ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त ५६

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त ५६ ऋषि - सव्य अंगीरस देवता- इन्द्र। छंद जगती - एष प्र पूर्वीरव तस्य चम्रिषोऽत्यो न योषामुदयंस्त भुर्वणिः । दक्ष महे पाययते हिरण्ययं रथमावृत्या हरियोगमृभ्वसम् ॥१॥ जगत् का पोषण करने वाले इन्द्रदेव यजमान के बहुसंख्यक सोमपात्रों को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकारते हैं। वे यजमान, सुन्दर अश्वों से योजित, दीप्तिमान् स्वर्णिम रथ में घिरे बैठे महान् बलवान् इन्द्रदेव को सोम पिलाते है॥१॥ तं गूर्तयो नेमन्निषः परीणसः समुद्रं न संचरणे सनिष्यवः । पतिं दक्षस्य विदथस्य नू सहो गिरिं न वेना अधि रोह तेजसा ॥२॥ जिस प्रकार धन के इच्छुक समुद्र की ओर प्रस्थान करते हैं, उसी प्रकार हविदाता यजमान इन्द्रदेव की ओर हवि ले जाते हुए विचरण करते हैं। हे स्तोता ! जैसे नदियाँ पहाड़ को घेरती हुई चलती हैं, वैसे ही आपकी स्तुतियाँ महान् बलों के स्वामी, यज्ञ के स्वामी, संघर्षक इन्द्रदेव को अपनी तेजस्विता से आवृत कर लें ॥२॥ स तुर्वणिर्महाँ अरेणु पौंस्ये गिरेभृष्टिर्न भ्राजते तुजा शवः । येन शुष्णं मायिनमायसो मदे दुध आभूषु रामयन्नि दामनि ॥३॥ वे महान् इन्द्रदेव शत्रुओं का नाश करने वाले और फौलादी कवच को धारण करने वाले हैं। वे मायावी असुर "शुष्ण" को कारागार में रस्सियों से बाँधकर रखते हैं। उनका निन्दारहित बल संग्राम में पर्वत- शिखर तुल्य प्रतिभासित होता है॥३॥ देवी यदि तविषी त्वावृधोतय इन्द्रं सिषक्त्युषसं न सूर्यः । यो धृष्णुना शवसा बाधते तम इयर्ति रेणुं बृहदर्हरिष्वणिः ॥४॥ हे स्तोता ! सूर्यदेव के द्वारा देवी उषा को प्राप्त करने के समान आपके स्तवन द्वारा प्रवृद्ध बल इन्द्रदेव को प्राप्त होता है, तब वे अपने संघर्षशील बल से दुष्कर्म रूपी तमिस्रा का निवारण करते हैं । शत्रुओं को रुलाने में समर्थ इन्द्रदेव संग्राम में (सेना के माध्यम से) बहुत धूलि उड़ाते हैं ॥४॥ वि यत्तिरो धरुणमच्युतं रजोऽतिष्ठिपो दिव आतासु बर्हणा । स्वर्मीळ्हे यन्मद इन्द्र हर्ष्याहन्वृत्रं निरपामौब्जो अर्णवम् ॥५॥ हे इन्द्रदेव ! आपने बादलों द्वारा धारण किये हुए जलों को आकाश की दिशाओं में स्थापित किया। सोम से हर्षित होकर संघर्षक बल से वृत्र को युद्ध में मारा, तब वृत्र द्वारा ढके जलों को नीचे की ओर प्रवाहित किया ॥५॥ त्वं दिवो धरुणं धिष ओजसा पृथिव्या इन्द्र सदनेषु माहिनः । त्वं सुतस्य मदे अरिणा अपो वि वृत्रस्य समया पाष्यारुजः ॥६॥ हे इन्द्रदेव ! आपने अपने महान् बल से जलों को अन्तरिक्ष से पृथ्वी पर स्थापित किया। आपने सोम पीकर उत्साहपूर्वक संघर्षक बल से वृत्र को मारा और पृथ्वी के सब स्थानों को जलों से तृप्त किया ॥६॥

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