Atmabodheepanishat-Chapter-1 (आत्मबोधीपनिषत्‌ प्रथम अध्याय)

॥ श्री हरि ॥ ॥अथ आत्मबोधोपनिषत्॥ ॥ हरिः ॐ ॥ श्रीमन्नारायणाकारमष्टाक्षरमहाशयम् । स्वमात्रानुभवात्सिद्धमात्मबोधं हरिं भजे ॥ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ॥ वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान् संदधाम्यृतं वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि ॥ तन्मामवतु तद्वक्तारमवत्ववतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥ हे सच्चिदानंद परमात्मन ! मेरी वाणी मन में प्रतिष्ठित हो जाए। मेरा मन मेरी वाणी में प्रतिष्ठित हो जाए। हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर! मेरे सामने आप प्रकट हो जाएँ। हे मन और वाणी ! तुम दोनों मेरे लिए वेद विषयक ज्ञान को लानेवाले बनो। मेरा सुना हुआ ज्ञान कभी मेरा त्याग न करे। मैं अपनी वाणी से सदा ऐसे शब्दों का उच्चारण करूंगा, जो सर्वथा उत्तम हों तथा सर्वदा सत्य ही बोलूँगा। वह ब्रह्म मेरी रक्षा करे, मेरे आचार्य की रक्षा करे। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ भगवान् शांति स्वरुप हैं अतः वह मेरे अधिभौतिक, अधिदैविक और अध्यात्मिक तीनो प्रकार के विघ्नों को सर्वथा शान्त करें । ॥ हरिः ॐ ॥ ॥ श्री हरि ॥ ॥ आत्मबोधोपनिषत्॥ ॥ आत्मबोध उपनिषद ॥ प्रथम अध्याय ॐ प्रत्यगानन्दं ब्रह्मपुरुषं प्रणवस्वरूपं अकार उकार मकार इति त्र्यक्षरं प्रणवं तदेतदोमिति । यमुक्त्वा मुच्यते योगी जन्मसंसारबन्धनात् । ॐ नमो नारायणाय श‌ङ्खचक्रगदाधराय तस्मात् ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रोपासको वैकुण्ठभवनं गमिष्यति । ॥१॥ स्वयं अपने आप में आनन्द स्वरूप विराट् ब्रह्म पुरुष 'अकार-उकार- मकार' से युक्त यह तीन अक्षरों वाला ॐकार रूप प्रणव का स्वरूप है। इसका जप करने से योगीजन सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। शंख, चक्र एवं गदा को धारण करने वाले परमात्मा स्वरूप नारायण के लिए नमस्कार है।' ॐ नमो नारायणाय' नामक इस मन्त्र की उपासना करने वाला मनुष्य वैकुण्ठ धाम को प्राप्त करता है॥१॥ अथ यदिदं ब्रह्मपुरं पुण्डरीकं तस्मात्तडिताभमात्रं दीपवत्प्रकाशम् ॥ ॥२॥ जो यह हृदय रूपी कमल है, वही ब्रह्मपुर है। केवल अकेला वही क्षेत्र विद्युत् अथवा दीपक के सदृश प्रकाशमान होता है॥२॥ ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रो ब्रह्मण्यो मधुसूदनः । ब्रह्मण्यः पुण्डरीकाक्षो ब्रह्मण्यो विष्णुरच्युतः ॥ ॥३॥ देवकी पुत्र भगवान् कृष्ण ब्राह्मणों का हित चाहने वाले हैं, (वे) मधुसूदन. ब्राह्मणों को सदा हित करने वाले हैं, कमल के सदृश नेत्र वाले भगवान् विष्णु ब्राह्मणों के शुभचिन्तक हैं तथा वे अविनाशी भगवान् अच्युत ब्राह्मणों के प्रिय हैं॥३॥ सर्वभूतस्थमेकं नारायणं कारणपुरुषमकारणं परं ब्रह्मोम् । ॥४॥ समस्त भूत-प्राणियों में स्थित रहने वाले एक मात्र भगवान् नारायण ही कारण रूप विराट् पुरुष हैं, वे स्वयं ही कारणरहित हैं, परब्रह्म हैं, वे प्रणवरूप ॐकार स्वरूप हैं॥४॥ शोकमोहविनिर्मुक्तो विष्णुं ध्यायन्न सीदति । द्वैताद्वैतमभयं भवति । मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति । ॥५॥ इस प्रकार से भगवान् विष्णु का चिन्तन करने वाला शोक और मोह से मुक्त होकर कभी भी दुःख को नहीं प्राप्त होता। (वह) द्वैत (भेद बुद्धि वाला), अद्वैत (भेद रहित बुद्धिवाला) हो जाता है। मृत्यु से वह भयरहित हो जाता है। जो भी व्यक्ति इस ब्रह्म में भेद देखता है, वह बार-बार मृत्यु को प्राप्त करता है॥५॥ हृत्पद्ममध्ये सर्वं यत्तत्प्रज्ञाने प्रतिष्ठितम् । प्रज्ञानेत्रो लोकः प्रज्ञा प्रतिष्ठा प्रज्ञानं ब्रह्म ॥ ॥६॥ हृदय कमल के बीच में जो सर्वरूप (चेतन) है, वह प्रज्ञान में प्रतिष्ठित है। यह लोक प्रज्ञा रूप नेत्र से युक्त है या प्रज्ञा से ही गतिशील है। (सर्वत्र) प्रज्ञा ने प्रतिष्ठा प्राप्त की है, अविनाशी ब्रह्म प्रज्ञान स्वरूप है॥६॥ स एतेन प्रज्ञेनात्मनास्माल्लोकादुत्क्रम्यामुष्मिन्स्वर्गे लोके । सर्वान्कामानाप्त्वाऽमृतः समभवदमृतः समभवत् ॥॥७॥ वह श्रेष्ठ ज्ञानी इस उत्कृष्ट ज्ञान-सम्पन्न आत्मा के रूप में इस लोक से ऊर्ध्वगमन करके उच्च स्थान पर जाकर स्वर्गलोक में सर्वकामनाओं को प्राप्त करके अमर हो गया॥७॥ ॥ इति प्रथमा अध्यायः ॥ ॥ प्रथम अध्याय समात ॥

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