुधो न वध्रयो निरष्टाः प्रवद्भिरिन्द्राच्चितयन्त आयन् ॥६॥ उन शत्रुओं ने इन्द्रदेव की निर्दोष सेना पर पूरी शक्ति के साथ प्रहार किया, फिर भी हार गये। उनकी वही स्थिति हो गयी, जो शक्तिशाली वीर से युद्ध करने पर नपुंसक की होती है। अपनी निर्बलता स्वीकार करते हुए वे सब इन्द्रदेव से दूर चले गये ॥६॥ त्वमेतान्नुदतो जक्षतश्चायोधयो रजस इन्द्र पारे । अवादहो दिव आ दस्युमुच्चा प्र सुन्वतः स्तुवतः शंसमावः ॥७॥ हे इन्द्रदेव ! आपने रोने या हँसने वाले इन शत्रुओं को युद्ध करके मार दिया, दस्यु वृत्र को ऊँचा उठाकर आकाश से नीचे गिराकर जला दिया। आपने सोमयज्ञ करने वालों और प्रशंसक स्तोताओं की रक्षा की॥७॥ चक्राणासः परीणहं पृथिव्या हिरण्येन मणिना शुम्भमानाः । न हिन्वानासस्तितिरुस्त इन्द्रं परि स्पशो अदधात्सूर्येण ॥८॥ उन शत्रुओं ने पृथ्वी के ऊपर अपना आधिपत्य स्थापित किया और स्वर्ण-रत्नादि से सम्पन्न हो गये, परन्तु वे इन्द्रदेव के साथ युद्ध में न ठहर सके। सूर्यदेव के द्वारा उन्हें दूर कर दिया गया॥८॥ परि यदिन्द्र रोदसी उभे अबुभोजीर्महिना विश्वतः सीम् । अमन्यमानाँ अभि मन्यमानैर्निर्ब्रह्मभिरधमो दस्युमिन्द्र ॥९॥ हे इन्द्रदेव ! आपने अपनी सामर्थ्य से द्युलोक और भूलोक का चारों ओर से उपयोग किया। हे इन्द्रदेव! आपने अपने अनुचरों द्वारा विरोधियों पर विजय प्राप्त की। आपने मन्त्र-शक्ति से (ज्ञानपूर्वक किये गये प्रयासों से) शत्रु पर विजय प्राप्त की॥९॥ न ये दिवः पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन् । युजं वज्रं वृषभश्चक्र इन्द्रो निर्योतिषा तमसो गा अदुक्षत् ॥१०॥ मेघ रूप वृत्र के द्वारा रोक लिये जाने के कारण जो जल द्युलोक से पृथ्वी पर नहीं बरस सके एवं जलों के अभाव से भूमि शस्यश्यामला न हो सकी, तब इन्द्रदेव ने अपने जाज्वल्यमान वज्र से अन्धकार रूपों मेघ को भेदकर गौ के समान जल का दोहन किया ॥१०॥ अनु स्वधामक्षरन्नापो अस्यावर्धत मध्य आ नाव्यानाम् । सध्रीचीनेन मनसा तमिन्द्र ओजिष्ठेन हन्मनाहन्नभि द्यून् ॥११॥ जल इन ब्रीहि यवादि रूप अन्न वृद्धि के लिए (मेघों से) बरसने लगे। उस समय नौकाओं के मार्ग पर (जलों में) वृत्र बढ़ता रहा । इन्द्रदेव ने अपने शक्ति-साधनों द्वारा एकाग्र मन से अल्प समयावधि में ही उस वृत्र को मार गिराया ॥११॥ न्याविध्यदिलीबिशस्य दृव्हा वि शृङ्गिणमभिनच्छुष्णमिन्द्रः । यावत्तरो मघवन्यावदोजो वज्रेण शत्रुमवधीः पृतन्युम् ॥१२॥ इन्द्रदेव ने गुफा में सोये हुए वृत्र के किलों को ध्वस्त करके उस सींगवाले शोषक वृत्र को क्षत-विक्षत कर दिया। हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! आपने सम्पूर्ण वेग और बल से शत्रु सेना का विनाश किया ॥१२॥ अभि सिध्मो अजिगादस्य शत्रून्वि तिग्मेन वृषभेणा पुरोऽभेत् । सं वज्रेणासृजवृत्रमिन्द्रः प्र स्वां मतिमतिरच्छाशदानः ॥१३॥ इन्द्रदेव का तीक्ष्ण और शक्तिशाली वज्र शत्रुओं को लक्ष्य बनाकर उनके किलों को ध्वस्त करता है। शत्रुओं को वज्र से मारकर इन्द्रदेव स्वयं अतीव उत्साहित हुए ॥१३॥ आवः कुत्समिन्द्र यस्मिञ्चाकन्प्रावो युध्यन्तं वृषभं दशद्युम् । शफच्युतो रेणुर्नक्षत द्यामुच्यैत्रेयो नृषाह्याय तस्थौ ॥१४॥ हे इन्द्रदेव ! 'कुत्स ऋषि के प्रति स्नेह होने से आपने उनकी रक्षा की और अपने शत्रुओं के साथ युद्ध करने वाले श्रेष्ठ गुणवान् 'दशद्यु' अर्घष की भी आपने रक्षा की। उस समय अश्वों के खुरों से धूल आकाश तक फैल गई, तब शत्रुभय से जल में छिपने वाले 'श्वेत्रेय' नामक पुरुष की रक्षाकर आपने उसे जल से बाहर निकाला ॥१४॥ आवः शमं वृषभं तुग्यासु क्षेत्रजेषे मघवञ्चित्र्यं गाम् । ज्योक्चिदत्र तस्थिवांसो अक्रञ्छत्रूयतामधरा वेदनाकः ॥१५॥ - हे धनवान् इन्द्रदेव ! क्षेत्र प्राप्ति की इच्छा से सशक्त जल – प्रवाहों में घिरने वाले 'श्वित्र्य' (व्यक्तिविशेष) की आपने रक्षा की। वहाँ जलों में ठहरकर अधिक समय तक आप शत्रुओं से युद्ध करते रहे । उन शत्रुओं को जलों के नीचे गिराकर आपने मार्मिक पीड़ा पहुँचायी ॥१५॥

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