ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १४५

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १४५ ऋषि - दीर्घतमा औचथ्यः देवता- अग्नि । छंद जगती, ५ त्रिष्टुप तं पृच्छता स जगामा स वेद स चिकित्वाँ ईयते सा न्वीयते । तस्मिन्त्सन्ति प्रशिषस्तस्मिन्निष्टयः स वाजस्य शवसः शुष्मिणस्पतिः ॥१॥ हे मनुष्यो ! आप सभी उन अग्निदेव से ही प्रश्न करें, क्योंकि वे ही सर्वत्र गमनशील, सर्वज्ञाता, ज्ञानवान्, निश्चय ही सर्वत्र व्यापक हैं। उन्हीं में प्रशासन की सामर्थ्य तथा सभी अभीष्ट पदार्थ विद्यमान हैं। वे अग्निदेव हीं अन्न, बल तथा शक्ति साधनों के स्वामी हैं ॥१॥ तमित्पृच्छन्ति न सिमो वि पृच्छति स्वेनेव धीरो मनसा यदग्रभीत् । न मृष्यते प्रथमं नापरं वचोऽस्य क्रत्वा सचते अप्रदृपितः ॥२॥ ज्ञान सम्पन्न ही जिज्ञासा प्रकट करते हैं, क्योंकि सर्वसाधारण उनसे नहीं पूछ सकते । धैर्यवान् मनुष्य कार्य को निर्धारित अवधि से पहले ही सम्पन्न कर डालते हैं। वे किसी के कथन को अनावश्यक महत्त्व नहीं देते, अतएवं अहंकार से रहित मनुष्य ही अग्निदेव की सामर्थ्य को प्राप्त करते हैं॥२॥ तमिद्गच्छन्ति जुह्वस्तमर्वतीर्विश्वान्येकः शृणवद्वचांसि मे । पुरुप्रैषस्ततुरिर्यज्ञसाधनोऽच्छिद्रोतिः शिशुरादत्त सं रभः ॥३॥ घृत चमस द्वारा प्रदत्त सभी आहुतियाँ उन अग्निदेव को ही प्रदान की जाती हैं और प्रार्थनाएँ भी उन्हीं के निमित्त हैं। वे अकेले ही हमारी सम्पूर्ण स्तोत्र वाणियों का श्रवण करते हैं। ये अग्निदेव अनेकों के लिए प्रेरणाप्रद, दुःखों के निवारक, यज्ञसाधक, पवित्र संरक्षक तथा सामथ्र्यों से सम्पन्न हैं। अग्निदेव स्नेह युक्त होकर शिशु के समान ही आहुतियों को ग्रहण करते हैं॥३॥ उपस्थायं चरति यत्समारत सद्यो जातस्तत्सार युज्येभिः । अभि श्वान्तं मृशते नान्द्ये मुदे यदीं गच्छन्त्युशतीरपिष्ठितम् ॥४॥ जब ऋत्विग्गण अग्निदेव को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं तब वे शीघ्र प्रदीप्त होकर सब ओर फैल जाते हैं। जब सर्वत्र संव्याप्त यज्ञाग्नि में आहुतियाँ दी जाती हैं, तब ये अग्निदेव उत्साही यजमानों को अभीष्ट फल प्रदान करके प्रोत्साहित करते हैं॥४॥ स ईं मृगो अप्यो वनर्गुरुप त्वच्युपमस्यां नि धायि । व्यब्रवीद्वयुना मर्त्यभ्योऽग्निर्विद्वाँ ऋतचिद्धि सत्यः ॥५॥ वनों में विचरणशील, अनुसंधान करने और उपलब्ध करने योग्य अग्निदेव, उत्तम समिधाओं के बीच स्थापित किये जाते हैं। मेधावी - यज्ञ के ज्ञान से सम्पन्न, सत्ययुक्त अग्निदेव वास्तव में ही मनुष्यों को यज्ञकर्म में प्रेरित करते हुए दिव्य ज्ञान का सन्देश देते हैं॥५॥

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