Tripadvibhutipaha Narayana Upanishad Chapter 6 (त्रिपाद्विभूतिपहानारायणोपनिषत) छठा अध्याय

॥ श्री हरि ॥ ॥ त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोपनिषत् ॥ ॥ षष्ठोध्यायः ॥ ॥ छठा अध्याय ॥ यत उपासकः परमानन्दं प्राप सावरणं ब्रह्माण्डं च भित्त्वा परितः समवलोक्य ब्रह्माण्डस्वरूपं निरीक्ष्य परमार्थतस्तत्स्वरूपं ब्रह्मज्ञानेनावबुध्य समस्तवेदशास्त्रेतिहासपुराणानि समस्तविद्याजालानि ब्रह्मादयः सुराः सर्वे समस्ताः परमर्षयश्चाण्डाभ्यन्तरप्रपञ्चैकदेशमेव वर्णयन्ति । अण्डस्वरूपं न जानन्ति । ब्रह्माण्डाद्बहिः प्रपञ्चज्ञानं न जानत्येव । कुतोऽण्डान्तरान्तरर्बहिः प्रपञ्चज्ञानं दूरतो मोक्षप्रपञ्चज्ञानमविद्या 'तब परमानन्द की प्राप्ति होने पर उपासक आवरण सहित ब्रह्माण्ड का भेदन करके, चारों ओर देखकर ब्रह्माण्ड के स्वरूप का निरीक्षण करता है तथा परमार्थतः उसके स्वरूप को ब्रह्मज्ञान के द्वारा जानकर समझ जाता है कि समस्त वेद, शास्त्र, इतिहास, पुराण, समस्त विद्यासमूह, ब्रह्मादि सब देवता और सभी परमर्षि भी ब्रह्माण्ड के भीतर स्थित प्रपञ्च के एक देश, एक अंग का ही वर्णन करते हैं। वह सभी ब्रह्माण्ड के स्वरूप को नहीं जानते। ब्रह्माण्ड से बाहर स्थित प्रपंच के रहस्यको तो जानते ही नहीं। फिर ब्रह्माण्ड के भीतर एवं बाहर के प्रपंच ज्ञान से दूर मोक्षप्रपञ्च (स्वरूप)-ज्ञान तथा अविद्या- प्रपंच ज्ञान को तो जान ही कैसे सकते हैं॥१॥ चेति कथं ब्रह्माण्डस्वरूपमिति । ब्रह्माण्डका स्वरूप कैसा है?' ॥ २॥ कुक्कुटाण्डाकारं महदादिसमष्ट्याकारणमण्डं तपनीयमयं तप्तजाम्बूनदप्रभमुद्यत्कोटिदिवाकराभं चतुर्विधसृष्ट्युपलक्षितं महाभूतैः पञ्चभिरावृतं महदहङ्‌कृतितमोभिश्च मूलप्रकृत्या परिवेष्टितम् । वह मुर्गे के अण्डे के समान आकार का महत्तत्त्वादि समष्टिमय ब्रह्माण्ड तेजोमय, तपे हुए स्वर्ण के समान प्रभावाला, उदय होते हुए करोड़ों सूर्यों के समान कान्तिवाला, चारों प्रकार की उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज, जरायुज सृष्टि से उपलक्षित पाँचों-पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाशरूप महाभूतों से ढका हुआ, तथा महत्तत्त्व, अहंकार, तम और मूलप्रकृति से घिरा हुआ है ॥३॥ अण्डभीतिविशालं सपादकोटियोजनप्रमाणम् । एकैकावरणं तथैव । अण्ड की भित्ति सवा करोड़ योजन विशाल है। प्रत्येक आवरण उसी प्रमाण का अर्थात उतना ही विशाल है' ॥४॥ अण्डप्रमाणं परितोऽयुतद्वयकोटियोजनप्रमाणं महामण्डूकाद्यनन्तशक्तिभिरधिष्ठितं नारायणक्रीडाकन्तुकं परमाणुवद्विष्णुलोकसुसंलग्नमदृष्टश्रुतविविधविचित्रानन्तविशेषैरुपल क्षितम् । चारों ओर से ब्रह्माण्ड का प्रमाण दो खरब योजन है। महामण्डूक आदि अनन्त शक्तियों से वह अधिष्ठित (धारण किया हुआ) है। श्रीनारायण के खेलने की गेंद के समान वह है। परमाणु के समान विष्णुलोक से चिपका है। किसी के द्वारा न देखी, न सुनी अनेक प्रकार की अनन्त विचित्रताओं की विशेषता से युक्त है ॥