ऋग्वेद पंचम मण्डलं सूक्त ७७

ऋग्वेद-पंचम मंडल सूक्त ७७ ऋषिः भौमोऽत्रिः देवता - आश्विनौ । छंद - त्रिष्टुप प्रातर्यावाणा प्रथमा यजध्वं पुरा गृध्रादररुषः पिबातः । प्रातर्हि यज्ञमश्विना दधाते प्र शंसन्ति कवयः पूर्वभाजः ॥१॥ हे ऋत्विजो ! प्रातः काल में सब देवों से पहले आने वाले अश्विनीकुमारों का आप पूजन करें। वे अदानशील और लोभी (राक्षसों) से पूर्व ही आकर सोमपान करते हैं। वे प्रातः यज्ञ को सम्यक् रूप से धारण करते हैं। पूर्वकालीन ऋषिगण उनकी प्रशंसा करते हैं ॥१॥ प्रातर्यजध्वमश्विना हिनोत न सायमस्ति देवया अजुष्टम् । उतान्यो अस्मद्यजते वि चावः पूर्वः पूर्वी यजमानो वनीयान् ॥२॥ है ऋत्विजो ! अश्विनीकुमारों के लिए प्रातः काल यजन करें। उन्हें हव्यादि प्रदान करें । सायंकालीन प्रदत्त हव्य देवों को सेवनीय नहीं होता। वह देवों के पास गमन करने वाला नहीं होता हुमसे अन्य जो कोई पूर्व में यजन करता है, वह सब देवों को तृप्त करता है। हमसे पहले जो यजन करने वाला होता है, वह देवों के लिए विशिष्ट प्रीतिकारक होता है ॥२॥ हिरण्यत्वङ्गधुवर्णो घृतस्सुः पृक्षो वहन्ना रथो वर्तते वाम् । मनोजवा अश्विना वातरंहा येनातियाथो दुरितानि विश्वा ॥३॥ हे अश्विनीकुमारो ! आप दोनों का स्वर्ण से आच्छादित, मनोहरवर्ण, जलवर्षक, अन्नधारक, मन के तुल्य वेगवान्, वायु के सदृश गमनशील रथ हमारी ओर आगमन करता है। आप उस रथ द्वारा सम्पूर्ण बाधाओं का अतिक्रमण करते हुए आगमन करें ॥३॥ यो भूयिष्ठं नासत्याभ्यां विवेष चनिष्ठं पित्वो ररते विभागे । स तोकमस्य पीपरच्छमीभिरनूर्ध्वभासः सदमित्तुतुर्यात् ॥४॥ ज़ों यजमान यज्ञ में हविर्विभाग करने के समय अश्विनीकुमारों को विपुल हव्यादि प्रदान करता है; वह अपने पुत्रों का शुभ कर्मों से पालन करता है। जो यज्ञादि कर्मों के निमित्त अग्नि उद्दीप्त नहीं करता; वह सर्बदा हिसित होता है ॥४॥ समश्विनोरवसा नूतनेन मयोभुवा सुप्रणीती गमेम । आ नो रयिं वहतमोत वीराना विश्वान्यमृता सौभगानि ॥५॥ हम सब अश्विनीकुमारों के नूतन संरक्षण सामथ्र्यो, सुखदायक अनुग्रहों और उत्तम नेतृत्व से संयुक्त हों । हे अविनाशी अश्विनीकुमारो ! हमारे निमित्त आप सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण सौभाग्य और वीर पुत्रों को प्रदान करें ॥५॥

Recommendations