ऋग्वेद प्रथम मण्डल सूक्त १९१

ऋग्वेद - प्रथम मंडल सूक्त १९१ ऋषि - अगस्त्यो मैत्रावारुणिः देवता - अप्तृण सूर्याः । छंद अनुष्टुपः, १०-१२ महापंक्ति, १३ महा बृहती कङ्कतो न कङ्कतोऽथो सतीनकङ्कतः । द्वा वाविति प्लुषी इति न्यदृष्टा अलिप्सत ॥१॥ कुछ विषैले, कुछ विषरहित और कुछ जल में रहने वाले अल्पविष जीव होते हैं। ये दृश्य भी होते हैं और अदृश्य भी। वे दोनों शरीर में दाह उत्पन्न करते है। उनका विष हममें संव्याप्त हो जाता है॥१॥ अदृष्टान्हन्त्यायत्यथो हन्ति परायती । अथो अवघ्नती हन्त्यथो पिनष्टि पिंषती ॥२॥ यह ओषधि, उन अदृश्य जीवों के विष को समाप्त करती है। वह कूट-पीसी जाकर भी विषैले जीवों के विष को नष्ट करती हैं॥२॥ शरासः कुशरासो दर्भासः सैर्या उत । मौज्जा अदृष्टा वैरिणाः सर्वे साकं न्यलिप्सत ॥३॥ इन विषैले जीवों में से कुछ सरकण्डों, कुछ कुशाघास, कुछ छोटे सरकण्डों में स्थित रहते हैं। कुछ नदी, तालाबों के तटों पर पैदा होने वाले घास में, कुछ पूँज और कुछ वीरण नामक घास में छिपे रहते हैं। ये सभी लिपटने वाले होते हैं॥३॥ नि गावो गोष्ठे असदन्नि मृगासो अविक्षत । नि केतवो जनानां न्यदृष्टा अलिप्सत ॥४॥ जिस समय गौएँ गोष्ठ में और पशु अपने स्थानों में विश्राम करते हैं तथा जब मनुष्य भी थककर विश्राम करने लगते हैं, ऐसे में अदृश्य रहनेवाले ये जीव बाहर निकलते हैं और उन्हें लिपटते हैं॥४॥ एत उ त्ये प्रत्यदृश्रन्प्रदोषं तस्करा इव । अदृष्टा विश्वदृष्टाः प्रतिबुद्धा अभूतन ॥५॥ ये विषाणु चोरों की तरह रात्रि में दिखाई देते हैं। ये अदृश्य होते हुए भी सबको दिखते हैं (उनको प्रभाव दिखता है)। हे मनुष्यो ! इनसे सावधान रहो ॥५॥ द्यौर्वः पिता पृथिवी माता सोमो भ्रातादितिः स्वसा । अदृष्टा विश्वदृष्टास्तिष्ठतेलयता सु कम् ॥६॥ हे विषाणुओ ! तुम्हारे पिता दिव्यलोक, जन्म दात्री पृथ्वी, सोम भातृरूप और देवमाता अदिति भगिनी स्वरूपा हैं, अतः स्वयं अदृश्य रूप होते हुए भी तुम सबको देखने में समर्थ हो । अस्तु तुम किसी को पीड़ित न करते हुए सुखपूर्वक विचरण करो ॥६॥ ये अंस्या ये अङ्ग्याः सूचीका ये प्रकङ्कताः । अदृष्टाः किं चनेह वः सर्वे साकं नि जस्यत ॥७॥ जो जन्तु पीठ के सहारे (सर्पादि) सरकते हैं, जो पैरों के सहारे (कानखजूरा) चलते हैं, जो सुई के समान (बिच्छु) छेदते हैं, जो महाविषेले हैं और जो दिखाई नहीं पड़ते, ये सभी विषेले जीव एक साथ हमें कष्ट न पहुँचायें ॥७॥ उत्पुरस्तात्सूर्य एति विश्वदृष्टो अदृष्टहा । अदृष्टान्त्सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्यः ॥८॥ सबके दर्शनीय, अदृश्य दोषविकारों के नाशक, सूर्यदेव पूर्व दिशा में उदय होते हैं वे सभी अदृश्य प्राणियों और सभी प्रकार की कुटिल चाल धारण करने वाले राक्षसी तत्त्वों को दूर करते हुए प्रकट होते हैं॥