५॥ अस्य ब्रह्माण्डस्य समन्ततः स्थितान्येतादृशान्यनन्तकोटिब्रह्माण्डानि सावरणानि ज्वलन्ति । इस ब्रह्माण्डके चारों ओर ऐसे ही दूसरे अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड अपने आवरणोंके साथ प्रकाशित होते हुए अवस्थित हैं' ॥६॥ चतुर्मुखपञ्चमुखषण्मुखसप्तमुख अष्टमुखादिसंख्याक्रमेण सहस्रावधिमुखान्तैर्नारायणांशै रजोगुणप्रधानैरेकैकसृष्टि- कर्तृभिरधिष्ठितानि विष्णुमहेश्वराख्यैर्नारायणांशैः सत्त्वतमोगुणप्रधानैरेकैकस्थितिसंहारकर्तृभिरधिष्ठितानि महाजलौघमत्स्यबुद्द्बुदानन्तसङ्घवद्धमन्ति । वह ब्रह्माण्ड चार मुखों के, पाँच मुखों के, छः मुखोंवाले, सात मुखोंके, आठ मुखोंके इस प्रकार संख्याक्रमसे सहस्र मुखोंतकके, श्रीनारायणके अंशरूप, रजोगुणप्रधान एक-एक सृष्टिकर्ता (ब्रह्मा)- द्वारा अधिष्ठित हैं। विष्णु, महेश्वर नामवाले, श्रीनारायण के अंशरूप, सत्त्व तथा तमोगुणप्रधान एक-एक स्थिति तथा संहारकर्ता से भी अधिष्ठित हैं। वह सभी ब्रह्माण्ड विशाल जलप्रवाह में मत्स्य तथा बुलबुलों के अनन्त समूहों की भाँति घूमते रहते हैं' ॥७॥ क्रीडासक्तजालककरतलामलकवृन्दवन्महाविष्णोः करतले विलसन्त्यनन्तकोटिब्रह्माण्डानि । क्रीड़ा में लगे बालक की हथेली में आँवलों के समूह की भाँति महाविष्णु की हथेली में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड शोभित हो रहे हैं ॥ ८॥ जलयन्त्रस्थघटमालिकाजालवन्महाविष्णोरेकैकरोमकूपान्तरेष्वनन्त कोटिब्रह्माण्डानि सावरणानि भ्रमन्ति । जलयन्त्र (रहट) में लगे घड़ों की माला के समूहकी भाँति महाविष्णु के एक-एक रोमकूप के छिद्रों में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड अपने आवरणों के साथ घूमते रहते हैं ॥९॥ समस्तब्रह्माण्डान्तर्बहिः प्रपञ्चरहस्यं ब्रह्मज्ञानेनावबुध्य विविधविचित्रानन्तपरमविभूतिसमष्टि- विशेषन्त्समवलोक्यात्याश्चर्यामृतसागरे निमज्ज्य निरतिशयानन्दपारावारो भूत्वा समस्तब्रह्माण्डजालानि समुल्लङ्घयामितापरिच्छिन्नानन्ततमः सागरमृत्तीर्य मूलाविद्यापुरं दृष्ट्वा विविधविचित्रानन्तमहामाया- विशेषैः परिवेष्टितामनन्तमहामायाशक्तिसमष्ट्याकारामनन्तदिव्य तेजोज्वालाजालैरलङ्‌कृतामनन्तमहामायाविलसानां परमाधिष्ठानविशेषाकारां शश्वदमितानन्दाचलोपरि विहारिणीं मूलप्रकृतिजननीमविद्यालक्ष्मीमेवं ध्यात्वा विविधोपचारैराराध्य समस्तब्रह्माण्डसमष्टिजननीं वैष्णवीं महामायां नमस्कृत्य तया चानुज्ञातश्चोपर्युपरि गत्वा महाविराट्पदं प्राप ॥ उपर्युक्त गति-प्राप्त उपासक समस्त ब्रह्माण्डों के भीतर एवं बाहर के प्रपंच के रहस्य को ब्रह्मज्ञान के द्वारा जानकर तथा नाना प्रकार की विचित्र अनन्त परमैश्वर्य की समष्टिरूप विशेष को भली प्रकार देखकर अत्यन्त आश्चर्यमय अमृत सागर में गोता लगाता है और निरतिशय आनन्दसमुद्ररूप होकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्डसमूहों को पार कर जाता है। इसी प्रकार अमित, अपरिच्छिन्न