ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ८९

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ८९ ऋषि – गौतमो राहुगणः: देवता- विश्वेदेवा । छंद जगती, ६ विराट स्थाना, ८-१० त्रिष्टुप आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः । देवा नो यथा सदमिवृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे ॥१॥ कल्याणकारी, किसी के दबाव में न आने वाले, अपराजित, समुन्नतिकारक शुभ कर्मों को हम सभी ओर से प्राप्त करे । प्रतिदिन सुरक्षा करने वाले सम्पूर्ण देवगण हमारा सम्वर्द्धन करते हुए हमारी रक्षा करने में उद्यत हों ॥१॥ देवानां भद्रा सुमतिऋजूयतां देवानां रातिरभि नो नि वर्तताम् । देवानां सख्यमुप सेदिमा वयं देवा न आयुः प्र तिरन्तु जीवसे ॥२॥ सन्मार्ग की प्रेरणा देने वाले देवों की कल्याणकारी सुबुद्धि तथा उनका उदार अनुदान हमें प्राप्त होता रहे। हम देवों की मित्रता प्राप्त कर उनके समीपस्थ हों। वे हमारे जीवन को दीर्घ आयु से युक्त करें ॥२॥ तान्पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम् । अर्यमणं वरुणं सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत् ॥३॥ हम उन देवगणों भग, मित्र, अदिति, दक्ष, मरुद्गण, अर्यमा, वरुण, सोम, अश्विनीकुमार और सौभाग्यशालिनी सरस्वती की प्राचीन स्तुतियाँ करते हैं। वे हमें सुख देने वाले हों ॥३॥ तन्नो वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः । तद्भावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम् ॥४॥ वायुदेव हमें सुखप्रद ओषधियाँ प्रदान करें। माता पृथिवी, आकाश पिता और सोम निष्पादित करने वाले पाषाण, हमें वह औषधि दें । तीक्ष्ण बुद्धि सम्पन्न हे अश्विनीकुमारो! आप हमारी प्रार्थना सुनें ॥४॥ तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियंजिन्वमवसे हूमहे वयम् । पूषा नो यथा वेदसामसदृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये ॥५॥ स्थावर जंगम जगत् के पालक, बुद्धि को प्रेरणा देने वाले विश्वेदेवों को हम अपनी सुरक्षा के लिये बुलाते हैं। वह अविचलित पूषादेव हमारे ऐश्वर्य की वृद्धि और सुरक्षा में सहायक हों। वे हमारा कल्याण करें ॥५॥ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्थ्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥६॥ अति यशस्वी इन्द्रदेव हमारा कल्याण करने वाले हों। सर्वज्ञाता पृषादेव हमारा मंगल करें। अतहनगन वाले गरुड़ हमारे हित कारक हों । ज्ञान के अधीश्वर बृहस्पति देव हमारा कल्याण करे ॥६॥ पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदथेषु जग्मयः । अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसा गमन्निह ॥७॥ बिन्दुवत् चिह्न वाले चितकबरे अश्वों से युक्त भूमिपुत्र, शुभकर्मा, युद्धों में गमनशील, अग्नि की ज्वालाओं के समान तेज सम्पन्न, मननशील ज्ञान सम्पन्न, मरुद्गण अपनी रक्षण सामथ्र्यों से युक्त होकर यहाँ आये ॥७॥ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥८॥ हे यजन योग्य देवो! कानों से हम मंगलमय वचनों का ही श्रवण करें । नेत्रों से कल्याणकारी दृश्यों को ही देखें। स्थिर -पुष्ट अंगों से आपकी स्तुति करते हुए, देवों के द्वारा नियत आयु को प्राप्त करके, हम देर्वाहतकारी कार्यों में इसका उपयोग करें ॥८॥ शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम् । पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ॥९॥ हे देवो ! सौ वर्ष तक हमारी आयु की सीमा है। हमारे इस शरीर में बुढ़ापा भी आपने दिया है, उस समय हमारे पुत्र भी पिता बन जाते हैं, अतः हमारी आयु मध्य में ही टूट न जाये, ऐसा प्रयत्न करें ॥९॥ अदितिद्यद्यैरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः । श्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् ॥१०॥ अदिति ही द्युलोक है। अन्तरिक्ष, माता, पिता, पुत्र, सम्पूर्ण देवगण, पञ्चजन (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद) नव उत्पन्न और भावी आगे उत्पन्न होने वाले जो भी हैं, वे अदिति के ही रूप हैं॥ १०॥

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