ऋग्वेद चतुर्थ मण्डलं सूक्त ११

ऋग्वेद–चतुर्थ मंडल सूक्त ११ ऋषि - वामदेवो गौतमः देवता - अग्नि । छंद - त्रिष्टुप, भद्रं ते अग्ने सहसिन्ननीकमुपाक आ रोचते सूर्यस्य । रुशदृशे ददृशे नक्तया चिदरूक्षितं दृश आ रूपे अन्नम् ॥१॥ हे बलशाली अग्निदेव ! आपका हितकारी तेजस दिन में भी चारों तरफ आलोकित होता है तथा सुन्दर और देखने योग्य तेजस् रात्रि में भी दिखाई देता है। आप सौंदर्यवान् हैं। स्निग्ध आज्य (घृत) हव्य के रूप में आपको समर्पित किया जाता है ॥१॥ वि षाह्यग्ने गृणते मनीषां खं वेपसा तुविजात स्तवानः । विश्वभिर्यद्वावनः शुक्र देवैस्तन्नो रास्व सुमहो भूरि मन्म ॥२॥ विभिन्न रूपों में प्रकट होने वाले है अग्निदेव! यज्ञादि कर्मों के साथ प्रार्थना करने वालों से आप प्रशंसित होकर उनके लिए स्वर्गलोक के द्वार (उन्नति का मार्ग) खोल देते हैं। श्रेष्ठतम तेज से सम्पन्न हे अग्निदेव ! समस्त देवताओं तथा याजकों को जो महान् ऐश्वर्य प्रदान करते हैं, वही हमको भी प्रदान करें ॥२॥ त्वदग्ने काव्या त्वन्मनीषास्त्वदुक्था जायन्ते राध्यानि । त्वदेति द्रविणं वीरपेशा इत्थाधिये दाशुषे मर्त्याय ॥३॥ हे अग्ने ! उत्कृष्ट चिन्तन करने वाली बुद्धि (प्रज्ञा) तथा आराधनीय स्तोत्र आपके द्वारा उत्पन्न किये गये हैं। शुभ कर्म करने वाले तथा दान देने वाले मनुष्य के निमित्त पुष्टिकारक ऐश्वर्य भी आपके द्वारा प्रकट किये गये हैं ॥३॥ त्वद्वाजी वाजम्भरो विहाया अभिष्टिकृज्जायते सत्यशुष्मः । त्वद्रयिर्देवजूतो मयोभुस्त्वदाशुर्जूजुवाँ अग्ने अर्वा ॥४॥ हे अग्ने ! बलशाली, अन्न से सम्पन्न, श्रेष्ठ यज्ञ कर्म तथा सत्यबल से सम्पन्न (पुरुष या पुत्र) आपके द्वारा ही पैदा होते हैं। देवताओं के द्वारा प्रेरित हर्षप्रदायक ऐश्वर्य तथा द्रुतगामी (अश्व) भी आपके द्वारा ही उत्पन्न होते हैं ॥४॥ त्वामग्ने प्रथमं देवयन्तो देवं मर्ता अमृत मन्द्रजिह्वम् । द्वेषोयुतमा विवासन्ति धीभिर्दमूनसं गृहपतिममूरम् ॥५॥ हे अविनाशी अग्ने ! आप देवताओं में सर्वश्रेष्ठ, महान् गुणसम्पन्न, हर्षप्रदायक जिह्वा वाले, असुरों के संहारक, दुष्टों के विनाशक, गृहपति तथा ज्ञानी हैं। देवाभिलाषी याजकगण विवेक द्वारा आपकी परिचर्या करते हैं ॥५॥ आरे अस्मदमतिमारे अंह आरे विश्वां दुर्मतिं यन्निपासि । दोषा शिवः सहसः सूनो अग्ने यं देव आ चित्सचसे स्वस्ति ॥६॥ बल से उत्पन्न होने वाले हे अग्निदेव ! आप रात्रि के समय कल्याणकारी तथा तेजस्वी होकर हमारे हित के लिए हमारी सुरक्षा करते हैं। जिस प्रकार आप याजकों का पोषण करते हैं, उसी प्रकार हमारे अविवेक को दूर करें। हमारे समीप से पाप तथा दुर्बुद्धि को भी दूर करें ॥६॥

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