तमः सागर को पार करके, मूल अविद्यापुर को देखकर, विविध विचित्र अनन्त महामायाविशेषों से घिरी हुई, अनन्त महामायाशक्तियों की समष्टिरूपा, अनन्त दिव्य तेजोमय ज्वालामालाओं से सुशोभित, अनन्त महामायाविलासों की परम अधिष्ठानस्वरूपा, निरन्तर अमित आनन्द-पर्वत पर विहार करने वाली, मूल-प्रकृति को जननी अविद्यालक्ष्मी का इस प्रकार ध्यान करता है। फिर विविध उपचारों से उनकी आराधना करके, समस्त ब्रह्माण्ड समष्टि की जननी भगवान् विष्णु की महामाया को नमस्कार करके उनसे आज्ञा लेकर और ऊपर-से-ऊपर जाकर महाविराट् पद को पाता है' ॥ १० ॥ महाविराट्स्वरूपं कथमिति । समस्ताविद्यापादको विराट्। विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोहस्त उत विश्वतस्पात् । सम्बाहुभ्यां नमति सम्पतत्रैर्ध्यावापृथिवी जनयन्देव एकः । न सन्दृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् । हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो य एनं विदुरमृतास्ते भवन्ति । 'महाविराट्-स्वरूप कैसा है?' समस्त अविद्यापाद विराट् है। सब ओर आँखोंवाला, सब ओर मुखोंवाला, सब ओर हाथोंवाला तथा सब ओर पैरोंवाला है। हाथों के द्वारा हाथवालों को तथा पंखों के द्वारा उड़नेवालों को युक्त करता है। यह देवता अकेला ही स्वर्ग तथा पृथिवी को उत्पन्न करता है। इसका रूप दृष्टि में नहीं ठहरता। इसे कोई नेत्रों से नहीं देखता। हृदय से, बुद्धि से तथा मनसे इसका ध्यान किया जाता है। जो इसको जानते हैं, वे अमृतस्वरूप (मुक्त) हो जाते हैं' ॥ ११-१४॥ मनोवाचामगोचरमादिविराट्स्वरूपं ध्यात्वा विविधोपचारैराराध्य तदनुज्ञातश्चोपर्युपरि गत्वा विविधविचित्रानन्तमूलाविद्याविलासानवलोक्योपासकः परमकौतुकं प्राप । ऐसे मन तथा वाणी से अगोचर विराट्स्वरूप का ध्यान करके नाना प्रकारके उपचारों से उनकी आराधना करता है तथा उनकी आज्ञा लेकर और ऊपर जाकर विविध विचित्र अनन्त मूल-अविद्या के विलासों को देखकर उपासक परम आश्चर्यान्वित होता है' ॥ १५ ॥ तिरस्करिण्याकारा वैष्णवी महायोगमाया मूर्तिमद्भिरनन्त महामायाजालविशेषैः परिषेविता तस्याः पुरमतिकौतुक मत्याश्चर्यसागरानन्दलक्षणममृतं भवति । अविद्यासागरप्रतिबिम्बितनित्यवैकुण्ठप्रतिवैकुण्ठमिव विभाति । वहाँ अखण्ड परिपूर्ण परमानन्दस्वरूप परब्रह्म के समस्त स्वरूपों में विरोध प्रदर्शित करनेवाली, सभी प्रकार से विरुद्ध धर्मोंवाली, अपरिच्छिन्न परदे के आकारवाली, भगवान् विष्णु को महायोगमाया मूर्तिमान अनन्त महामायास्वरूपों से भली प्रकार सेवित हैं। उनका नगर अत्यन्त कौतुकों से पूर्ण, अत्यन्त आश्चर्यसागर, आनन्दस्वरूप, शाश्वत है। अविद्यासागर में प्रतिबिम्बित नित्य वैकुण्ठ के प्रतिबिम्बरूप दूसरे वैकुण्ठ की भाँति वह प्रकाशित है॥ १६॥ उपासकस्तत्पुरं प्राप्य योगलक्ष्मीमंगमायां ध्यात्वा विविधोपचारैराराध्य तया सम्पूजितश्चानुज्ञात- श्चोपर्युपरि गत्वानन्तमायाविलासानवलोक्योपासकः परमकौतुकं प्राप ॥ 