८॥ उदपप्तदसौ सूर्यः पुरु विश्वानि जूर्वन् । आदित्यः पर्वतेभ्यो विश्वदृष्टो अदृष्टहा ॥९॥ अनेक अदृश्य जन्तुओं को विनष्ट करते हुए ये सर्वद्रष्टा सूर्यदेव ऊपर उठते हैं, इनके उदित होते ही सभी अनिष्टकारी (विषधारी) जीव छिप जाते हैं ॥९॥ सूर्ये विषमा सजामि दृतिं सुरावतो गृहे । सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ॥१०॥ आसव को जिस प्रकार पात्र में रखते हैं, उसी प्रकार हम सूर्य किरणों में विष को रखते हैं। इस विष से सूर्यदेव प्रभावित नहीं होते तथा हमारे लिए विषनिवारक सिद्ध होते हैं। अश्वारुढ़, सूर्यदेव इस विष का निवारण करते हैं, तथा मधुला विधा इस विष को मृत्युनिवारक अमृत बनाती है॥१०॥ इयत्तिका शकुन्तिका सका जघास ते विषम् । सो चिन्नु न मराति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ॥११॥ कपिजली नामक चिड़िया तेरे विष को खाये। जिससे वह न मरे तथा हमारे विष का भी निवारण हो और मधुला शक्ति इस विष के लिए मृत्युनिवारक (अमृत) सिद्ध हो ॥११॥ त्रिः सप्त विष्पुलिङ्गका विषस्य पुष्यमक्षन् । ताश्चिन्नु न मरन्ति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ॥१२॥ इक्कीस प्रकार की ऐसी छोटी-छोटी चिड़ियाएँ हैं, जो विष के फलों को खा जाती हैं, पर फिर भी प्रभावित नहीं होतीं। इसी प्रकार हम भी विष से मृत्युरहित हों। अश्वारूढ़ सूर्य ने इस विष का निवारण कर दिया है; मधुला विधा विष को अमृत रूप में बदल देती है॥१२॥ नवानां नवतीनां विषस्य रोपुषीणाम् । सर्वासामग्रभं नामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ॥१३॥ निन्यानवे प्रकार की औषधियाँ हैं, जो विषों की निवारक हैं, उन सभी को हम जानते हैं। उनके उपयोग से हर प्रकार के विष का निवारण होता है। अश्वारुढ़, सूर्य इसका निवारण करे तथा मधुली शक्ति इसे अमृत बनाये ॥१३॥ त्रिः सप्त मयूर्यः सप्त स्वसारो अनुवः । तास्ते विषं वि जभ्रिर उदकं कुम्भिनीरिव ॥१४॥ हे विष पीड़ित प्राणी ! जिस प्रकार घड़ों में स्त्रियाँ जल ले जाती हैं, उसी प्रकार इक्कीस मोरनियाँ और भगिनीरूपा सात नदियाँ आपके विष का निवारण करें ॥१४॥ इयत्तकः कुषुम्भकस्तकं भिनद्व्यश्मना । ततो विषं प्र वावृते पराचीरनु संवतः ॥१५॥ इतना छोटा सा यह विषयुक्त कीट है, ऐसे हमारी ओर आने वाले छोटे कीट को हम पत्थर से मार डालते हैं। उसका विष अन्य दिशाओं में चला जाय ॥१५॥ कुषुम्भकस्तदब्रवीगिरेः प्रवर्तमानकः । वृश्चिकस्यारसं विषमरसं वृश्चिक ते विषम् ॥१६॥ पहाड़ से आने वाले कुषुम्भक (नेवला) ने यह कहा कि बिच्छू का विष प्रभावहीन है। हे बिच्छू ! तुम्हारे विष में प्रभाव नहीं है॥१६॥ ॥ इति प्रथम मण्डलं ॥

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