ऋग्वेद तृतीय मण्डलं सूक्त ११

ऋग्वेद - तृतीय मंडल सूक्त ११ ऋषि - गाथिनो विश्वामित्रः । देवता - अग्निः । छंद - गायत्री अग्निर्होता पुरोहितोऽध्वरस्य विचर्षणिः । स वेद यज्ञमानुषक् ॥१॥ वे अग्निदेव सब यज्ञादि कर्मों के होता, पुरोहित तथा यज्ञ के विशेष द्रष्टा हैं। वे अनवरत चलने वाले यज्ञादि कर्मों के ज्ञाता हैं॥१॥ स हव्यवाळमर्त्य उशिग्दूतश्चनोहितः । अग्निर्धिया समृण्वति ॥२॥ हव्यवाहक, अविनाशी, हव्यादि की कामना वाले, देवों के दूत रूप, अन्नों से सबका हित करने वाले वे अग्निदेव विचार शक्ति (मेधा) से सम्पन्न हैं ॥२॥ अग्निर्धिया स चेतति केतुर्यज्ञस्य पूर्व्यः । अर्थ ह्यस्य तरणि ॥३॥ यज्ञ के केतु रूप, निदेशक, पुरातन वे अग्निदेव अपनी बुद्धि से सबकुछ जानने वाले हैं। इनके द्वारा दिया गया धन ही तारने वाला होता है॥३॥ अग्निं सूनुं सनश्रुतं सहसो जातवेदसम् । वह्नि देवा अकृण्वत ॥४॥ बल के पुत्र रूप, सनातन काल से प्रसिद्ध जातवेदा अग्नि को देवों ने हविवाहक बनाया हैं॥४॥ अदाभ्यः पुरएता विशामग्निर्मानुषीणाम् । तूर्णी रथः सदा नवः ॥५॥ मानवों के मार्गदर्शक होने से अग्रणी, तत्काल क्रियाशील, रथ के समान गतिशील, चिरयुवा ये अग्निदेव सर्वथा अदम्य हैं॥५॥ साह्वान्विश्वा अभियुजः क्रतुर्देवानाममृक्तः । अग्निस्तुविश्रवस्तमः ॥६॥ आक्रामक, शत्रु सेनाओं को परास्त करने वाले, दिव्य गुणों के संवर्धक हे अग्निदेव ! आध प्रचुर अन्न (पोषण) प्रदान करने वाले हैं॥६॥ अभि प्रयांसि वाहसा दाश्वाँ अश्नोति मर्त्यः । क्षयं पावकशोचिषः ॥७॥ हविदाता मनुष्य हविवाहक अग्निदेव से, सब प्रकार के अन्नों (पोषण) तथा पावन प्रकाश से युक्त उत्तम आवास की प्राप्ति करते हैं॥७॥ परि विश्वानि सुधिताग्नेरश्याम मन्मभिः । विप्रासो जातवेदसः ॥८॥ सर्वभूतज्ञाता (सर्वज्ञ) और मेधावी अग्निदेव से हम उत्तम स्तोत्रों द्वारा सम्पूर्ण वाञ्छित ऐश्वर्य सब ओर से प्राप्त करें ॥८॥ अग्ने विश्वानि वार्या वाजेषु सनिषामहे । त्वे देवास एरिरे ॥९॥ हे अग्निदेव ! देवों ने आपसे प्रेरणा प्राप्त की, हम भी आपसे प्रेरित होकर वरणीय धन सम्पदा प्राप्त करें ॥९॥

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