'उस पुर में पहुँचकर, उपासक योगलक्ष्मी अंग माया को ध्यान करके अनेक प्रकार के उपचारों से उनकी आराधना करता है तथा उनके द्वारा पूजित होकर और उनकी आज्ञा प्राप्त करके और ऊपर जाता है। वहाँ माया के अनन्त विलासों को देखकर वह परम आश्चर्यमें डूब जाता है' ॥ १७ ॥ तत उपरि पादविभूतिवैकुण्ठपुरमाभाति । अत्याश्चर्यानन्तविभूतिसमष्ट्याकार मानन्दरसप्रवाहैरलङ्‌कृतमभितस्तरङ्गिण्याः प्रवाहैरतिमङ्गलं ब्रह्मतेजोविशेषाकारैरनन्त ब्रह्मवनैरभितस्ततमनन्तनित्यमुक्तैरभिव्याप्तमनन्त- चिन्मयप्रासादजालसंकुलमनादिपादविभूतिवैकुण्ठ मेवमाभाति । तन्मध्ये च चिदानन्दाचलो विभाति ॥ उससे ऊपर पादविभूति नामक वैकुण्ठ-नगर शोभित है। अत्यन्त आश्चर्यमय अनन्त ऐश्वर्य का समष्टिस्वरूप, आनन्दरस के प्रवाहों से भूषित, चारों ओर अमृत नदी के प्रवाह से अत्यन्त मङ्गलस्वरूप, ब्रह्मतेजो विशेष स्वरूप अनन्त ब्रह्मवनों से चारों ओर घिरा हुआ, अनन्त नित्य-मुक्तों से चारों ओर व्याप्त, अनन्त चिन्मय भवनसमूहों से भरा हुआ अनादि पादविभूति नामक वैकुण्ठ इस प्रकार सुशोभित है और उसके मध्य में चिदानन्दपर्वत शोभित है। उस पर्वत के ऊपर निरतिशय आनन्दस्वरूप दिव्य तेजोराशि प्रज्वलित है। उसके मध्य में परमानन्दरूप विमान प्रकाशित है। उसके भीतर मध्यस्थान में चिन्मय आसन विराजमान है। उस आसन रूप पद्म की कर्णिका पर निरतिशय दिव्य तेजोराशि के मध्य समासीन आदि-नारायण का ध्यान करके विविध उपचारों से उनकी आराधना करता है तथा उनसे पूजित होकर, उनकी आज्ञा लेकर और ऊपर जाता है। आवरणसहित अविद्या-अण्ड का भेदन करके, अविद्यापाद को पारकर विद्या-अविद्या की संधि (मध्यस्थान) में जो विष्वक्सेन-वैकुण्ठ नामक नगर शोभित है, साधक वहाँ पहुँचता है ॥ १८-१९ ॥ तदुपरि ज्वलति निरतिशयानन्ददिव्यतेजोराशिः । तदभ्यन्तरे परमानन्दविमानं विभाति । तदभ्यन्तरसंस्थाने चिन्मयासनं विराजते । तत्पद्मकर्णिकायां रतिशयदिव्यतेजोराश्यन्तरसमासीनमादिनारायणं ध्या यात्वा विविधोपचारैस्तं समाराध्य तेनाभिपूजितस्तदनुज्ञातश्चोपर्युपरिगत्वा सावरणमविद्याण्डं च भित्त्वा विद्यापादमुल्लङ्घय विद्याविद्ययोः सन्धौ विश्वक्सेनवैकुण्ठपुरमाभाति ॥ अनन्तदिव्यतेजोज्वालाजालैरभितोऽनीकं प्रज्वलन्तमनन्तबोधानन्तबोधानन्दव्यूहैरभितस्ततं शुद्धबोध- विमानावलिभिर्विराजितमनन्तानन्दपर्वतैः परमकौतुकमाभाति । तन्मध्ये च कल्याणाचलोपरि शुद्धानन्दविमानं विभाति । तदभ्यन्तरे दिव्यमङ्गलासनं विराजते । तत्पद्मकर्णिकायां ब्रह्मतेजोराश्यभ्यन्तरसमासीनं भगवदनन्तविभूतिविधिनिषेधपरिपालकं सर्वप्रवृत्तिसर्वहेतुनिमित्तिकं निरतिशयलक्षणमहाविष्णूस्वरूपमखिलापवर्गपरिपालकममितविक्र ममेवंविधं विश्वक्सेनं ध्यात्वा प्रदक्षिणनमस्कारान्विधाय विविधोपचारैराराध्य तदनुज्ञातश्चोपर्युपरि गत्वा विद्याविभूतिं प्राप्य विद्यामयानन्तवैकुण्ठान्परितोऽवस्थितान्ब्रह्मतेजोमया नवलोक्योपासकः परमानन्दं प्राप ॥ 'अनन्त दिव्य तेज की ज्वालामालाओं से चारों ओर निरन्तर प्रज्वलित, अनन्त ज्ञान एवं आनन्द के मूर्तिमान स्वरूपों द्वारा चारों ओर घिरा हुआ, शुद्ध ज्ञानरूप विमानावलियों से विराजित वह नगर अनन्त आनन्दरूप पर्वतों से परम कौतुकमय प्रतीत होता है। उस पुर के मध्य में कल्याणपर्वत के ऊपर शुद्ध आनन्दरूप विमान शोभित है। उसके भीतर दिव्य मङ्गलमय आसन विराजमान है। उस आसनरूप पद्म की कणिका पर ब्रह्म-तेजोराशि के मध्य में समासीन भगवान के अनन्त ऐश्वर्यस्वरूप, विधि-निषेध के परिपालक, समस्त प्रवृत्तियों एवं सम्पूर्ण कारणों के कारणस्वरूप, निरतिशय आनन्दलक्षण, महाविष्णुस्वरूप, समस्त मोक्षों के परिपालक, अमितपराक्रमी-इस प्रकार के श्रीविष्वक्सेनजी का ध्यान करके, प्रदक्षिणा तथा नमस्कार करता है। फिर विविध उपचारोंसे उनकी पूजा करके, उनकी आज्ञा लेकर, और ऊपर जाकर उपासक विद्याविभूति को प्राप्त करता है। तथा विद्यामय, चारों ओर स्थित ब्रह्मतेजोमय अनन्त वैकुण्ठों को देखकर परमानन्द प्राप्त करता है' ॥ २० ॥ विद्यामयाननन्तसमुद्रानतिक्रम्य ब्रह्मविद्यातरङ्गिणीमासाद्य तत्र स्नात्वा भगवद्ध्यानपूर्वकं पुनर्निमज्ज्य मन्त्रमयशरीरमुत्सृज्य विद्यानन्दमयामृतदिव्यशरीरं परिगृह्य नारायणसारूप्यं प्राप्यात्मपूजां विधाय ब्रह्ममयवैकुण्ठवासिभिः सर्वैर्नित्यमुक्तैः सुपूजितस्ततो ब्रह्मविद्याप्रवाहैरानन्द-रसनिर्भरैः क्रीडानन्तपर्वतैरनन्तैरभिव्याप्तं ब्रह्मविद्यामहैः सहस्रप्राकारैरानन्दामृतमयै र्दि दिव्यगन्धस्वभावैश्चिन्मयैरनन्तब्रह्मवनैरतिशोभित- मुपासकस्त्वेवंविधं ब्र रह्मविद्यावैकुण्ठमाविश्य तदभ्यन्तरस्थितात्यन्तोन्नतबोधानन्दप्रासादाग्रस्थित- प्रणवविमानोपरिस्थितामपारब्रह्मविद्यासाम्राज्याधिदेवता- ममोघनिजमन्दकटाक्षेणानादिमूलाविद्याप्रलयकरीमद्वितीया- मेकामनन्तमोक्षसाम्राज्यक्ष्मीमेवं ध्यात्वा प्रदक्षिणनमस्कारान्विधाय विविधोपचारैराराध्य पुष्पाञ्जलिं समर्प्य स्तुत्वा स्तोत्रविशेषैस्तयाभिपूजितस्तदनुगतश्चोपर्युपरि गत्वा ब्रह्मविद्यातीरे गत्वा बोधानन्दमयाननन्तवैकुण्ठानवलोक्य निरतिशयानन्दं प्राप्य बोधानन्दमयाननन्तसमुद्रानतिक्रम्य गत्वागत्वा ब्रह्मवनेषु परममङ्गलाचलश्रोणीषु ततो बोधानन्दविमानपरम्परासूपासकः परमानन्दं प्राप ॥ वहाँ से आगे विद्यामय अनन्त समुद्रों को पार करके ब्रह्मविद्या नदी को पाकर, उसके पार पहुँचकर, वहाँ स्नान करके, भगवान का ध्यान करते हुए उपासक पुनः गोता लगाता है और मन्त्रमय शरीर को छोड़कर, विद्यानन्दमय अमृत दिव्य शरीर ग्रहण करता है। इस प्रकार नारायण की सरूपता (उनके जैसा विग्रह) प्राप्त करके, आत्मा की पूजा करता है, फिर नित्यमुक्त सभी वैकुण्ठवासियों द्वारा भलीभाँति पूजित होकर, आनन्द-रस से भरपूर ब्रह्मविद्या-प्रवाहों से, अनन्त क्रीडानन्द नामक पर्वतों से चारों ओर व्याप्त, ब्रह्मविद्यामय सहस्रों प्राचीरों से तथा आनन्दामृत से पूर्ण स्वाभाविक दिव्य गन्ध से युक्त चिन्मय अनन्त ब्रह्मवनों से अत्यन्त शोभित-इस प्रकार के ब्रह्मविद्या-वैकुण्ठ में उपासक प्रवेश करता है। उसके भीतर अवस्थित अत्यन्त उन्नत बोधानन्दमय भवन के अग्र भाग में स्थित प्रणवरूप विमान के ऊपर विराजमान अपार ब्रह्मविद्या-साम्राज्य की अधिष्ठातृ देवी, अपने अमोघ मन्दकटाक्ष से अनादि मूल-अविद्या को नष्ट कर देनेवाली, एकमात्र अद्वितीया, अनन्त मोक्ष साम्राज्यलक्ष्मी का इस प्रकार ध्यान करके, प्रदक्षिणा तथा नमस्कार करके अनेक प्रकार के उपचारों से उनकी आराधना करता है। फिर पुष्पाञ्जलि समर्पित करके, विशिष्ट स्तोत्रों से उनकी स्तुति करके, उनके द्वारा भलीभाँति पूजित होकर, उनकी आज्ञा लेकर उन्हीं के साथ और ऊपर जाता है। वहाँ ब्रह्मविद्या के तटपर पहुँचकर, ज्ञान एवं आनन्दमय अनन्त वैकुण्ठों को देखकर, निरतिशय आनन्द प्राप्त करता है तथा ज्ञानानन्दमय अनन्त समुद्रों को पार करके, ब्रह्मवनों में तथा परम मङ्गलमय पर्वत-शिखरपर बराबर चलते हुए, ज्ञानानन्दरूप विमानों की क्रमबद्ध पंक्तियों में पहुँचकर उपासक परमानन्द लाभ करता है' ॥ २१॥ ततः श्रीतुलसीवैकुण्ठपुरमाभाति परमकल्याणमनन्तविभवममिततेजोराश्याकारमनन्तब्रह्मतेजोराशि- समष्ट्याकारं चिदानन्दमयानेकप्राकारविशेषैः परिवेष्टितममितबोधानन्दाचलोपरिस्थितं बोधानन्दतरङ्गिण्याः प्रवाहैरतिमङ्गलं निरतिशयानन्दैरनन्तवृन्दावनैरतिशोभितमखिलपवित्राणां परमपवित्रं चिद्रूपैरनन्तनित्यमुक्तैरभिव्याप्तमानन्दमयानन्त विमानजलैरलङ्‌कृतममिततेजोराश्यन्तर्गतदिव्यतेजोराशिविशेष उसके बाद तुलसी नाम का वैकुण्ठ-नगर प्रकाशित है। वह परम कल्याणरूप, अनन्त ऐश्वर्ययुक्त, अमित तेजोराशिस्वरूप, अनन्त ब्रह्मतेजो राशि को समष्टिस्वरूप, चिदानन्दमय अनेक प्राकार- विशेषों (चहारदीवारियों) से घिरा हुआ, अमितबोधमय आनन्दपर्वत के ऊपर स्थित, बोधानन्द-नदी के प्रवाह से अत्यन्त मङ्गलमय, निरतिशयानन्दस्वरूप अनन्त तुलसी-वनों से अत्यन्त शोभित, सम्पूर्ण पवित्रों में परम पवित्र, चित्स्वरूप, अनन्त, नित्यमुक्त पुरुषों से अत्यधिक संकुल तथा आनन्दमय, अनन्त विमान-समूहों से सुशोभित, अमित तेजोराशि के अन्तर्गत दिव्य तेजः स्वरूप है॥ २२ ॥ उपासकस्त्वेवमाकारं तुलसीवैकुण्ठं प्रविश्य तदन्तर्गतदिव्यविमानोपरिस्थितां सर्वपरिपूर्णस्य महाविष्णोः सर्वाङ्गेषु विहारिणीं निरतिशयसौन्दर्यलावण्याधिदेवतां बोधानन्दमयैरनन्तनित्यपरिजनैः परिषेवितां श्रीसखीं तुलसीमेवं लक्ष्मीं ध्यात्वा प्रदक्षिणनमस्कारान्विधाय विविधोपचारैराराध्य स्तुत्वा स्तोत्रविशेषैस्तयाभिपूजित- स्तदनुज्ञातश्चोपर्युपरिगत्वा परमानन्दतरङ्गिण्यास्तीरे गत्वा तत्र परितोऽवस्थिताञ्छुद्धबोधानन्दमयाननन्त- वैकुण्ठानवलोक्य निरतिशयानन्दं प्राप्य तत्रैत्यैश्चिद्रूपैः पुराणपुरुषैश्चाभिपूजितस्ततो गत्वागत्वा ब्रह्मवनेषु दिव्यगन्धानन्दपुष्पवृष्टिभिः समन्वितेषु दिव्य मङ्गलालयेषु निरतिशयानन्दामृतसागरेष्वमिततेजो- राश्याकारेषु कल्लोलवनसंकुलेषु ततोऽनन्तशुद्धबोध विमानजालसंकुलानन्दाचलश्रोणीषूपासकस्तत उपर्युपरि गत्वा विमानपरम्परास्वनन्ततेजः पर्वतराजिष्वेवं क्रमेण प्राप्य विद्यानन्दमयोः सन्धिं तत्रानदतरङ्गिण्याः प्रवाहेषु स्नात्वा बोधानन्दवनं प्राप्य शुद्धबोधपरमानन्दानन्दाकारवनं सन्ततामृतपुष्पवृष्टिभिः परिवेष्टितं परमानन्दप्रवाहैरभिव्याप्तं मूर्तिमद्भिः परममङ्गलैः परमकौतुकमपरिच्छिन्नानन्द सागराकारं क्रीडानन्दपर्वतैरभिशोभितं तन्मध्ये च शुद्धबोधानन्दवैकुण्ठं यदेव ब्रह्मविद्यापादवैकुण्ठं सहस्रानन्दप्राकारैः समुज्ज्वलति । अनन्तानन्दविमानजालसंकुलमनन्तबोधसौध- विशेषैरभितोऽनिशं प्रज्वलन्तं क्रीडानन्तमण्डप विशेषैर्विशेषितं बोधानन्दमयानन्तपरमच्छत्रध्वजचामरवितानतोरणैरलङ्‌कृतं परमानन्दव्यूहैर्नित्यमुक्तैरभितस्ततमनन्तदिव्यतेजःपर्वत- समष्ट्याकारमपरिच्छिन्नानन्तशुद्धबोधानन्तमण्डलं वाचामगोचरानन्दब्रह्मतेजोराशिमण्डलमाखण्डलविशेषं शुद्धानन्दसमष्टिमण्डलविशेषमखण्डचिद्घनानन्द विशेषमेवं तेजोमण्डलविधं बोधानन्दवैकुण्ठ उपासक ऐसे आकारवाले तुलसी-वैकुण्ठ में प्रवेश करके, उसके भीतर दिव्य विमान के ऊपर विराजमान, सर्वपरिपूर्ण महाविष्णु के सर्वाङ्गों में विहार करनेवाली, निरतिशय सौन्दर्य लावण्य की अधिष्ठात्री देवी, बोधानन्दमय अनन्त नित्य परिजनों से परिसेविता, महालक्ष्मी की सखी श्रीतुलसी लक्ष्मी का इस प्रकार ध्यानकर, उनकी प्रदक्षिणा तथा उन्हें नमस्कार करता है तथा अनेक प्रकार के उपचारों से उनकी पूजा करके, स्तोत्रविशेष से स्तुति करता है। फिर उनके द्वारा भली प्रकार पूजित होकर तथा वहाँ के निवासियों द्वारा भलीभाँति पूजित होकर, उनकी आज्ञा पाकर और ऊपर जाकर परमानन्द नदी के किनारे पहुँचता है। वहाँ चारों ओर स्थित शुद्ध ज्ञानानन्दमय अनन्त वैकुण्ठों को देखकर, निरतिशय आनन्द प्राप्त करता है तथा वहीं के निवासी चिद्रूप (ज्ञानस्वरूप) पुराणपुरुषों द्वारा भली प्रकार पूजित होता है। आगे दिव्य गन्ध एवं आनन्दमय पुष्पवृष्टि समन्वित दिव्य मङ्गल-भवन ब्रह्मवनों में, अमित तेजोराशि स्वरूप एवं तरंग मालाओंसे परिपूर्ण निरतिशय आनन्दरूप अमृत के सागरों में, फिर अनन्त शुद्ध ज्ञानस्वरूप विमान-समुदायों से भरे आनन्दगिरि के शिखर समूहों में बराबर चलते हुए उपासक वहाँ से भी ऊपर-ऊपर विमान पंक्तियों तथा अनन्त तेजोमय पर्वतपङ्गियों में चलकर, इस क्रम से विद्यापाद तथा आनन्दपाद की संधि (मध्यस्थान) में पहुँचता है। वहाँ आनन्दनदी के प्रवाह में स्नान करके, बोधानन्द-वन में पहुँचकर देखता है कि वहाँ अमृतमय पुष्पों की निरन्तर वर्षा से युक्त शुद्धबोधमय परमानन्द-स्वरूप वन है। परमानन्दरूप प्रवाहों से वह वन चारों ओर व्याप्त है। मूर्तिमान् परम मङ्गलों से परमाश्चर्यस्वरूप हो रहा है। वह अपार आनन्दसिन्धुरूप है। क्रीडानन्द नामक पर्वतों द्वारा सब ओर शोभित है। उसके बीच में शुद्ध बोधानन्दमय वैकुण्ठ है। यही ब्रह्मविद्यापाद का वैकुण्ठ है, जो सहस्रों आनन्द-प्राचीरों से प्रज्वलित (भलीभाँति प्रकाशमान) है। वह अनन्त आनन्दरूपः विमानसमूहों से भरा हुआ, अनन्त बोधमयविशेष भवनों से चारों ओर निरन्तर जगमगाता हुआ अनन्त क्रीडा-मण्डंपों से युक्त, बोध-आनन्दमय, अनन्त श्रेष्ठ छत्र, ध्वजाएँ, सँवर, वितान (बंधन वार) तथा द्वारों से अलंकृत, परमानन्द-व्यूहरूप (घनीभूत परमानन्दविग्रह) नित्य-मुक्तों द्वारा चारों ओरसे व्याप्त, अनन्त दिव्यतेजोमय पर्वतों का समष्टिरूप, अपरिच्छिन्न अनन्त शुद्धबोधमय आनन्द का मण्डल, वाणी से अगोचर (अवर्थ्य), आनन्दमय ब्रह्मतेजोराशि-मण्डल, अखण्ड तेजोमण्डलरूप, शुद्धानन्दस्वरूप का समष्टि-मण्डलरूप, अखण्ड चिङ्घनानन्द-स्वरूप है' ॥२३॥ उपासकः प्रविश्य तत्रत्यैः सर्वैरभिपूजितः परमानन्दाचलोपर्यखण्ड- बोधविमानं प्रज्वलति। तदभ्यन्तरे चिन्मयासनं विराजते । तदुपरि विभात्यखण्डानन्दतेजोमण्डलम् । तदभ्यन्तरे समासीन- मादिनारायणं ध्यात्वा प्रदक्षिणनमस्कारान्विधाय विविधोपचारैः सुसम्पूज्य पुष्पाञ्जलिं समर्प्य स्तुत्वा स्तोत्रविशेषैः स्वरूपेणावस्थितमुपासकमवलोक्य तमुपासक- मादिनारायणः स्वसिंहासने सुसंस्थाप्य तद्वैकुण्ठवासिभिः सर्वैः समन्वितः समस्तमोक्षसाम्राज्यपट्टाभिषेकमुद्दिश्य मन्त्रपूतैरपासकमानन्दकलशैरभिषिच्य दिव्यमङ्गल- महावाद्यपुरःसरं विविधोपचारैरभ्यर्च्य मूर्तिमद्भिः सर्वैः स्वचिद्वैरलङ्‌कृत्य प्रदक्षिणनमस्कारान्विधाय त्वं ब्रह्मासि अहं ब्रह्मास्मि आवयोरन्तरं न विद्यते त्वमेवाहं अहमेवत्वं इत्यभिधायेत्युक्त्वादिनारायणस्तिरोदधे तदेत्युपनिषत् ॥ उपासक इस प्रकारके बोधानन्दमय वैकुण्ठ में प्रवेश करके, वहाँ के सभी निवासियों द्वारा भलीभाँति पूजित होता है। परमानन्द पर्वतपर अखण्ड बोधरूप विमान प्रकाशमय रूप में स्थित है। उसके भीतर चिन्मय आसन विराजमान है। उस आसन के ऊपर अखण्ड आनन्दमय तेजोमण्डल सुशोभित है। उसके मध्य में समासीन आदिनारायण का ध्यान करके, प्रदक्षिणा एवं नमस्कार करके, उपासक विविध प्रकार के उपचारों से उनकी भली प्रकार पूजा करता है तथा पुष्पाञ्जलि निवेदित करके, स्तोत्र-विशेष से स्तुति करता है। अपने नारायण स्वरूप से अवस्थित उपासक को देखकर, उस उपासक को आदिनारायण अपने सिंहासन पर भली प्रकार बैठाकर, उस वैकुण्ठ के सभी निवासियों के साथ समस्त मोक्ष- साम्राज्य के पट्टाभिषेक (राजतिलक) के उद्देश्यसे उसे मन्त्रों द्वारा पवित्र किये हुए आनन्दस्वरूप कलशों के जल द्वारा स्नान कराते हैं तथा दिव्य मङ्गलस्वरूप महावाद्यों के घोष के साथ नाना प्रकार के उपचारोंसे उसकी भली प्रकार अर्चा करते हैं। फिर अपने सभी मूर्तिमान् अलंकारों से अलंकृत करके, उसकी प्रदक्षिणा तथा उसको नमस्कार करते हैं और 'तुम ब्रह्म हो। मैं ब्रह्म हूँ। हम दोनों में अन्तर नहीं है। तुम्हीं 'मैं', मेरे स्वरूप हो। मैं ही तुम, तुम्हारा स्वरूप हूँ।' ऐसा उच्चारणकर (दीक्षा देकर), ऐसा कहकर, उसका तत्त्व प्रत्यक्ष कराकर, उस समय आदिनारायण अन्तर्हित हो जाते हैं ॥ २४-२५ ॥ ॥ इति षष्ठोध्यायः ॥ ॥ छठा अध्याय समाप्त ॥

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